बेंगलुरू, 4 मार्च (आईएएनएस)। ‘कभी हार न मानें’ -यह वाक्य सुनने में जितना सरल है, इसमें छिपी अभिप्रेरणा उतनी ही गंभीर है। इसी वाक्य से प्रेरित विराली मोदी (26) ने कभी अपनी अशक्तता को अभिशाप नहीं माना, बल्कि दूसरे अशक्त लोगों का जीवन सुगम बनाने के लिए वह निरंतर संघर्षरत हैं।
बेंगलुरू, 4 मार्च (आईएएनएस)। ‘कभी हार न मानें’ -यह वाक्य सुनने में जितना सरल है, इसमें छिपी अभिप्रेरणा उतनी ही गंभीर है। इसी वाक्य से प्रेरित विराली मोदी (26) ने कभी अपनी अशक्तता को अभिशाप नहीं माना, बल्कि दूसरे अशक्त लोगों का जीवन सुगम बनाने के लिए वह निरंतर संघर्षरत हैं।
चौदह साल की उम्र में मलेरिया से पीड़ित होने के कारण विराली 23 दिनों तक कॉमा में रही थीं। आंखें खुलीं तो परिजनों ने इसे कोई दैवी चमत्कार से कम नहीं माना। चिकित्सकों द्वारा लाइफ सपोर्ट हटाए जाने पर उनके प्रमुख अंग खुद काम करने लगे, लेकिन वह अपने पैरों पर चलने-फिरने से अशक्त बन चुकी थीं। तभी से वह खुद व अन्य अशक्त लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं।
विराली कहती हैं, “ट्रेन में चढ़ते समय रेलवे स्टेशनों पर जब कुली मुझे गोद में उठाते थे, तो वे जबरन मेरे शरीर को टटोलने लगते थे। यह मुझे बहुत बुरा लगता था। तभी मैंने ठान लिया, मैं अपनी तरह लाचार लोगों की जिंदगी को आसान बनाने का संकल्प लिया।”
विराली ने एक साल पहले एक सार्वजनिक अर्जी में लिखा, “मैं मुंबई की अशक्त महिला हूं, जिसे सफर करना अच्छा लगता है। मेरे साथ तीन बार ऐसी घटनाएं हुईं जब कुलियों ने मुझे उठाकर ले जाते समय गलत इरादे से छूने व टटोलने की काशिश की। वे ट्रेने में चढ़ने में मेरी मदद कर रहे थे क्योंकि भारतीय रेलवे की ट्रेनों में व्हीलचेयर से चढ़ना सुगम नहीं था।”
उन्होंने बताया, “मुझे डायपर पहनना पड़ता था, क्योंकि ट्रेन के शौचालय का उपयोग मैं नहीं कर पाती थी। मेरी लड़ाई अशक्तों के लिए मानवीय सम्मान सुनिश्चित करना है।”
इस अर्जी ने केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गांधी समेत देशभर में हजारों लोगों का ध्यान इस ओर खींचा। उन्होंने जवाब में ट्रेन में अशक्तों का सफर सुगम बनाने का भरोसा दिलाया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन रेलमंत्री सुरेश प्रभु को संबोधित अर्जी में उनके कटु अनुभव को ‘ए डेसएबल पर्सन ऑन एन इंडियन ट्रेन’ के रूप में प्लेटाफार्म चेंज डॉट ओआरजी पर साझा किया गया।
विराली ने आईएएनएस को दिए एक साक्षात्कार में बताया, “ज्यादातर अशक्त लोगों को अपने घरों की चारदीवारी में कैद रहना पड़ता है, क्योंकि हमारी सड़कें, सार्वजनिक परिवहन और अधिकांश बुनियादी संरचनाएं व्हील चेयर के लिए अनुकूल नहीं है। अशक्त लोगों को नहीं मालूम कि कहां जाना है और कैसे जाना। हमारे देश में अशक्तता दुर्दम्य है।”
डिजिटल दुनिया में उनकी अर्जी और अभियान ‘माई ट्रेन टू’ को भारी समर्थन मिला और दो लाख से ज्यादा लोग उनके साथ खड़े हो गए, लेकिन असलियत में इससे बहुत फायदा तब तक नहीं मिला, जब तक उन्होंने इस मसले को लेकर खुद आगे बढ़ने का फैसला नहीं लिया।
