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 रसगुल्ला न रसमलाई, गणेश जी को मोदक ही भाए क्यों? | dharmpath.com

Tuesday , 26 November 2024

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रसगुल्ला न रसमलाई, गणेश जी को मोदक ही भाए क्यों?

ganeshभगवान गणेश की मूर्तियों एवं चित्रों में उनके साथ उनका वाहन और उनका प्रिय भोजन मोदक जरूर होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए सबसे आसान तरीका है मोदक का भोग।

गणेश भगवान को रसगुल्ला, मालपुआ, रसमलाई भले ही आप खिलाएं लेकिन अगर आपने मोदक का भोग नहीं लगया तो समझ लीजिए गणेश जी को आपका छप्पन भोग भी पसंद नहीं आएगा। इसका कारण यह है कि गणेश जी को सबसे प्रिय मोदक है। गणेश जी का मोदक प्रिय होना भी उनकी बुद्धिमानी का परिचय है।

गणेश जी का एक दांत परशुराम जी से युद्ध में टूट गया था। इससे अन्य चीजों को खाने में गणेश जी को तकलीफ होती है, क्योंकि उन्हें चबाना पड़ता है। मोदक काफी मुलायम होता है जिससे इसे चबाना नहीं पड़ता है। यह मुंह में जाते ही घुल जाता है और इसका मीठा स्वाद मन को आनंदित कर देता है।

भगवान गणेश को मोदक इसलिए भी पसंद हो सकता है कि मोदक प्रसन्नता प्रदान करने वाला मिष्टान है। मोदक के शब्दों पर गौर करें तो ‘मोद’ का अर्थ होता है हर्ष यानी खुशी। भगवान गणेश को शास्त्रों में मंगलकारी एवं सदैव प्रसन्न रहने वाला देवता कहा गया है। वह कभी किसी चिंता में नहीं पड़ते।

इसका कारण संभवतः मोदक है क्योंकि यह गणेश जी को हमेशा प्रसन्न रखता है। मोदक के इसी गुण के कारण गणेश जी सभी मिष्टानों में मोदक को अधिक पसंद करते हैं।

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में गणेश जी को मोदक प्रिय होने की जो कथा मिलती है उसके अनुसार मोदक का निर्माण अमृत से हुआ है। देवताओं ने एक दिव्य मोदक माता पार्वती को दिया। गणेश जी ने मोदक के गुणों का वर्णन माता पार्वती से सुना तो मोदक खाने की इच्छा बढ़ गयी।

अपनी चतुराई से गणेश जी ने माता से मोदक प्राप्त कर लिया। गणेश जी को मोदक इतना पसंद आया कि उस दिन से गणेश मोदक प्रिय बन गये। गणपत्यथर्वशीर्ष में लिखा है, “यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वांछितफलमवाप्नोति।” इसका अर्थ है जो व्यक्ति गणेश जी को मोदक अर्पित करके प्रसन्न करता है उसे गणपति मनोवांछित फल प्रदान करते हैं।

यजुर्वेद के अनुसार गणेश जी परब्रह्म स्वरूप हैं। लड्डू को गौर से देखेंगे तो उसका आकार ब्रह्माण्ड के समान है। गणेश जी के हाथों में लड्डू का होना यह भी दर्शाता है कि गणेश जी ने ब्रह्माण्ड को धारण कर रखा है। सृष्टि के समय गणेश जी ब्रह्मण्ड को प्रलय रूपी मुख में रखा लेते हैं और सृष्टि के आरंभ में इसकी रचना करते हैं।

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