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 अघोराचार्य बाबा किनाराम जी,पथ-प्रदर्शक संत | dharmpath.com

Saturday , 23 November 2024

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अघोराचार्य बाबा किनाराम जी,पथ-प्रदर्शक संत

imagesकिनाराम सहज नहीं फकीरी,पग धरत याद आये दूध छठी का

अघोर सम्प्रदाय के अनन्य आचार्य, संत किनाराम का जन्म सन् १६९३ भाद्रपद शुक्ल को चंदौली के रामगढ़ गाँव में अकबर सिंह के घर हुआ।  बारह वर्ष की अवस्था में विवाह अवश्य हुआ पर वैराग्य हो जाने के कारण गौना नहीं कराया।  ये देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए गिरनार पर्वत पर बस गये। किनाराम सिद्ध महात्मा थे और इनके जीवन की अनेक चमत्कारी घटनाएं प्रसिद्ध हैं।  सन् १७६९ को काशी में ही इनका निधन हुआ।

किनाराम   जी का जन्म बनारस के चन्दौली तहसील के अन्तर्गत रामगढ़ ग्राम में क्षत्रिय रघुवंशी परिवार में विक्रमी संवत् १६५८ में, भाद्रपद के कृष्णपक्ष में अघोर चुतुर्दशी के दिन हुआ।  श्री अकबर सिंह को ६० वर्ष की आयु में यह पुत्र प्राप्त हुआ था इससे ग्रामवासी भी विलक्षण प्रसन्न थे।  बालक दीर्घजीवी और कीर्तिवान् हो इसके लिये उन्हें दूसरे को दे कर उससे धन दे कर खरीदा गया।  इसी आधार पर आपका नाम कीना (क्रय किया हुआ) रखा गया। बालक कीना का शैशव समवयस्क बालकों के साथ खेलने-कूदने तथा महापुरुषों की जीवन कथाएँ सुनने और मनन करने में बीता।  इधर माता-पिता कि आयु भी अधिक हो चली थी।  उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था अत: ९ वर्ष की उम्र में ही आपका विवाह कात्यायनी देवी के साथ कर दिया गया।  १२ वर्ष की उम्र में गौने की तैयारी हो रही थी, तभी कात्यायनी देवी की मृत्यु का समाचार आया।  कुछ समय बाद माता-पिता भी परलोक सिधार गये और कीना के लिये वैराग्य का मार्ग प्रशस्त हो गया।  उन्होंने घर छोड़ा और सब से पहले गाजीपुर में एक गृहस्थ साधु शिवादास के यहाँ पड़ाव डाला।  बाबा शिवादास को बालक कीना की विलक्षणता का आभास हो गया था।  उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्होंने छिप कर देखा कि गंगा स्नान के लिये जाने वाले कीना का चरण-स्पर्श करने के लिये गंगाजी स्वयं आगे बढ़ रही हैं।  कुछ दिन बाबा शिवादास के साथ रहने के बाद वे उनके शिष्य बन गये।  कुछ वर्षों के उपरान्त उन्होंने गिरनार पर्वत की यात्रा की।  वहाँ भगवान् दत्तात्रेय के दर्शन किये और उनसे अवधूती की दीक्षा ग्रहण की।  इसके बाद वे काशी लौट आये।  यहाँ आकर बाबू कालूराम जी से अघोर मत का उपदेश लिया।  इस प्रकार कीना जी ने वैष्णव, भागवत् तथा अघोर पन्थ इन तीनों को साध्य किया।  वैष्णव होने के नाते वे राम के उपासक बने।  अघोर मत का पालन करने के कारण इन्हें मद्य-मांसादि का सेवन करने में भी कोई आपत्ति नहीं थी।  जाति-पाँति का भी कोई भेद-भाव न था।  हिंदू-मुस्लिम सभी उनके शिष्य बन गये।

अपने दोनों गुरुओं की मर्यादा का पालन करते हुए उन्होंने वैष्णव मत के चार स्थान-मारुफपुर, नयी ढीह, परानापुर तथा महुवर और अघोर मत के चार स्थान रामगढ़ (बनारस), देवल (गाजीपुर), हरिहरपुर (जौनपुर) तथा क्रींकुण्ड काशी में स्थापित किये।  उनकी प्रमुख गद्दी क्रींकुण्ड पर है। रामावतार की उपासना करना इनका वैशिष्ट्य है।  ये तीर्थों को भी मानते हैं और औघड़ भी कहलाते हैं।  ये देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते, अपने शवों को जलाते नहीं, उन्हें समाधि देते हैं।  कीनाराम जी के कई चमत्कार सुनने को मिलतेहैं।  वे जब जूनागढ़ पहुँचे तो वहाँ के नवाब (जिसे कोई सन्तान न थी) ने राज्य में भिखारियों को जेल भेजने का आदेश दिया हुआ था।  कीनाराम के शिष्य बीजाराम भी भिक्षा माँगते समय जेल भेज दिये गये थे।  जब कीनाराम जी को पता चला तो वे जेल पहुँचे।  वहाँ अनेक साधु चक्की चला कर आटा पीस रहे थे।  उन्होंने साधुओं को चक्की चलाने से मना किया और अपनी कुबड़ी से चक्की को ठोकते हुए कहा, “चल-चल रे चक्की।’  चक्की अपने आप चलने लगी।

