स्थानीय निवासियों को उम्मीद थी कि कारखाना बन जाएगा तो रोजगार मिलेगा, और रोजी-रोटी के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा। लेकिन यह उम्मीद अब नाउम्मीदी में बदल गई है।
कारखाने के लिए किसानों की भूमि का अधिग्रहण हुआ था, जो आज बेकार पड़ी है। जिनकी जमीन ली गई है, वे दुखी हैं।
कारखाने के लिए जमीन दे चुके किसान केसरी बताते हैं कि उनकी जमीन भी इस फैक्ट्री के लिए ली गई थी और उस समय बहुत कम मुआवजा उन्हें मिला था, जो आज के जमाने में कुछ भी नहीं है। वह आगे कहते हैं, “अगर आज जमीन हमारे पास होती तो हम उस पर खेती करते और खुशहाल जीवन जीते। अगर फैक्ट्री भी बन गई होती तो हम सबको रोजगार मिलता और हम सब खुशहाल जीवन जीते। लेकिन हम दोनों तरफ से मारे गए।”
यहां दुकान चलाने वाले संतलाल कहते हैं, “लोगों को मुआवजा आधा-तिहाई मिला। जो मिला उसे भी लोगों ने खत्म कर दिया और आज खाली हाथ घूम रहे हैं। अगर यह फैक्ट्री खुलती तो पढ़े-लिखे लोग नौकरी कर लेते और कम पढ़े अपना व्यवसाय चला लेते।”
स्थानीय निवासियों का कहना है कि कुछ लोगों को तो मुआवजा मिला ही नहीं। जमीन तो चली गई। एक किसान की तो 100 बीघे जमीन इस फैक्ट्री में चली गई। आज वह किसान कंगाल हो गया है।
बहरहाल, जो फैक्ट्री यहां के निवासियों के लिए आय के संसाधन पैदा करने वाली थी, और उससे यहां से लोगों का पलायन रुकता, वही आज उनके लिए सफेद हाथी बन चुकी है। फैक्ट्री के सामान भी चोरी हो गए हैं।
स्थानीय निवासी बाबूलाल कहते हैं, “इस फैक्ट्री का सारा सामान चोरी हो गया। सभी लोग कहते हैं कि अब यह बनने वाली नहीं है।”
फैक्ट्री की हकीकत यह है कि उच्च न्यायालय के आदेश के बाद इसमें ताले लग गए हैं। ये ताले 2002 से लगे हुए हैं और यहां कुछ ही कमरे खुले हुए हैं, बाकी के सभी कमरों में ताले लटक रहे हैं।
फैक्ट्री की रखवाली में तैनात पुलिस के एक सिपाही महमूद बताते हैं, “यह फैक्ट्री बन ही रही थी। इसमें कर्मचारियों के रहने के लिए कमरे और मशीनों को उनकी जगह पर लगाया जा रहा था। पर इसमें एक भी दिन कांच बनाने का काम नहीं हुआ।”
मसूद आगे कहते हैं, “मशीनें भी आ चुकी थीं, पर बाद में बाहर चली गईं। ढेर सारे सामान चोरी चले गए। यहां दो स्थानीय चौकीदार रहते थे, उन्हीं ने सामान चुरा लिया। उसके बाद यहां पुलिस की तैनाती हुई, तब जाकर चोरी रुकी है।”