प्रभुनाथ शुक्ल
नई दिल्ली, 15 सितंबर (आईएएनएस/आईपीएन)। देश की राजव्यवस्था के संचालन के लिए पारदर्शी लोकतंत्र संवैधानिक सत्ता के संचालन की रीढ़ है। इंसानी वजूद के लिए जितनी आवश्यक सांस है, उतना ही स्वस्थ्य और साफ-सुथरा लोकतंत्र और उससे जुड़ी राजनीति। राजनीतिक शुचिता के बगैर हम एक ईमानदार लोकसत्ता की संकल्पना नहीं कर सकते।
राजनीति में बढ़ता बाहुबल और धनबल का दबदबा लोकतंत्र को दिशाहीन बना रहा है। लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक दल की इस मुद्दे पर संवेदनशीलता नहीं दिखती है। पारदर्शी लोकतंत्र के लिए अच्छी और सकून देने वाली खबर है कि अब राजनीति में अपराध को नोटिस किया जाने लगा है। देश के शीर्ष राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा इस पर पूरी शिद्दत से संवेदनशील और मुखर दिखती हैं। लेकिन क्या शीर्ष दलों की यह दिली चिंता है या सिर्फ दिखावा है?
अगर यह केवल दिखावा है तो बेहद चिंता और चिंतन का सवाल है। लोकतंत्र जागरूक और मजबूत हो रहा है, आम आदमी अपने हक और हकूक के लिए नींद से जागा है लेकिन लोकतंत्र गतिहीन और दिशाहीनता की ओर मुंह मोड़ रहा है। आम चुनावों के पहले राहुल गांधी ने दागियों को बचाने की कोशिश वाले अध्यादेश को फाड़कर इस बहस को हवा दी थी। इसके बाद देश का नेतृत्व संभालने वाले नरेंद्र मोदी ने भी संसद को 2015 तक दागियों से मुक्त करने का संकल्प दुहराया है।
प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च अदालत से भी अपील की है। उन्होंने फैसलों में गतिशीलता लाने की अपील की है। राजनेताओं पर लंबित मुकदमों को फास्ट टैक के जरिए सुलझाने पर बल दिया है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या राजनैतिक दल अपनी मंशा के प्रति प्रतिबद्ध हैं? देश की सर्वोच्च अदालत ने यह साफ कर दिया कि यह सब इतना आसान नहीं है। इसके लिए राजनीतिक संस्थाओं और दूसरे लोगों को आगे आना होगा, केवल अदालतों के गतिशील होने से यह संभव नहीं है।
अदालतें पहले ही मुकदमों के बोझ तले दबी हैं। जजों की भारी कमी है। वहीं अदालती बजट इतना अधिक नहीं है कि यह सब संभव हो। अदालतों के लिए अमेरिका में जहां 5 फीसदी बजट उपलब्ध कराया जाता है, वहीं भारत में यह प्रतिशत 0.9 है।
उत्तर प्रदेश में उपचुनाव हुआ है, मगर राजनैतिक लिहाज से सबसे ताकतवर इस राज्य में राजनीतिक शुचिता का सवाल गायब है। इस उपचुनाव में राजनीति को दागियों से मुक्त करने की मंशा पर सवाल उठने लगा है। कम से कम मीडिया रिपोर्ट यही बताती है। राजनीति को दाग मुक्त करने के बजाय सभी दलों को लगता है कि ‘दाग अच्छे हैं’! इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए दागदार राजनीति को खाद-पानी देने की नीति जारी है।
उपचुनाव पर मीडिया में जो रपट आई है वह चौंकाने वाली है। राजनीति में यहां बाहुबल और धनबल का खुला प्रयोग दिखता है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव की 11 सीटों पर उतरे 118 उम्मीदवारों में 21 फीसदी दागी हैं। इन पर हत्या, दुष्कर्म और अपहरण जैसे संगीन आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसके अलावा तीन दर्जन उम्मीदवार करोड़पति हैं। आंकड़ों को देखकर लगता है कि राजनीतिक दलों के दिल में काला-काला और मुंह पर मीठा-मीठा रहता है।
दागी को बिल फाड़ने वाले राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस की स्थिति सबसे बुरी है। वहीं भाजपा दागियों को चुनावी जंग मंे उतारने में पीछे नहीं दिखती हैं। लोहिया के समाजवाद की वाहक समाजवादी पार्टी सपा सबसे आगे दिखती है। कांग्रेस के 45 भाजपा के 30 और सपा के 55 फीसदी उम्मीदवार दागदार हैं। निर्दलीय भी पीछे नहीं हैं। 18 फीसदी पर आपराधिक मामले हैं। उपचुनावों की जंग में उतरे 12 फीसदी उम्मीदवारों पर गंभीर मामले दर्ज हैं। इससे यह साफ हो रहा है कि राजनीति को दागमुक्त करने का संकल्प दिखावा है।
