गुजरात के मुख्यमन्त्री और आगामी संसदीय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी का नाम विदेशी नेताओं के बीच अभी भी विवादास्पद बना हुआ है। और इसका कारण है — गुजरात में वर्ष 2002 में मुसलमानों के विरुद्ध किया गया नरसंहार।
उस नरसंहार के दौरान कम से कम एक हज़ार व्यक्ति मारे गए थे। लेकिन आज कोई भी पक्की तौर पर यह नहीं कह सकता है कि उस नरसंहार में नरेन्द्र मोदी का कितना हाथ था। भारत के जाँच विभाग ने तीन बार उन घटनाओं की विस्तार से जाँच की और तीनों बार उस ग्यारह साल पुरानी घटना में नरेन्द्र मोदी के दोषी होने का कोई कारण सामने नहीं आया।
लेकिन नरसंहार में नरेन्द्र मोदी का हाथ होने का आरोप अभी भी उनका पीछा कर रहा है। यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में भी, जिसने मोदी को अगले संसदीय चुनाव का नेतृत्त्व सौंपा है, अभी तक इस सवाल पर एकमतता नहीं हो पाई है कि यदि सन 2014 के आगामी संसदीय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी जीत जाती है तो उन्हें प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार बनाया जाए या नहीं।
जब अभी भारत में भी भावी प्रधानमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी का चुनाव नहीं हुआ है, पर दुनिया में बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी को भारत में प्रधानमन्त्री पद का सम्भावित उम्मीदवार मानने लगे हैं। सबसे पहले ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों ने यह बात महसूस की। इसीलिए भारत में ब्रिटेन के राजदूत ने पश्चिम के उच्चस्तरीय आधिकारिक प्रतिनिधियों में से सबसे पहले गुजरात के मुख्यमन्त्री से पिछले साल अक्तूबर में मुलाक़ात की थी। इस तरह उन्होंने पिछले दस सालों से किए जा रहे उनके बायकाट को विराम दे दिया था।
हाल ही में नरेन्द्र मोदी को नए स्तर पर मान्यता मिली, जब ब्रिटेन की संसद के कुछ सदस्यों ने उन्हें ब्रिटिश संसद वेस्टमिनिस्टर में भाषण देने के लिए आमन्त्रित किया। ब्रिटेन के राजनीतिक हलको में इस निमन्त्रण पर मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई। ब्रिटेन के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस निमन्त्रण का विरोध किया, लेकिन ब्रिटेन के व्यावसायिकों ने इसका दिल खोलकर स्वागत किया। यह मुलाक़ात भी भारत के भावी प्रधानमन्त्री के तौर पर नहीं, बल्कि गुजरात के मुख्यमन्त्री के तौर पर होगी क्योंकि गुजरात के व्यापारियों और ब्रिटेन के बीच इतने गहरे रिश्ते हैं, जितने गहरे रिश्ते ब्रिटेन के बाकी भारत के व्यावसायिकों के साथ नहीं है।
लेकिन फिर भी परिस्थिति नाज़ुक बनी हुई है। ख़ासकर अमरीका में परिस्थिति की इस नाज़ुकता को ज़्यादा गहराई से महसूस किया जा रहा है। इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में वाशिंगटन ने भारत के साथ अपने रणनीतिक रिश्ते बनाने में ही अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी। लेकिन इसके बावजूद सन् 2005 से अमरीका ने नरेन्द्र मोदी को कभी भी अमरीका का वीजा नहीं दिया। तब कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि मोदी कभी भारत के प्रधानमन्त्री बन सकते हैं।
हाल ही में अमरीका के विश्व धार्मिक स्वतन्त्रता आयोग की उपाध्यक्ष डॉ० कतरीना लान्टोस स्वेट ने एक बार फिर अमरीका के राष्ट्रपति, विदेशमन्त्री और अमरीकी संसद से यह अनुरोध किया है कि मोदी पर अमरीका में प्रवेश पर लगे प्रतिबन्ध को आगे जारी रखा जाए।
अब सवाल यह उठता है कि यदि नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमन्त्री बन जाते हैं तो अमरीका की राजनीति में किस चीज़ को अधिक महत्त्व दिया जाएगा– भारत के साथ रणनीतिक सहयोग को बनाए रखकर सम्बन्धों को सुरक्षित रखने को या अमरीकी सरकार द्वारा घोषित मानवाधिकारों के पालन को? सवाल यह भी पैदा होता है कि यदि अमरीकी राजनीतिज्ञ अधिक यथार्थवादी और व्यावहारिक रवैया अपना भी लेते हैं तो क्या ख़ुद नरेन्द्र मोदी अपनी उस नाराज़गी को भुला पाएँगे जो उनके मन में अमरीका के लिए पैदा हो चुकी है?