पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन राज्य मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत की कुल भूमि का 32 फीसदी हिस्सा मरुस्थलीकरण के खतरे का सामना कर रहा है। उत्तरप्रदेश राज्य की सरकार ने वाराणसी में चल रही कोकाकोला फ़ैक्ट्री को बन्द करने की माँग की है क्योंकि यह कारख़ाना बड़ी मात्रा में भूमिगत जल का इस्तेमाल कर रहा है और इस कारख़ाने से निकले अपशिष्ट जल भण्डारों और आसपास के इलाके के पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं। वहीं गोवा के मुख्यमन्त्री मनोहर पर्रीकर ने यह वायदा किया है कि डेढ़ साल बाद यानी 19 दिसम्बर 2015 को मनाई जाने वाली पुर्तगाली उपनिवेशवादियों से गोवा की मुक्ति की 54 वीं जयन्ती तक पूरे गोवा को वे कूड़ा-मुक्त कर देंगे। और पवित्र नदी गंगा के पानी को दूषित होने से बचाने के लिए भी सरकार ने क़दम उठाने शुरू कर दिए हैं। केन्द्रीय जल संसाधन और सफ़ाई मन्त्रालय ने उन पाँच राज्यों की सरकारों के नाम, जहाँ से गंगा गुज़रती है, पत्र लिखकर उनसे यह माँग की है कि उन्हें नदी के किनारे-किनारे शौचालय और सफ़ाई मशीनें लगानी चाहिए, ताकि स्थानीय जनता नदी के किनारे या नदी में शौच आदि से निवृत्त न हो। रेडियो रूस के विशेषज्ञ बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
ये सब सूचनाएँ इस बात का सबूत हैं कि केन्द्र सरकार गम्भीरता से पर्यावरण दूषण को दूर करने के लिए काम करना चाहती है। लेकिन इस रास्ते पर कठिनाइयों की कमी नहीं है और अभी तक यह भी पता नहीं है कि भारत सरकार इन कठिनाइयों को पार कर पाएगी या नहीं। भारत में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि पर्यावरण दूषण के विरुद्ध संघर्ष के रास्ते पर चलते हुए सबसे पहली मुठभेड़ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों से करनी पड़ती है। कोकाकोला कम्पनी के कारख़ाने इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं। और कोकाकोला कम्पनी ही अकेली ऐसी कम्पनी नहीं है। न सिर्फ़ कोकाकोला भूमिगत जल का भारी मात्रा में उपयोग कर रही है और इस तरह से लाखों लोगों को भूमिगत स्वच्छ जल के उपयोग से वंचित कर रही है, बल्कि कृषि क्षेत्र में सिंचाई के लिए भी पानी की कमी हो गई है। कोकाकोला के सिर्फ़ अकेले वाराणसी कारख़ाने में प्रति मिनट 600 प्लास्टिक बोतलों में कोला पेय का उत्पादन किया जाता है। बाद में ये सारी प्लास्टिक की बोतलें सड़कों पर इधर-उधर पड़ी रहती हैं क्योंकि इन बोतलों को नष्ट करने वाले कारख़ाने भारत में नहीं हैं।
फिर, भूमि के मरुस्थलीकरण का ख़तरा कल से ही शुरू नहीं हुआ है। यह एक लम्बी प्रक्रिया है। लेकिन पिछली सदी के सातवें दशक में ’हरित-क्रान्ति’ आन्दोलन शुरू होने के बाद यह प्रक्रिया बड़ी तेज़ी से बढ़ी है। हालाँकि हरित-क्रान्ति नाम सुनकर लगता है कि यह कोई पर्यावरण समर्थक आन्दोलन होगा, लेकिन इस क्रान्ति ने, जिसका उद्देश्य किसानों को कृषि के नए और गहन् तरीके सिखाना था, आख़िरकार भारत के खेतों और ज़मीनों को रसायनिक उर्वरकों से पाट दिया और इन उर्वरकों की वज़ह से भू-क्षरण शुरू हो गया और भूमि बंजर बनने लगी। उत्तर भारत के मैदानी इलाके में तो अब प्राकृतिक रूप से सुरक्षित भूमि मिलनी ही कठिन है।
हो सकता है, कि भारत के गोवा जैसे किन्हीं सुदूर इलाकों में ज़मीन अब भी साफ़-सुथरी और प्राकृतिक रूप से उर्वरा हो। लेकिन सारे देश के स्तर पर पैदा हो गई भू-क्षरण की समस्या से निबटना सचमुच बहुत मुश्किल है।
बात सिर्फ़ सरकार द्वारा इस समस्या को दूर करने का निर्णय ले लेने की ही नहीं है। प्रसिद्ध रूसी लेखक मिख़ायल बुल्गाकोफ़ के नाटक ’कुत्ते का दिल’ का एक प्रसिद्ध कथन है — तबाही शौचालयों में नहीं, तबाही दिमाग़ों में हैं। अगर भारतीय नागरिकों की कई पीढ़ियाँ खेतों में और खुले में दिशा मैदान के लिए जाती रही हैं तो लाखों नए शौचालय बनाकर भी उन्हें शौचालयों में शौच करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। गंगा के पानी के प्रदूषण की भी क्या बात की जाए। गंगा को पवित्र माना जाता है और आज भी लाखों लोग गंगा की गन्दगी से न डरकर, गंगा में नहाते हैं और गंगा के उसी गन्दे पानी को पवित्र समझकर पीते हैं
इसलिए भारत सरकार से हम यही कामना कर सकते हैं कि वह दिखावे के लिए कुछ शानदार कार्रवाइयाँ आयोजित करके ही चुप न रह जाए, बल्कि पर्यावरण प्रदूषण से देश को बचाने का दीर्घकालीन और मुश्किल काम करे। यह काम शायद ही सरकार पाँच साल के अपने कार्यकाल में पूरा कर पाएगी। देर-सवेर सत्ता में आने वाली नई सरकार को भी यह काम हाथ में लेना होगा, चाहे वह किसी दूसरी पार्टी की ही सरकार क्यों न हो।