राजनीति में बाहुबल के साथ धनबल का भी प्रयोग बढ़ रहा है। 118 उम्मीदवारों में 36 करोड़पति उम्मीदवार लोकतंत्र के इस जंगी मुकाबले में उतरे हैं। यानी कुल 31 फीसदी लोग करोड़पति हैं। राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो 13 राज्य सरकारों के 23 फीसदी मंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आंकड़ों की इस गणित में दो प्रदेशों के मुख्यमंत्री भी शामिल हैं।
पारदर्शी और पवित्रता का ढिंढोरा पीटने वाली मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में दर्जनभर केंद्रीय मंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। वहीं 24 फीसदी सांसदों पर अरोप तय हो चुके हैं। विरोधियों की तरफ से इस पर समय-समय पर हमला भी बोला जाता रहा है। लेकिन राजनीति और संसद को दागमुक्त की उद्घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री अपने ही सहयोगियों के प्रति रहमदिली दिखाते दिखते हैं। दागी मसलों को उठाने वाले शीर्ष राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस ने भी लोकसभा के आम चुनावों में दागियों का जमकर इस्तेमाल किया था।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 33 और कांग्रेस ने 28 फीसदी दागदार छबि के उम्मीदवारों पर विश्वास जताया था, जबकि यही दल राजनीतिक शुचिता की बात कहते हैं। प्रधानमंत्री संसद को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों से मुक्ति का संकल्प दुहराया है, लेकिन क्या यह संभव लगता है?
अगर यह संभव है तो उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस और भाजपा सरीखे शीर्ष राजनीतिक दलों ने अपनी संकल्पबद्धता क्यांे नहीं दोहराई? देश की संसद में एक तिहाई सांसद दागी हैं। राजनीति में यह तादाद लगतार बढ़ती दिखती है। सवाल उठता है कि क्या संसद को दागियों से मुक्त करने का संकल्प कामयाब होगा? फिलहाल राजनीति की मंशा को देखते हुए यह परीणिति पर पहुंचता नहीं दिखता। यहां सबसे पेचीदा सवाल यह है कि आखिरकार दागी किसे माना जाए?
बहस का यह सबसे बड़ा मसला है। क्या महज आरोप दर्ज होने के बाद ही व्यक्ति को आपराधी मान लिया जाए या फिर अदालत की ओर से उसे दोषी ठहराने के बाद दागी माना जाए? कानूनी किताबों में उलझी इस कानूनी परिभाषा के चलते ही आपराधिक छबि के लोग राजनीति को अपना सबसे सुरक्षित आशियाना बनाते दिखते हैं।
राजनीतिक दल भी दिल खोलकर सहयोग करते हैं, जिससे इस पर लगाम लगाने के बजाय यह समस्या बढ़ती जा रही है। लोकतंत्र के लिए यह कैंसर साबित हो रही है। बड़ा सवाल जनता की जिम्मेदारी और जागरूकता का भी है।
आमतौर पर कई चुनावी इलाकों में देखा गया है कि आपराधिक छवि के लोग साफ-सुथरे वालों पर भारी पड़ते हैं। एक तरफ जनता अच्छे चरित्र वाले उम्मीदवारों की डिमांड करती है दूसरी ओर दाग अच्छे हैं कि तर्ज पर उन्हीं पर विश्वास जताती है। राजनीति की यह सबसे बड़ी बिडंबना है। लोकतंत्र में इस दोमुंहेपन नीति पर बेहद आश्चर्य होता है। सर्वोच्च अदालत ने भी साफ कर दिया है कि दागियों को उम्मीदवार न बनाया जाए। प्रधानमंत्री भी इस पर संकल्पित हैं। फिलहाल उपचुनावों को परिप्रेक्ष्य में यह नहीं लगता है कि हमारे शीर्ष राजनैतिक दल अपनी संकल्पबद्धता के प्रति संवेदनशील हैं।
राजनीति में धनबल और बाहुबल के पीछे सबसे अहम मसला फंडिंग का है। इस तरह के उम्मीदवारों की तरफ से राजनैतिक दलों की ओर से अकूत दौलत टिकट के लिए उपलब्ध कराई जाती है, जिससे इस प्रवृत्ति पर रोक लगाना संभव नहीं है। यह मसला कानून के जरिए ही संभव हो सकता है। संसद में बिल लाकर कानून के जरिए ही इस समस्या पर लगाम लगायी जा सकती है। दूसरा रास्ता आरोप लगने पर ही उन्हें राजनीति से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। यह पाबंदी उस स्थिति तक जारी रहे जब तक कि अदालत की ओर से उन्हें दोषमुक्त न कर दिया जाए। जनता को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। आपराधिक छवि के लोगों को वोट के जरिए चोट देनी चाहिए। जिससे राजनीति में नीति, नैतिकता और पारदर्शिता कायम रहे। तभी सच्चे लोकतंत्र की स्थापना संभव है।