जीवन एक यात्रा है। यात्रा है-मृत्यु से अमृत की ओर; अंधकार से प्रकाश की ओर; व्यर्थ से सार्थक की ओर। एक शब्द में पदार्थ से परमात्मा की ओर। इस यात्रा में वे सारे लोग जो बाहर तलाश रहे हैं, भटके हुए हैं।
लाख तलाशें, कुछ पाएंगे नहीं-न काशी में, न काबा में; न कुरान में, न गीता में। यहां तो केवल वे ही पाने में समर्थ हो पाते हैं जो स्वंय के भीतर छिपे हुए सत्य को पहचानते हैं।
यह यात्रा अनूठी है। यह यात्रा कहीं जाने की नहीं, कहीं से लौट आने की है। जा तो हम बहुत दूर चुके हैं- अपने से दूर। अपने सपनों में, वासनाओं में, विचारों में। छोड़ देना है सारे स्वप्न, छोड़ देने हैं सारे विचार, सारी वासनाएं, ताकि अपने पर आना हो जाए। संसार नहीं छोड़ना है, स्वप्न छोड़ने हैं; क्योंकि स्वप्न ही संसार है।
तुमने बार-बार सुना होगा पंडितों को, पुरोहितों को कहते हुए, कि संसार स्वप्न है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं: स्वप्न संसार है। तुम्हारे भीतर जो स्वप्नों का जाल है वही संसार है। उसे छोड़ देना है।
ये बाहर बोलते हुए पक्षी तो फिर भी बोलेंगे- ऐसे ही बोलेंगे, और भी मधुरतर बोलेंगे। इनके कंठों में और भी संगीत आ जाएगा, क्योंकि तुम्हारे पास सुनने बाले कान होंगे।
और जिसके पास सुनने वाले कान हैं उससे पत्थर भी बोलने लगते हैं। ये वृक्ष तो ऐसे ही हरे होंगे, और हरे हो जाएंगे। क्योंकि जिसके पास देखने वाली आंख है उसके लिए रंगो में रंग, गहराइयों में गहराइयां, रूप में अरूप दिखाई पड़ने लगता है।
यह संसार जो तुम्हारे बाहर फैला हुआ है, यह तो और मधुर, और प्रीतिकर होकर प्रकट होगा। काश, तुम जाग जाओ! तुम सोए हो तो भी यह मधुर है और प्रीतिकर है। तुम जाग जाओ तब तो अकूत खजाना है यह। साम्राज्य है परमात्मा का। इस संसार को छोड़ने को मैं नहीं कहता हूं।
लेकिन स्वप्न का संसार छोड़ना जरूरी है। वे जो तुम्हारे भीतर स्वप्न चलते रहते हैं- यह पा लूं, वह पा लूं; यह हो जाऊं, वह हो जाऊं; ऐसा होता तो क्या होता, ऐसा होता तो क्या होता! वह जो अतीत तुम्हें जगड़े हुए है, भविष्य तुम्हें पकड़े हुए है; उन दोनों चक्की के पाटों से तुम बाहर जा जाओ।
यही संन्यास है। स्वप्न का त्याग संयास है। जागरण संयास है। क्योंकि स्वप्न बिना जागे नहीं त्यागे जा सकते। संसार तो बिना जागे छोड़ा जा सकता है।