बिंदास और खिलंदड़पने में व्यवस्था पर चोट करने वाली बात कहने और फिर उसे शब्दों में पिरोने का हुनर विरले व्यक्तियों में ही होता है और पत्रकारिता के साथ साहित्य की दुनिया में अपनी पुस्तक तरकश से प्रवेश कर रहे अनुराग उपाध्याय को यह गुण नैसर्गिक तौर पर मिला है। तरकश शब्द सुनते पढ़ते ही मन में छवि उभरती है तीरों से भरे उस तरकश की, जो एक धनुर्धर अपनी पीठ पर रखे चलता है। पुस्तक के कवर पेज पर तरकश में कलम रूपी तीर किताब के भीतर की सामग्री का अंदेशा देती हैं।
कहते हैं तीर और जुबान सोच समझकर चलाये जाने चाहिये। एक बार मुंह से शब्द निकल जायें और तरकश से तीर तो फिर उन्हें वापस लाना असंभव होता है। तीर निशाने पर लगे और बात सही तरीके से कही जाये तो ही उसकी सार्थकता होती है, अन्यथा या तो दोनों व्यर्थ साबित होते हैं या फिर अनर्थ कर देते हैं। वर्तमान राजनीतिक हालात, गुजर चुके विधानसभा चुनावों के परिदृश्य और नेताओं के व्यवहार, घपलों-घोटालों, नोटा,पत्रकारिता और जनता के मन में कसमसाते आक्रोश शायद ही ऐसा कुछ विषय बचा हो जिस पर अनुराग ने निशाना न साधा हो अपने तरकश से। छंद और बंदों में अभिव्यक्ति आसान नहीं होती वह भी समसामयिक मुद्दों और व्यवस्थाओं पर, लेकिन तरकश में यह करने का प्रयास किया गया है। सीधी-सपाट भाषा में रोचक प्रस्तुति तरकश की खासियत और खूबी दोनों है।
मध्यप्रदेश के विधानसभा के चुनावी माहौल से पहले घटित हुआ सीडी कांड से घोटालों तक और महिलाओं पर हुये अपराधों से लेकर बिजली-सड़क। किसी भी मामले में राजनीति, राजनेताओं, सरकार और खुद मीडिया को भी बख्शा नहीं गया है। कहीं-कहीं अतिरेक में एक दल विशेष की ओर लेखक का झुकाव प्रतीत होता है, जो कि उसे आंशिक तौर पर निष्पक्ष नहीं दिखा पाता।
पहली ही कविता से मध्यप्रदेश के परिदृश्य पर चुटकियां लेते हुये उसे आमजन की भाषा में प्रस्तुत करने में अनुराग सफल रहे हैं।
सीडी का संाड देखो
कालिख का चांद देखो
राजनीत के भांड देखो
एमपी के कांड देखो
दिग्विजय के वार देखो
अर्जुनपुत्र की हार देखो
शिवराज की धार देखो
चौधरी हुये पार देखो।
तरकश में एक बात जो खटकती है वह है उसकी “तात्कालिकता”। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों के परिदृश्य का आंखों देखा चित्रण भली-भांति इसमें है और यह चित्रण पाठक को पढ़ते-पढ़ते यथार्थ के धरातल पर ले जाता है। यानी मध्यप्रदेश विधानसभा सभा चुनावों के दौरान जो घटित हुआ उसका पूरा परिदृश्य तरकश के कैनवास पर नजर आता है। इस लिहाज से देखा जाये तो कहीं-कहीं सर्वकालिकता की कमी के बावजूद तरकश की कवितायें उस आम आदमी के दुख दर्द की अभिव्यक्ति करती प्रतीत होती हैं, जिसे सिर्फ चुनावों के समय ही याद किया जाता है। उसके सामने वायदों की थाली परोसी जाती है, लेकिन यथार्थ के धरातल पर वह थाली खाली ही रह जाती है। अर्थात तात्कालिक सी लगने के बावजूद तरकश सर्वकालिकता का न सिर्फ आभास कराती है, बल्कि सर्वकालिक मौजूदगी भी दर्ज कराती है। कुलमिलाकर तात्कालिक होने के बावजूद तरकश के सार्वकालिक होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसी कविताओं में 55 नंबर पर पैंतालीसवीं कविता
चुनाव से जनता को फना देखो
उसके हाथ फिर झुनझुना देखो।
सियासत बन गई तिजारत
आम आदमी अनमना देखो।
