जयंती पर विशेष
विवेकानंद भारत के पहले घोषित समाजवादी थे. उन्होंने कहा था कि भारतीयों को दो सौ साल के लिये सभी देवी—देवताओं को भूल जाना चाहिए और सारा ध्यान भौतिक प्रगति में लगा देना चाहिए. एक अन्तरंग चर्चा में उन्होंने पूरे भारत में मांसाहार को जोर से फैलाने की बात की थी. उनका तर्क था कि यह देश इतना भूखा और कुपोषित है कि यहाँ के युवकों में कोई बल ही नहीं है…
आज विवेकानंद जयंती है. आइये आज उन्हें नमन करें. बहुत कम लोग इस बात को समझना चाहते हैं कि जिस विवेकानंद को हम पूजते हैं वो कौन से विवेकानंद हैं. क्या वे पश्चिम से लौटने के पूर्व वाले विवेकानंद हैं या पश्चिम से लौटने के बाद वाले विवेकानंद हैं? यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है कि इसके उत्तर पर पूरे भारतीय धर्म दर्शन और रहस्यवाद की आज के लिए प्रासंगिकता के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है.
राम मोहन रॉय, विवेकानंद और अरबिंदो – ये तीन औपनिवेशिक बंगाल केबहुत प्रखर समाज उन्नायक रहे हैं. इनके सृजन और लेखन की प्रेरणा निश्चित ही एक पश्चिमी शिक्षा में ढली थी. धर्मों के पुराने ढर्रे बहुत से ऊपर उठकर इन लोगों लोकतंत्र, मानव अधिकार, समता और मनुष्य की सेवा का मूल्य सीखा और फिर उसका प्रचार किया.
खुद विवेकानंद बहुत अर्थों में क्रांतिकारी रहे हैं. पश्चिम से लौटते समय अपने साथ भगिनी निवेदिता को ले आये थे ताकि यूरोपीय मिशनरी ढंग से समाज उत्थान का और विशेष रूप से महिला सशक्तीकरण काम किया जा सके. सन्यासी को अपरिग्रही कहा गया है वो कुछ लता ले जाता नहीं. और विवेकानंद एक स्त्री को अपने साथ ले आये – इस बात को लेकर उनका बहुत विरोध हुआ था. ये उनकी क्रान्तिदृष्टि का एक नमूना है. पश्चिमी समाज निर्माण और संगठन के लिए उनके मन में बहुत सम्मान था. खासकर यूरोप और अमेरिका में स्त्रियों को दी गयी आजादी की वे हमेशा तारीफ़ करते थे. इसीलिये अपने आन्दोलन का नाम उन्होंने “रामकृष्ण मिशन” रखा. कोई नारी उद्धारक मंडल या दरिद्र सेवा मंडल या कल्याण समाज इत्यादि जैसा परम्परागत नाम नहीं रखा. उन्हें सेवा की भारतीय पद्धति से नफरत थी.
भारत में सेवा जैन दर्शन के “वैयावृत्य” से समझी जाती रही है. इसमें अपने से श्रेष्ठ की सेवा करनी होती है ताकि आपका प्रारब्ध कट सके और आप मोक्ष जा सकें.विवेकानंद, राममोहन रॉय, और अरबिंदो – इन तीनों ने इस “वैयावृत्य परक” सेवा को पहले ही झटके में निकाल बाहर किया और यूरोपीय सेवा को अपनाकर गरीबों और वंचितों को केंद्र में रखकर अपने काम आगे बढ़ाये. और इसी का फल है कि आज उन्होंने समाज को इतना कुछ दिया है और वे हमारी स्मृतियों में एक पवित्र पुरुष की तरह स्थान पाते हैं. इन लोगों की बात करते हुए भारतीय अक्सर ये खूब दोहराते हैं कि इन लोगों ने पश्चिम को क्या दिया. लेकिन दबी जुबान में भी ये बात नहीं होती कि ये पश्चिम से क्या लेकर आये थे और किस बात ने इन्हें इस योग्य बनाया कि वे भारतीय समाज की हजारों साल पुरानी धुंध छांट सकें.
वैसे एक अन्य दृष्टि से देखें तो विवेकानंद भी इस देश में चलते आ रहे एक बड़े पाखण्ड के शिकार बन चुके हैं. उनकी मौलिक और क्रांतिकारी स्थापनाएं जो कि असल में सनातनी कर्मकांड और धर्मभीरुता के एकदम खिलाफ थी, उन्हें आज मटियामेट करके धर्मभीरुता और पाखण्ड की सेवा में झोंक दिया गया है. यह कोई नया काम नहीं है इस देश में महापुरुषों के साथ यह षड्यंत्र हमेशा से ही होता आया है. उनकी मौलिक क्रान्ति दृष्टि और उनके समकालीन विरोधियों के आरोपों को एकसाथ अगर देखा जाए तो पता चलता है कि विवेकानंद क्या हैं. लेकिन विवेकानंद ही नहीं बल्कि अनेक भारतीय महापुरुषों के समकालीन विरोधियों के वक्तव्यों को एकदम मिटा दिया गया है. यह सनातनियों द्वारा अपने सनातन दार्शनिक चौर्यकर्म को छुपाने की तकनीक रही है.
