आधुनिक युग में कार्ल मार्क्स को मजदूरों का मसीहा कहा जाता है। उनके नाम पर मजदूर दिवस मनाया जाता है तो इसमें मजदूर या श्रम शब्द जुड़ा होने से संवेदनायें स्वभाविक रूप जाग्रत हो उठती हैं। एक बात याद रखिये आज भारत में जो हम नैतिक, अध्यात्म, तथा तथा देशप्रेम की भावना का अभाव लोगों में देख रहे हैं वह शारीरिक श्रम को निकृष्ट मानने की वजह से है। हर कोई सफेद कालर वाली नौकरी चाहता है और शारीरिक श्रम करने से शरीर में से पसीना निकलने से घबड़ा रहे हैं।सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने पास या साथ काम करने वाले श्रमजीवी को कभी असम्मानित या हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। मनुष्य मन की यह कमजोरी है कि वह धन न होते हुूए भी सम्मान चाहता है। दूसरी बात यह है कि श्रमजीवी मजदूरों के प्रति असम्माजनक व्यवहार से उनमें असंतोष और विद्रोह पनपता है जो कालांतर में समाज के लिये खतरनाक होता है। यही श्रमजीवी और मजदूरी ही धर्म की रक्षा में प्रत्यक्ष सहायक होता है। यही कारण है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में सभी को समान दृष्टि से देखने की बात कही जाती है।
श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।