भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में कुछ अप्रत्याशित होने की संभावनाओं के बीच पिछला हफ्ता काफी हद तक चौंकाने वाला रहा. कुटिल राजनीति से पंगु हो चुकी व्यवस्था से निराश जनता को न्यायपालिका और सियासी जमात ने उम्मीद का एहसास कराया.
भारत में प्रबुद्ध मतदाता लगभग यह मान चुका है कि भ्रष्टाचार के दलदल में समा रही मौजूदा व्यवस्था में नियम कायदों के रास्ते चलकर जीना मुमकिन नहीं रहा. नाउम्मीद होते लोगों को कोर्ट से किसी न किसी रुप में उम्मीद की किरण दिखती रहती है.
लेकिन जिस सियासी जमात ने लोगों को बिल्कुल निराश किया है, इस बार उसी ने गलत को गलत कह कर डूबते को तिनके जैसा सहारा दिया है. यह बात दीगर है कि कांग्रेस के युवराज ने जो कुछ भी किया, बेशक वह एक विशुद्ध राजनीतिक दांव है लेकिन उनके इस स्टंट से साफ सुथरी राजनीति की वकालत करने वाले तमाम मोगेम्बो जरुर खुश हुए होंगे.
नेताओं को कोर्ट का एक और झटका
शुक्रवार की सुबह सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू रिजेक्ट लागू करने का फैसला सुनाकर सरकार, सियासतदानों और जनता, हर किसी को चौंका दिया. चुनाव सुधार के लिए अपरिहार्य माने गए इस अधिकार के लिए 35 सालों से संघर्ष जारी था. नाउम्मीद हो चुकी जनता के लिए ऐसा फैसला आना अप्रत्याशित था जबकि सियासी जमात और सरकार के लिए यह करारे झटके से कम नहीं था. अदालत ने मतदाताओं को चुनाव में सभी उम्मीदवारों को खारिज करने (राइट टू रिजेक्ट) का अधिकार देकर चुनाव सुधार की दिशा में नया द्वार खोल दिया.
कम ही लोगों को पता होगा कि इंदिरा युगीन संसदीय अधिनायकवाद को रोकने के लिए समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण का आंदोलन राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल की मांग के साथ ही शुरु हुआ था. यह भी एक अनजान तथ्य है कि सुप्रीम कोर्ट से इस मांग को पूरा कराने के लिए जिस सामाजिक संगठन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) ने 2004 में अदालत का रुख किया उसके संस्थापक जेपी स्वयं थे. सही मायने में यह फैसला जेपी की रुह को राहत देने वाला कहा जा सकता है, क्योंकि उनकी संपूर्ण क्रांति से उपजी नेताओं की पौध ही आज राजनीतिक व्यवस्था के लिए विषैले वटवृक्ष का रुप धारण कर चुकी है. आंकड़ों की बानगी देखें कि कुल 4807 सांसद विधायकों में से 1460 दागी हैं. लालू को दोषी ठहराने के बाद अदालत का संदेश साफ है कि अब नहीं सुधरे तो वह दिन दूर नहीं जब दाउद और सलेम भी संसद में होंगे.
राहुल का मास्टर स्ट्रोक
दोपहर होते होते दूसरा चौंकाने वाला काम सत्तारूढ़ कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कर दिया. राग दरबारी वाले अंदाज में चलती भारतीय राजनीति से बिल्कुल उलट अंदाज में पॉलिटिकल स्टंट वाले अंदाज में राहुल दागी नेताओं को बचाने के लिए लाए गए सरकार के अध्यादेश के खिलाफ बागी हो गए. न सिर्फ कांग्रेस बल्कि सभी साथी और विरोधी दलों के साथ पूरा देश राहुल के इस मास्टर स्ट्रोक से सन्न रह गया. इस पर शुरु हुई देशव्यापी बहस के बीच मौजूं सवाल इस सियासी दांव के असर का नहीं बल्कि मंशा का है.