इसी प्रकार 21 नंबर पेज पर ग्यारहवीं कविता-
भरे पड़े गोदाम तुम्हारे
आंत में अन्न के लाले देखो
वोट हमारे और सूरज तुम
हमारी आंख के जाले देखो
सड़कों सी अब टूटी निंदिया
कितने सपने पाले देखो
जनता को आस झोंपड़ी की
नेताजी के कई माले देखो।
अनुराग स्वयं पत्रकार हैं और तरकश में उन्होंने मीडिया को भी नहीं बख्शा है। पत्रकारों के गिरते स्तर पर चोट करने में भी उन्होंने कोताही नहीं बरती है, जो मीडिया को आईना दिखाने जैसा ही है। पच्चीसवीं कविता 35 नंबर पेज पर
तरूण का तेज ‘पालÓ देखो
पत्रकारिता हुई बेहाल देखो
एमपी में घूम रहे हैं भेडिय़े
महिलायें खस्ताहाल देखो।
इसी प्रकार 53 नंबर पेज पर तैंतालीसवीं कविता है-
खबर देखो खबरदार देखो
सस्ते में बिके कई अखबार देखो
कौन बचाये डगमगाती कश्ती
कहां है ईमान की पतवार देखो।
उक्त मुद्दों के अलावा नोटा, जनता की नाराजगी, नेताओं की मक्कारी आदि पर तरकश में तीर छोड़े गये हैं, जो निशाने पर लगते हैं। फिर भी, कुछ कविताओं की शुरूआत राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों से शुरू होकर प्रादेशिक स्तर पर आ जाती है जो पाठक की लय को प्रभावित करती है।
जैसे 41 नंबर पेज की इकत्तीसवीं कविता
सचिन का कोई विकल्प देखो (राष्ट्रीय)
खेल का हुआ पूरा संकल्प देखो
बच्चों को देंगे मामा स्मार्ट फोन
बीजेपी का जनसंकल्प देखो(प्रादेशिक) इसी प्रकार 51 वें पेज पर इकतालीसवीं कविता
सोनिया बैठेंगी घर देखो
राहुल गांधी सा वर देखो
खूब दहाड़ें शिवराज बाबू
गरीबों का अब दर देखो। 32 वें पेज पर बाईसवीं कविता
सीता जैसी सोनिया गांधी
लव-कुश राहुल गांधी देखो और बारहवीं कविता 22 नंबर पेज पर
लूट लिया माहौल मोदी ने
आडवाणी का मझधार देखो
बोल के फंसे दिग्गी राजा
फर्जी बिल की मार देखो
वादागान करे महाराजा
कुर्सी पर टपके लार देखो।
सर्वकालिकता की थोड़ी सी कमी के बावजूद तरकश तात्कालिक होते हुये भी सर्वकालिक कविता संग्रह है। एक लाईन में कहें तो तरकश अपनी ‘तात्कालिकता-सर्वकालिकता के साथ पूर्णकालिक हैÓ। तरकश की हर कविता के बाद दूसरी कविता पढऩे की जिज्ञासा स्वयं जाग्रत होती है। तरकश के प्रकाशन के साथ इनसाईट मीडिया ग्रुप ने भी पुस्तक प्रकाशन में पहला कदम रखा है।
किताब:तरकश
लेखक:अनुराग उपाध्याय
प्रकाशक:इनसाइट प्रकाशन
मूल्य:300 रुपये
लेखक परिचय: जीवाजी विश्वविद्यालय अध्ययन के साथ 1989 में एक पेशेवर पत्रकार के रूप में अपना कैरियर ग्वालियर में स्वदेश समाचार पत्र से शुरू किया। अखबारी और टेलीविजन पत्रकारिता का लंबा अनुभव अनुराग को है। तरकश से पहले अनुराग की बतौर सहयोगी लेखक दो किताबों ‘समाचार पत्र प्रबंधन एवं ‘समाचार और समाचार पत्र का प्रकाशन हो चुका है। विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में उनके लेख और कविताओं का निरंतर प्रकाशन होता रहा है। अनुराग को पं.प्रताप नारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान, गणेश शंकर विद्यार्थी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार, मननत शिखर सम्मान, इनसाइट मीडिया अवार्ड और जनपरिषद के मैन ऑफ मीडिया जैसे कई सम्मान मिल चुके हैं। वर्तमान में अनुराग उपाध्याय इंडिया टीवी में वरिष्ठ विशेष संवाददाता के रूप में कार्यरत हैं।साभार-खबर नेशन
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