उदाहरण के लिए कृष्ण का अपने समय में बहुत विरोध हुआ था. इतना ज्यादा कि उन्हें मथुरा छोड़कर द्वारिका भागना पडा. अब अगर पता चल सके की किन बातों के आधार पर उनका विरोध हुआ था तो हम कृष्ण और कृष्ण विरोधियों में अंतर समझ सकें. लेकिन पाखण्ड ये है कि जिन लोगों ने विरोध किया है उन्ही लोगों ने फिर कृष्ण को हथिया लिया है और उन्हें अपना भगवान् बना डाला है. कृष्ण के मंदिरों में वे ही आज तक चरणामृत बाँट रहे हैं.
आधुनिक भारत में विवेकानंद का भी यही हाल किया है. उन्हें बहुत तरह से परेशांन किया गया है. लेकिन जो लोग परेशान करते हैं बाद में वही लोग उनके मंदिर बनाकर भी बैठते रहे हैं. इसीलिये कृष्ण सहित विवेकानंद का विरोध करने वालों के वक्तव्य वे मठाधीश मिटाते आये हैं.ये बहुत गहरी और जरुरी बात है. बहुत गहराई से अगर इस बात को समझा जाए और उघाड़ दिया जाये तो इस देश के पतन की पूरी प्रक्रिया समझ में आ जायेगी. ये महापुरुषों की स्तुतियाँ और देशभक्ति के गीत गाने से कुछ नहीं होने वाला.इस देश के शोषक हमसे यही तो चाहते हैं की हम भक्ति और स्तुति के गीत गाते रहें और परदे के पीछे उनके खेल भी चलते रहें.
विवेकानंद खुद में भारत के पहले घोषित समाजवादी थे. उन्होंने कहा था कि भारतीयों को दो सौ साल के लिये सभी देवी देवताओं को भूल जाना चाहिए और सारा ध्यान भौतिक प्रगति में लगा देना चाहिए. एक अन्तरंग चर्चा में उन्होंने पूरे भारत में मांसाहार को जोर से फैलाने की बात की थी. वे स्वयं और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस भी मांसाहारी थे, जैसा कि अधिकाँश बंगाली होते हैं. मांसाहार को भारत के लिए जरुरी बताते हुए उनका तर्क था कि यह देश इतना भूखा और कुपोषित है कि यहाँ के युवकों में कोई बल ही नहीं है. शुचिता यम नियमों की पारंपरिक व्याख्या को वे बहुत मूल्य नहीं देते थे बल्कि देश निर्माण के लिए शक्ति अर्जन करना उनके लिए महत्वपूर्ण था. एक अन्य अवसर पर उनसे किसी ने पूछ था कि मांसाहार तो तामसिक है फिर आप इसकी सलाह क्यों दे रहे हैं? उन्होंने गंभीरता से कहा था कि मांसाहार तामसिक नहीं राजसिक भोजन है और जिसे आप सात्विक अवस्था कह रहे हो वो असल में भुखमरी है.
इसी तरह उन्होंने कई बातों में नया रंग भरते हुए भारत में विज्ञान और तकनीक की पढाई पर जोर दिया. न केवल इतना ही बल्कि यूरोप की स्त्रीयों ने उन्हें जो कुछ सिखाया था उस के आधार पर उन्होंने भारत में स्त्री मुक्ति की वकालत की थी. भगिनी निवेदिता को बागडोर सौंपना इसी क्रम में हुआ था. हम देखते हैं कि इसी तरह श्री अरबिंदो भी फ्रांसीसी महिला को श्री माँ के नाम से अपने आश्रम में स्थापित करके यूरोपीय ढंग के आचार शास्त्र के कई तत्वों का उपयोग करते हैं.
विवेकानंद को पारंपरिक महापुरुषों से इतर इस भांति रखते हुए एक आश्चर्य सुर नजर आता है. यह बात बहुत पीड़ित करती है कि वामपंथ के लिए विवेकानंद आदर्श क्यों नहीं बन सके. युवा शक्ति को आंदोलित करते हुए विवेकानंद स्वयं में धार्मिक ढकोसलों के निंदक और विरोधी थे. उनकी अनेक अंतरदृष्टियाँ पारंपरिक धर्म और भारत में फैले भाग्यवाद और आलस्य के खिलाफ रही हैं. वामपंथ भी खुद इन बातों का विरोधी रहा है. फिर भी हमारा वामपंथ एक संशय में फंसा हुआ है, धार्मिक देश में धर्म के खिलाफ क्रान्ति के लिए एक साफ़ छवि वाला कट्टर नास्तिक नेता उन्हें मिल पाना बहुत कठिन है. शायद इसलिए भी वे विवेकानंद की तुलना में भगत सिह को अधिक सुरक्षित समझते हैं.
विवेकानंद आस्तिक हैं और भगत सिंह घोषित नास्तिक. और आस्तिकता से भी आगे बढ़कर विवेकानंद रहस्यवाद और योग साधना में बहुत विश्वास रखते थे –इसी कारण वामपंथ और वामपंथियों को वे ज्यादा जंचे नहीं. इसीलिये वामपंथ उन्हें अपना नहीं सका और विवेकानंद जिन वर्ण और जाति के रक्षकों के विरोध में खड़े थे] आज उन्हीं धुर दक्षिणपंथियों के हाथ के खिलौने बन गए हैं.
संजय जोठे
जनज्वार से
सम्पादन -अनिल