यह सही है कि जिस तरह से पिछले पांच सालों में सरकार ने कानून को ताक पर रखकर तमाम गलत फैसले किए हैं उनके लिए कांग्रेस अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती. यह भी जगजाहिर है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कांग्रेस के महज मोहरा हैं. फैसले तो दस जनपथ से होते हैं. फिर चाहे लोकपाल का मुद्दा हो या जेल से चुनाव लड़ने की छूट देने और दागी नेताओं को बचाने का मामला हो, हर मसले पर सरकार के फैसले जनता की अपेक्षाओं से विपरीत रहे. कुल मिलाकर पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव से पहले राहुल ने सरकार के काले कारनामों की कालिख अपने दामन पर लगने से खुद को बड़ी ही चतुराई से बचाने की कोशिश की है. बाकायदा सोची समझी रणनीति के तहत किए गए राहुल के इस स्टंट के पीछे तत्काल पूरी पार्टी खड़ी हो गई. फिलहाल पार्टी अब इस कवायद में जुट गई है कि सरकार एवं उसके मुखिया का डैमेज कंट्रोल कैसे हो.
अपने ही जाल में फंसी सरकार
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है जब देश को विशुद्ध गैरराजनीतिक लोग चला रहे हैं. सरकार के मुखिया का राजनीतिक अनुभव और हैसियत जगजाहिर है. राज्यसभा के जरिए पिछले दरवाजे से संसद आते रहे कपिल सिब्बल जैसे मंत्री सरकार के लिए कोढ़ में खाज का काम रहे हैं. भूलना नहीं चाहिए कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निपटने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री ने सिब्बल को ही सौंपी थी. उस समय सरकार की दुनिया भर में किरकिरी कराकर उन्होंने साबित कर दिया था कि काम धंधे में कामयाब व्यक्ति काबिल मंत्री तो हो सकता है लेकिन जरुरी नहीं कि वह काबिल नेता भी हो.
इस बार भी दागी नेताओं को बचाने वाले अध्यादेश के सूत्रधार सिब्बल ही रहे. लोकसभा सांसद मिंलिंद देवड़ा और चुनावी राजनीति की माहिर शीला दीक्षित जैसे पार्टी के तमाम नेता इसका शुरु से ही विरोध कर रहे थे. लेकिन दस जुलाई के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए संसद में पेश किए गए विधेयक पर वकील से नेता बने सिब्बल और अरुण जेटली ने जिस तरह से न्यायपालिका को ही निशाने पर लिया, उसने सरकार को संसद में कामयाबी न मिलने पर अध्यादेश लाने की हद तक जाने के लिये तैयार करा दिया था.
लोकसभा में इस बिल के पारित होने और राज्यसभा में जेटली के समर्थन से उपजे अतिउत्साह ने सिब्बल की हेकड़ी सातवें आसमान पर पहुंचा दी. राज्यसभा में विधेयक पारित न हो पाने पर सिब्बल का वकील दिमाग सरकार को पुनर्विचार याचिका के साथ सुप्रीम कोर्ट ले गया. कोर्ट से एक बार फिर मुंह की खाकर बौखलाए सिब्बल ने अध्यादेश का रुख कर लिया. लेकिन सिब्बल को कानूनी दांवपेंच का सियासी उठापटक से बिल्कुल जुदा होने का अहसास तब हुआ जब अध्यादेश लाने पर राष्ट्रपति द्वारा उंगली उठाते ही पार्टी के अपने भी साथ छोड़ गए. इस बीच 25 सितंबर, शुक्रवार को राइट टू रिजेक्ट पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अचानक हरकत में आई टीम राहुल ने आनन फानन में पॉलिटकल स्टंट का फैसला कर सरकार को इस सन्देश के साथ दरकिनार कर दिया कि जनता का सामना चुनाव लड़ने वाले नेताओं को करना है पीएम या सिब्बल को नहीं.
पूरे घटनाक्रम से जाहिर है कि कांग्रेस ने चुनावी जंग पर आधारित इस फिल्म की पटकथा जुलाई में ही लिख दी थी. फिल्म का पहला सीन स्पष्ट सन्देश देता है कि चुनाव कांग्रेस को लड़ना है, सरकार को नहीं. समझ में यह भी आने लगा है कि जनता में साफ सुथरी राजनीति का संदेश देती इस फिल्म के हीरो राहुल ही होंगे. शुक्रवार को रिलीज हुई कांग्रेस की यह फिल्म चुनावी बॉक्स ऑफिस पर कितना धमाल करेगी यह तो भविष्य ही बताएगा लेकिन सियासी फिल्मकारों को सनद रहे कि जनता भी हीरो में छुपे विलेन को देखने और परखने की अभ्यस्त हो चुकी है.
ब्लॉगः निर्मल यादव from dw.de