Saturday , 5 October 2024

Home » फीचर » आरटीआई की कठिन लड़ाई

आरटीआई की कठिन लड़ाई

0,,15634483_303,00आठ साल पहले अक्टूबर में लागू हुआ सूचना का अधिकार, आजाद भारत का पहला ऐसा कानून होगा जो इतनी कम उम्र में सबसे ज्यादा असरदार साबित हुआ है. आरटीआई को दूसरी आजादी भी कहा जाने लगा है. लेकिन क्या वाकई ऐसा है.

12 अक्टूबर 2005 को अस्तित्व में आए आरटीआई कानून में हर साल लाखों अर्जियां सरकारी विभागों के पास आती हैं. ये एक ऐसी हलचल और सघन गतिविधि है कि ऊपरी तौर पर इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि सरकार और संस्थान के कामकाज पर हर घड़ी हर घंटे इस तरह से भी नजर रखी जा सकती है. सूचना के अधिकार ने लोगों को न सिर्फ एक रास्ता मुहैया कराया है अपनी मुश्किल के हल का बल्कि सूचना हासिल कर सरकारों और प्रतिष्ठानों की कार्यप्रणाली में भी सकारात्मक सुधार कराने की कोशिशें की हैं.

केंद्रीय मंत्रियों के अपार विदेश दौरे हों या किसी मुख्यमंत्री के आवास में चायपानी पर हुआ अपार खर्च, गैस एजेंसी की मनमानी हो या बरसों से अटके पड़े बिजली के बिल, जजों की संपत्ति का ब्यौरा हो या उत्तर पुस्तिकाओं का मुआयना, इस बहाने किसी न किसी रूप में एक दबाव तो बनता ही है.

आरटीआई की अविश्वसनीय सक्रियता से राजनीतिक दलों में बौखलाहट है. राजनीतिक दलों को आरटीआई में रखने के केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले की रोशनी में केंद्र सरकार ने कानून में संशोधन का विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया है. आरटीआई में ये पहला संशोधन होगा और इस तरह एक जनप्रिय और जनहित वाले कानून पर ये पहला बड़ा आघात भी. जो यूपीए सरकार आरटीआई पास कराने को लेकर हरदम गदगद भाव में रहती आई है वही अब इसमें संशोधन भी ला रही है जिसे एक तरह से कानून की मूल भावना को ठेस पहुंचाने वाली कार्रवाई माना जा रहा है.

fromdw.de

सरकारों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि सूचना का अधिकार उन्हें इतना झिंझोड़ेगा कि वे कोई आड़ नहीं ले पाएंगे. अब ये आड़ बनाई जा रही है और सूचना पाना मुश्किल भी होता जा रहा है. इसके कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिनका इस्तेमाल कर अधिकारी सूचना की अर्जी को यहां से वहां टहलाते हैं या तकनीकी आधार पर खारिज कर देते हैं या घुमावदार जवाब भेज देते हैं. जानकारों की राय में धारा 4(1) ब हो या धारा 6(8) हो या 7(9) या 8(1)- इन धाराओं की व्याख्या संबंधित अधिकारी और विभाग अपनी सुविधा से कर रहे हैं.

शुरुआती कठिनाई तो आरटीआई फाइल करने से ही जुड़ी है. आमतौर पर सूचना अर्जी इसलिए भी खारिज कर दी जाती हैं कि वहां जानकारी से ज्यादा फोकस सवाल पूछने पर होता है. ये आरटीआई से जुड़े समुदायों और सूचना आयोगों का दायित्व है कि लोगों को इस बारे में प्रशिक्षित करें कि सूचना कैसे हासिल की जाए, कि प्रश्न न पूछे जाएं, जानकारी मांगी जाए. और शब्द सीमा का ख्याल रखा जाए. फिर भेजने के तरीकों पर भी विचार किए जाने की जरूरत है.

कानून ने आम लोगों की राह कुछ आसान बनाई और उनमें कुछ हिम्मत जगी तो एक समुदाय इस कानून के आसपास प्रकट हुआ. आरटीआई कार्यकर्ताओं की एक अघोषित और बिखरी हुई फौज है जो अपने अपने स्तर पर लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही के उसूल को पुख्ता बनाने की लड़ाई लड़ रही है. जाहिर है इसके खतरे भी हैं. ये खतरे जानलेवा भी हैं. 2009 से हम पाते हैं कि आरटीआई एक्टिविस्टों पर जानलेवा हमले बढ़े हैं. साहसी और होनहार युवा एक्टिविस्टों को जान गंवानी पड़ी है. महाराष्ट्र के सतीश शेट्टी से लेकर गुजरात के अमित सेठवा तक हमारे पास माफिया और सत्ता राजनीति के गठजोड़ से टकराने वालों की सूची बढ़ती जा रही है जिन्हें रास्ते से हटाकर सिस्टम सोचता है कि बला टली. लेकिन सूचना का अधिकार बला नहीं एक बल है जो फिर इकट्ठा हो जाता है.

आरटीआई की सबसे बड़ी चिंता ये है कि कानून में उन लोगों की सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है जिन्हें व्हिसलब्लोअर्स कहा जाता है, वे जो गलत के खिलाफ बोलते हैं, आवाज उठाते हैं. उन एक्टिविस्टों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सूचना आयोग और उसके अधीन समस्त राज्यों के सूचना आयोगों की मशीनरी के पास कोई ठोस प्रबंध या औजार नहीं हैं. आखिरकार अपनी लड़ाई में एक बार फिर वे अकेले रह जाते हैं, जैसा कि इस देश में अधिकारों के लिए हर लड़ाई बना दी गई है. हम जानते हैं कि सरकार के कामकाज को पारदर्शी, लोकतांत्रिक और मुस्तैद बनाने की लड़ाई अकेले आरटीआई से नहीं लड़ी जा सकती. लेकिन ये एक बड़ा औजार तो बन ही गया है.

नवप्रौद्योगिकी और न्यू मीडिया के इस दौर को, जिसे सूचना युग कहा जाता है, उसमें एक वास्तविक सूचना ने अपने लिए जगह बनाई है ये क्या कम बड़ी बात है. वरना “इन्फॉर्मेशन” तो एक ऐसा शब्द हो चला है जिसका लोगों की जिंदगी, संघर्ष और तकलीफ से मानो कोई नाता ही न हो. सूचना सिर्फ बाजार का प्रतीक नहीं, एक पारदर्शी सच्चाई भी है. यह एक बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्य है. लिहाजा इसकी हिफाजत का जिम्मा भी आम लोगों और पढ़ीलिखी बिरादरी पर है. वरना तो इसे कानून बनाकर अपनी पीठ थपथपा लेने वाली सत्ताएं, इसे धीरे धीरे खुरचकर जनअधिकारों को पहले तो फेहरिस्त से और फिर स्मृति से निकाल देंगी.

आरटीआई की कठिन लड़ाई Reviewed by on . आठ साल पहले अक्टूबर में लागू हुआ सूचना का अधिकार, आजाद भारत का पहला ऐसा कानून होगा जो इतनी कम उम्र में सबसे ज्यादा असरदार साबित हुआ है. आरटीआई को दूसरी आजादी भी आठ साल पहले अक्टूबर में लागू हुआ सूचना का अधिकार, आजाद भारत का पहला ऐसा कानून होगा जो इतनी कम उम्र में सबसे ज्यादा असरदार साबित हुआ है. आरटीआई को दूसरी आजादी भी Rating:
scroll to top