विराली अभिप्रेरणा देने वाली वक्ता भी हैं। उन्होंने बताया, “रेलवे के कई अधिकारियों ने मेरी अर्जी पढ़कर मुझसे संपर्क किया और ट्रेन को निशक्तों के लिए सुगम बनाने की दिशा में काम करने की मंशा जताई। कुछ गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिलकर हमने केरल के कोच्चि, तिरुवनंतपुरम, त्रिशूर और एर्नाकुलम और तमिलनाडु के चेन्नई और कोयंबतूर रेलवे स्टेशनों पर पोर्टेबल रैंप और फोल्डेबल व्हीलचेयर रखवाए।”
पोर्टेबल रैंप और ट्रेन कोच के गलियारे में चलने के आकार के व्हील चेयर से ट्रेन में चढ़ने और शौचालय का इस्तेमाल करने में किसी की मदद की जरूरत नहीं के बराबर होती है।
विराली ने कहा, “मैं मुंबई में भी स्टेशनों को अशक्तों के लिए सुगम बनाने के लिए रेलवे के अधिकारियों के साथ भी काम कर रही हूं। यह सब सरकार की मदद के बगैर संभव हो पाया है। कल्पना कीजिए, अगर सरकार इस दिशा में दिलचस्पी दिखाए तो देश में अशक्तों का जीवन कितना सुगम हो जाएगा।”
उन्होंने अपना इरादा जाहिर करते हुए कहा कि सांख्यिकी मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में भारत में अशक्त लोगों की आबादी 2.60 करोड़ थी और भारतीय रेल उनके साथ सामान की तरह व्यवहार नहीं कर सकती है।
विराली ने बताया, “जिन लोगों ने मेरी अर्जी पढ़ी, उनमें अनेक लोगों को विश्वास नहीं था कि कुछ बदलने वाला है, लेकिन मेरी मां (पल्लवी मोदी) इस संघर्ष में मेरे साथ खड़ी थीं। उनके अलावा हजारों लोग ऐसे थे जो सही मायने में अशक्तों के लिए बेहतर बुनियादी सुविधा चाहते थे।
विराली इस समय मुंबई के एक ट्रेवल पोर्टल में काम कर रही हैं। यह पोर्टल सभी प्रकार की अशक्तता वाले लोगों के लिए काम करता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अशक्त लोगों को ‘दिव्यांग’ नाम दिया है, जिसका अर्थ है सुंदर अंग वाले। विराली को इस शब्द पर आपत्ति है।
उन्होंने दृढ़ता के साथ कहा, “प्रधानमंत्री की ओर से इस शब्द का इस्तेमाल प्रतिगामी व असंवदेनशील दृष्टिकोण है। हम भारतीय अशक्तता पर नकाब क्यों डालें और इसके लिए नया शब्द गढ़ें। जो अशक्त नहीं हैं, उन्हें भले ही यह शब्द मुक्ति प्रदान करने वाला प्रतीत हो सकता है, लेकिन इससे हमारे उन संघर्षो पर पर्दा डाला जा रहा है, जिनसे हमें रोजाना दो-चार होना पड़ रहा है। ऐसे शब्दों को हटा देना चाहिए।”
विराली ने कहा, “प्रधानमंत्री ने देश में सार्वभौम सुगमता लाने के लिए 2015 में ‘एक्सेसिबल इंडिया अभियान’ भी चलाया था। तीन साल से ज्यादा समय बीत जाने पर भी उस अभियान से क्या हासिल हो पाया है? हम आज भी उसी तरह संघर्ष कर रहे हैं।”
विराली अमेरिका के पेंसिलवानिया में एक दशक से ज्यादा वक्त गुजार चुकी हैं। उनके पिता वहां एक हॉस्पिटैलिटी फर्म मे काम करते थे। वह चार साल की उम्र में ही अमेरिका गई थीं। वह कहती हैं कि अशक्त लोगों की सुविधा के मामले में भारत की स्थिति खेदजनक है।
विराली 2006 में छुट्टियों में भारत आई थीं, उसी समय उन्हें यहां मलेरिया का संक्रमण हो गया था। वह जब अमेरिका लौटीं तो डाक्टरों को दिखाया, लेकिन उस समय इसका पता नहीं चल पाया। उन्होंने बताया, “मलेरिया मेरे शरीर में घर कर लिया, जिससे श्वांस की तकलीफ और हृदयाघात से गुजरना पड़ा। मैं 23 दिनों तक बेहोश रही।”
(यह साप्ताहिक फीचर आईएएनएस और फ्रैंक इस्लाम फाउंडेशन की सकारात्मक पत्रकारिता परियोजना का हिस्सा है)