मुंबई: बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को कथित तौर पर पुलिस हिरासत में मारे गए एक व्यक्ति की मां को मुआवजे के तौर पर 15 लाख रुपये से अधिक का भुगतान करने का निर्देश देते हुए कहा है कि हिरासत में मौत सभ्य समाज में सबसे खराब अपराधों में से एक है. पुलिस अधिकारों की आड़ में नागरिकों को अमानवीय तरीके से प्रताड़ित नहीं कर सकती.
जस्टिस विभा कंकनवाड़ी और अभय वाघवासे की औरंगाबाद पीठ ने बुधवार (18 जनवरी) को सुनीता कुटे नामक महिला द्वारा दायर याचिका पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उनके 23 वर्षीय बेटे प्रदीप की मौत सोलापुर से संबद्ध दो पुलिसकर्मियों द्वारा प्रताड़ित और मारपीट करने के बाद हुई थी.
सुनीता ने पुलिस से 40 लाख रुपये के मुआवजे और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग की थी.
खंडपीठ ने कहा, ‘हिरासत में मौत कानून के शासन द्वारा शासित एक सभ्य समाज में शायद सबसे खराब अपराधों में से एक है.’
अदालत ने कहा कि हालांकि, पुलिस के पास लोगों की गतिविधियों और अपराध को नियंत्रित करने की शक्ति है, लेकिन यह अबाध नहीं है.
फैसले में कहा गया है, ‘उक्त शक्ति के प्रयोग की आड़ में वे (पुलिसकर्मी) किसी नागरिक के साथ अमानवीय तरीके से अत्याचार या व्यवहार नहीं कर सकते.’
अदालत ने कहा, ‘सरकार अपने नागरिकों की जीवन रक्षक है और अगर उसका कर्मचारी सत्ता की आड़ में अत्याचार करता है, तो उसे ऐसे नागरिक को मुआवजा देना होगा.’
पीठ ने कहा कि मौजूदा मामले में पीड़ित 23 वर्षीय युवक था, जिसकी शादी मृत्यु से ठीक चार महीने पहले हुई थी.
बार एंड बेंच के मुताबिक याचिकाकर्ता के अनुसार, 4 नवंबर, 2018 को वह अपने बेटे और उसकी पत्नी के साथ ट्रैक्टर पर गन्ना ले जा रही थीं. उस समय सोलापुर पुलिस के दो कॉन्स्टेबल – दशरथ कुंभार और दीपक क्षीरसागर – ने एक पुलिस चौकी पर ट्रैक्टर को रोका और टेप रिकॉर्डर को बहुत जोर से बजाने के लिए प्रदीप पर बेरहमी से हमला करना शुरू कर दिया. बाद में वे उसे घसीटते हुए चौकी थाने ले गए.
याचिकाकर्ता ने कहा कि उसके बेटे की मौके पर ही मौत हो गई है यह भांपते हुए दोनों सिपाही उसे पास के अस्पताल ले गए, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.
पीठ ने जिला मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को ध्यान में रखा, जिसमें प्रदीप के शव पर 43 चोटों के निशान पाए गए थे, जो मृत्यु पूर्व और घटना के 24 घंटे के भीतर लगी थीं.
पीठ ने अपने आदेश में कहा कि कॉन्स्टेबलों के पास ट्रैक्टर को रोकने का कोई कारण नहीं था और भले ही उन्हें उसके टेप रिकॉर्डर की ध्वनि के संबंध में कुछ आपत्ति हो, वे मृतक को ‘गरिमापूर्ण तरीके’ से बता सकते थे.
आदेश में कहा, ‘जब रोकने का कोई कारण नहीं था, इसलिए पीड़ित पर अत्याचार करने का भी कोई कारण नहीं था, तो मृतक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है.’
पीठ ने महाराष्ट्र सरकार को पीड़ित की मां को 15,29,600 रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया.