भारत और बंग्लादेश के मध्य सीमा विवाद सुलझ गया। 41 सालों बाद इस विवाद का अंत हो गया। यह हमारे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है, लेकिन राजनैतिक लिहाज से सिद्धांतिक रूप में भाजपा, कांग्रेस शासन में इसका विरोध कर रही थी, लेकिन मोदी की नेतृत्व में इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्वकाल में 1974 में जिस समझौते को अंतिम रूप दिया गया था, उसी के आधार पर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ।
भारत और बंग्लादेश के मध्य सीमा विवाद सुलझ गया। 41 सालों बाद इस विवाद का अंत हो गया। यह हमारे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है, लेकिन राजनैतिक लिहाज से सिद्धांतिक रूप में भाजपा, कांग्रेस शासन में इसका विरोध कर रही थी, लेकिन मोदी की नेतृत्व में इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्वकाल में 1974 में जिस समझौते को अंतिम रूप दिया गया था, उसी के आधार पर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ।
बंग्लादेश से हमारे संबंध हमेशा से मधुर रहे हैं। पूर्वोत्तर का देश जो कभी जय बंग्लादेश के नाम से जाना जाता था। आज इसकी पहचान बंग्लादेश के रुप में है। इसका भाग्य उदय भी भारत के हाथों हुआ था।
भारत कभी भी पड़ासियों का विश्वास नहीं खोना चाहता है। वह एक दूसरे के प्रति भरोसे और उम्मीदों को बनाए रखना चाहता है। प्रभुतासंपन्न देश के लिए उसका सीमा विवाद सबसे बड़ा सिर दर्द होता है। भारत के लिए यह समस्या सबसे बड़ी है। वह चाहे बंग्लादेश के साथ हो या चीन अथवा पाकिस्तान। हमने क्या खोया और क्या पाया इस पर अधिक मंथन करने के बाजाय जरूरत इस बात की है कि हमने एक नासूर को हमेशा के लिए खत्म कर दिया। यह हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर परिणाम है। सीमा विवाद को लेकर हम एक देश दूसरे पर तलवारें ताने खड़े रहते हैं। जबकि बंग्लादेश हमारा मित्र राष्ट है।
हम आजादी के बाद से ही एक दूसरे के बेहत करीब रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या चीन के साथ हमारा सीमा विवाद कभी खत्म होगा? बंग्लादेश की नीति क्या चीन पर भी सफल होगी? हाल में चीन दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल फेल हो चुकी है। चीन सीमा विवाद को लेकर भारत की पहल को इनकार चुका है।
कहते हैं कि दूध का जला छाछ भी फूंककर पीता है। भारत 1962 में चीन से पराजित हो चुका है। यह युद्ध भी सीमा विवाद को केंद्र बना कर लड़ा गया था, जिसमें हमारी सैन्य तैयारी बेहतर न होने से पराजय का सामना करना पड़ा था।
चीन सीमा विवाद को लेकर आचार संहिता की बात करता है, लेकिन भारत इसे मानने को तैयार नहीं है। भारत और चीन के मध्य लगभग 4,000 वर्गमील का सीमा विवाद है, जबकि चीन इसे 2,000 वर्ग किलोमीटर मानता है। चीन हमेशा भारतीय क्षेत्र अरुणांचल प्रदेश पर दावा करता चला आ रहा है, जबकि जिस अक्साईचीन पर वह कब्जा किया है वह भारतीय क्षेत्र है।
उसी भूमि पर 1962 में युद्ध लड़ा गया था। भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद को लेकर सबसे बड़ी बात भरोसे की है। दोनों एक दूसरे पर भरोसा नही करना चाहते हैं। विश्वास बहाली के बीच लड़ा गया वह युद्ध सबसे बड़ी बाधा है।
चीन हमेशा से साम्राज्यवाद की नीति में विश्वास करता है। जबकि भारत शांति और सहिष्णुता में विश्वास रखता है। दोनों राष्टों के मध्य सीमा विवाद हल करने के लिए जिस आंचार संहिता का प्रस्ताव रखा गया है। उसके अनुसार, चाइना चाहता है कि दोनों देश सीमा क्षेत्र में किसी भी प्रकार का ढांचागत विकास न करें। सीमा के पास सैन्य शिविर, हवाई अड्डे और सैन्य बेस कैम्प न बनाए जाएं। सीमा क्षेत्र को आपसी विश्वास बहाली के लिए सैन्य गतिविधियों से मुक्त रखा जाए। भारत के लिए यह आसान काम नहीं है, क्योंकि भारत की सीमा का जो इलाका है वह पूर्णरूप से पर्ततीय है, यह दुर्गम इलाका है।
आपदा स्थिति में अगर भारत सीमा क्षेत्र को सैन्य मुक्त क्षेत्र बना देगा तो उसे भविष्य में काफी दिक्कते आएंगी। कल को चीन की ओर से हमला कर दिए जाने पर हमारे लिए सबसे मुश्किल खड़ी हो जाएगी, क्योंकि चीन का इलाका पठारी और समतल है।
चीन किसी भी क्षण अपने सैनिकों को भारत की सीमा में सुगमता से पहुंचा सकता है, जबकि भारत के लिए यह आसान नहीं होगा। चूंकि पर्वतीय और दुर्गम इलाका होने से यह आसान नहीं होगा, इसीलिए भारत चीन के इस प्रस्ताव को मानने के लिए तैयार नहीं है। क्योंकि 1965 के भारत-पाक युद्ध में चीन ने पाकिस्तान का समर्थन किया था।
चीन जिस 2000 किलोमीटर क्षेत्र को विवादित मानता है वह भारत के कब्जे में बताता है। जबकि चीन जिसे उसने स्वतंत्र क्षेत्र घोषित किया था उस अक्साईचीन पर उसने कब्जा जमा लिया है। उस पर वह कोई बात करने को तैयार नहीं होता है। सीमा विवाद हल करने के लिए दोनों देशों के बीच 18 दौर की वर्ता हो चुकी है। लेकिन अभी तक इसका हल नहीं निकला है और न ही निकलने की संभावना है।
1959 में तिब्बती विद्रोह के बाद भारत और चीन के रिश्तों में खटास पैदा हो गयी। भारत की ओर से दलाई लामा को शरण देने के कारण चीन भारत को आंतरिक रूप से ‘दुश्मन नंबर वन’ मानता है। व्यापारिक गतिविधियों के कारण भारत से समझौता करना उसकी विवशता है, क्योंकि चीन निर्मित सामानों खपाने के लिए भारत एक बड़ा बाजार है। चीन और भारत के मध्य व्यापारिक अंसतुलन के बाद भी भारत ने चीन के लिए दरवाजा खोल रखा है। भारत और बंग्लादेश के मध्य चीन जैसी स्थितियां नहीं हैं।
चीन आतंरिक रूप से पाकिस्तान की मदद से भारत को अस्थिर देखना चाहता है। वह जानता है कि दक्षिण एशिया में भारत जितना अधिक मजबूत होगा अमेरिका उसके लिए उतना ताकतवर बनेगा। क्योंकि मोदी सरकार के आने के बाद विदेश नीति में आए व्यापक बदलाव को चीन पचा नहीं पा रहा है। अपने पड़ोसी मुल्कों से भारत बेहतर संबंध बनाने और एक दूसरे के भरोसे को जीतने के लिए प्रतिबद्ध है।
भारत की यह नीति चीन पचा नहीं पा रहा है। पाकिस्तान से भारत के खराब रिश्ते और 1962 में चीन से भारत की पराजय सीमा विवाद में सबसे बड़ी मुश्किल है। सच्चाई यही है कि चीन की अर्थ व्यवस्था और उसका सामरिक ढांचा भारत से कई गुना मजबूत है, जिसके चलते चीन अपनी अकड़ दिखाता रहता है। एक ओर सीमा विवाद हल करने के लिए आचार संहिता की बात करता है। दूसरी ओर, चीन सैनिक भारतीय सीमा में घूस अपनी दबंगई दिखाते हैं।
सीमा विवाद पर भारत की नीति चीन और पाकिस्तान से अलग है। बंग्लादेश से हुआ सीमा समझौता निश्चित तौर पर अपने आप में इतिहास है। पीएम मोदी ने एक उपलब्धि हासिल की है। इसकी नींव 1974 में दोनों देशों के बीच पड़ गई थी। समझौता का देश की संसंद ने हाल में अनुमोदन किया है।
दोनों देशों के बीच सीमा विवाद की मुश्किल यह रही कि प्राकृतिक बनावट के चलते बंग्लादेश की 111 बस्तियां भारत की सीमा से चारों से घिरी थी, जबकि भारत की 51 बस्तियां बंग्लादेश की सीमा में थी। वहां के सीमावर्ती भूमि की बनावट ही ऐसी रही कि दोनो बस्तियां एक दूसरे की सीमा में अंदर तक घुसी थी। इस समस्या से जहां सीमा विवाद सुलझ जाएगा।
वहीं, बंग्लादेश के शरणार्थियों की समस्या पर जो आवाजें उठती थीं, वे बंद हो जाएंगी। चुनावों में यह मसला आम होता था। राजनीति की दुकान चलाने वाले दल इस पर गहरी राजनीति करते थे। इसे चुनावों के दौरान खूब भूनाया जाता था। लेकिन इस समझौते से विराम लगने की उम्मीद है।
वैसे, इस समस्या से भारत की 17 हजार एकड़ जमीन बंग्लादेश के कब्जे में चली जाएगी, जबकि भारत बंग्लादेश की महज 7,000 एकड़ जमीन पर ही अपना अधिकार जमा सकेगा। कुछ भी लेकिन एक समस्या का जड़ से खत्म हो चली है। इससे जहां विकास को गति मिलेगी और घुसपैठ और आतंकवाद पर विराम लगेगा।
हालांकि इस समझौते पर कुछ सवाल भी उठ रहे हैं कि हम बंग्लादेश से यह समझौता कर घाटे में गए हैं, लेकिन हमने चीन को आइना दिखाया है। हमने अपनी पड़ोसियों से सहिष्णु नीति का परिचय देकर यह साबित कर दिया है कि हम अपनी दोस्ती के लिए अपनी कुबार्नी भी दे सकते हैं। यह बात चीन को समझना चाहिए।
भारत पड़ोस में हमेशा शांति चाहता है। भारत के सामने बंग्लादेश की शक्ति शून्य है। अगर भारत चाहता तो सैन्य शक्ति के चलते अपना सीमा विस्तार कर बंग्लादेश से इस समस्या का समाधान कभी का निकाल चूका होता, लेकिन हम दबंग नीति का समर्थन नहीं करते हैं।
निश्चित रूप से प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी की यह बेहतर उपलब्धि है। हमारी यह कोशिश चीन और पाकिस्तान से भी जारी रखनी चाहिए। पड़ोसियों मधुर संबंध हमारी प्राथमिकता है। बंग्लादेश की तरह चीन और पाकिस्तान को भी सीमा विवाद को हल करने में लचीली नीति अपनानी चाहिए, जिससे दक्षिण एशिया में आपसी विश्वास की बहाली हो और एक दूसरे पर तलवारें खींचने के बाजय विकास की नीति अपना अर्थ व्यस्था को नई गतिशीलता प्रदान की जाए। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)