जब नवाब को इस बात की सूचना मिली तो वह दौड़ा आया और कीनाराम को आग्रह करके किले में ले गया, उनसे माफा माँगी।  कानीराम जी ने नवाब को माफ कर दिया और उससे कहा कि आज से सभी साधुओं को आटा और नमक दिया जाय जिससे उन्हें भविष्य में भीख न माँगनी पड़े।  सभी साधु तत्काल रिहा कर दिये गये और नवाब को संतान की भी प्राप्ति हो गयी।  चलते-चलते आप कंधार पहुँचे।  यहाँ के किले पर फारस के शाह अब्बास का कब्जा था जिसने जहाँगीर के बुढ़ापे का लाभ उठा कर उस पर अपना अधिकार कर लिया था।  जहाँगीर और शाहजहाँ काफी प्रयास के बाद भी उसे जीत नहीं पा रहे थे। शाहजहाँ का औघड़ संतों में विश्वास होने के कारण प्रयास के बाद भी उसे जीत नहीं पा रहे थे।  शाहजहाँ का औघड़ संतों में विश्वास होने के कारण कीनाराम ने उसे आशीर्वाद दिया।  फारस के सूबेदार शाह के खिलाफ हो गये और इस प्रकार शाहजहाँ बिना लड़ाई लड़े ही किला जीतने में कामयाब हो गया।  फिर इसी किले में शाहजहाँ ने कीनाराम जी का स्वागत किया।  एक बार कीनाराम जी ने दरभंगा निवास में मैथिली ब्राह्मणों के सामने एक मरे हुए हाथी को जीवित कर दिया था।

इसी प्रकार उन्होंने एक ब्राह्मणी को आशीर्वाद दिया जिसके बाद उसे चार बच्चे हुए। जनुश्रुति के अनुसार इन्होंने एक बार क्षिप्रा नदी के तट पर औरंगजेब को फटाकारा था कि जिस मज़हब की आड़ में तुम अमानुषिक कार्य कर रहे हो उसे इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।  तुम्हारी सन्तान ही तुम्हें इसके लिये प्रताड़ित करेगी।

इस प्रकार कीनाराम जी ने भारत के कोने-कोने में दीन दुखियों की सेवा की तथा शोषित लोगों को शोषण से मुक्त कराया।  इन्होंने अन्याय कभी सहन नहीं किया।

कीनाराम जी का महाप्रयाण भी एक अद्भुत घटना है।  २१ सितंबर १७७१ ई. को उन्होंने काशी के अपने शिष्यों, विद्वानों तथा वेद पाठियों और वीर क्षत्रियों को बुलाया और कहा, “आप सब मेरे पार्थिव शरीर को हिंगलाज देवी के यंत्र के समीप पूर्वाभिमुख स्थापित करें।  जो समय-समय पर मेरे पार्थिव शरीर के सन्निकट हिंगलाज देवी के यंत्र की परिधि प्रार्थना करेगा, वह फलीभूत होगी।”

इसके उपरान्त उन्होंने सब के सामने हुक्का पिया।  तभी आकाश में बिजली जैसी कोई चीज चमकी, जोर की गर्जना हुई, जैसे भूचाल आया हो।  उसी के साथ इनके ऊर्ध्वरन्ध्र से तेजोमय प्रकाश निकला और देखते-देखते ब्रह्माण्ड में विलीन हो गया।  उपस्थित सारे लोग रोने बिलखने लगे।  तभी आकाश को चीरती हुई आवाज आची, “व्याकुल न हो, मैं क्रींकुण्ड स्थित हिंगलाज देवी के यंत्र की परिधि में चिताओं की लकड़ी से जलती हुई अखण्ड धनी में निकट सदैव एक रुप से रहूँगा।”

काशी का यह क्रींकुण्ड अघोर साधना का केन्द्र बिन्दु रहा है।  यहाँ अनेक औघड़ साधकों ने साधना की और देश की समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

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