2015 में हर किसी को अपने आप से, समाज से और सरकार से कई तरह की उम्मीदें हैं. लेकिन क्या भारत और भारतीय अपनी उम्मीदों से न्याय कर पाएंगे या उन्हें 2016 के भरोसे छोड़ देंगे.
दिसंबर 2014 में दो दिन ऐसे रहे जब नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री आवास में दो दिन तक पानी की सप्लाई नहीं हुई. नई दिल्ली नगर निगम के मुताबिक यमुना नदी में अमोनिया का स्तर इतना बढ़ चुका था कि ट्रीटमेंट प्लांट पानी साफ करने में फेल हो गया, लिहाजा सप्लाई रोकनी पड़ी. राष्ट्रपति यानी भारत के प्रथम नागरिक और प्रधानमंत्री यानी देश के प्रधान नेता, जब इन दोनों के यहां पानी नहीं आया तो बाकी देश की क्या दशा होगी, अंदाजा लगा लीजिए.
देश बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है, लेकिन सत्तालोलुप संगठनों को धर्म परिवर्तन इससे ज्यादा बड़ा मुद्दा लगता है. वो जिस संस्कृति की बात करते हैं, उसी की “सर्वे भवन्तु सुखिन:” की विरासत उन्हें ही नहीं दिखाई पड़ती. उसमें वनों, वायु और जल को पू्ज्यनीय स्थान दिया गया है. ये संगठन अगर इनकी रक्षा के लिए काम करें तो समाज का भी भला होगा.
यह बात सही है कि गंदी नदियों का जिम्मेदार कोई एक तंत्र या व्यक्ति नहीं है. इसमें सबकी कुछ कुछ भागीदारी है. पानी से लेकर जमीन और ऊपर हवा तक, हमने सब कुछ इतना गंदा कर दिया है कि अब इसे संभालना मुश्किल हो रहा है. यकीन न आए तो किसी भी रिहाइशी इलाके से सटी सड़क पर चले जाइये. वहां बिखरे पॉलिथीन के पैकेट स्वच्छ भारत को चिढ़ा रहे हैं. कहीं कोई चिप्स खाकर पैकेट फेंक गया है तो कहीं प्लास्टिक की शक्ल में चाय पीने और पिलाने वालों की बेवकूफी बिखरी पड़ी है. यह उदाहरण देते हुए स्वच्छ भारत अभियान पर कटाक्ष करना आसान है, लेकिन तस्वीर बदलने के लिए सामाजिक सोच बदलने की जरूरत है.
भारत में पायी जाने वाली 70 फीसदी बीमारियां साफ सफाई की कमी से होती हैं. प्लास्टिक भूजल, नदी और हवा को दूषित कर रहा है. विकास और तरक्की के लिए “मेक इन इंडिया” और संसाधनों को निचोड़ने की आपाधापी के बीच पर्यावरण का मुद्दा पीछे नहीं छूटना चाहिए.
लेकिन ये सब नेताओं और अफसरों के झाड़ू पकड़ने या नारा लगाने से नहीं होगा. सफाई को लेकर ठोस नीति बनानी जरूरी है. पॉलिथीन के इस्तेमाल को सख्ती के साथ कम से कम किया जाए. जगह जगह ठेला लगाकर खाने पीने की चीजें बेचने वाले अपने द्वारा पैदा किया गया कूड़ा खुद साफ करें. हर फैक्ट्री या बड़े संस्थान अपने रिसाइक्लिंग प्लांट लगाएं. नगर निगमों और ग्राम सभाओं को भी सफाई की अत्याधुनिक तकनीक से लैस करना होगा. लोग अपने स्तर पर साफ सफाई कर रहे हैं लेकिन अगर कूड़ा फेंकने की जगह ही न हो, तो किया जाए.
सरकारों को तय करना ही होगा कि शहरों का विस्तार अब फैलाव की शक्ल में आगे न बढ़े. बेतरतीब बसते एक मंजिला मकानों से जंगल और कृषि योग्य भूमि बर्बाद हो रही है. फैलते शहरों में बढ़ती भीड़ कूड़े की समस्या को असह्य बना रही है. लगातार फैलते शहरों में पानी, बिजली, सीवर, कूड़ा निस्तारण और सड़कों का विस्तार करना अंतहीन काम है, जो हमेशा सिरदर्द बना रहेगा. नया साल वास्तविक बदलाव लाए तो बेहतर है, सिर्फ नया कलेंडर और नारे लगाने से कुछ नहीं होगा.
ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी