नई दिल्ली, 7 दिसंबर (आईएएनएस)। सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले कथित भेदभाव को रोकने के लिए संसद को समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश देने के अनुरोध संबंधी जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई करने से सोमवार को इनकार कर दिया। शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता से कहा कि वह संसद का रुख करे, अदालत का वक्त न जाया करे।
यह जनहित याचिका अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की थी। अश्विनी भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली इकाई के प्रवक्ता भी हैं।
पूर्व कानून मंत्री और कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली ने शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत किया जबकि भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण यादव ने कहा कि सरकार को गंभीरता से समान नागरिक संहिता के लिए कानून बनाने पर सोचना चाहिए।
यह मामला बी.आर.अंबेडकर की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में होने वाले समारोहों के तहत संसद में हुई विशेष चर्चा में भी उठा था। तब सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावर चंद गहलोत ने इसे लागू करने का संकेत दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर, न्यायमूर्ति आर. बानुमथि और न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की पीठ ने कहा कि इस मामले में संसद को निर्णय लेना है। इस पर निर्देश देना सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
पीठ के अध्यक्ष प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति ठाकुर ने याचिकाकर्ता के वकील गोपाल सुब्रमण्यम को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर ऐसी याचिकाएं कानून की अनदेखी करते हुए दायर की जाएंगी तो अदालत इनसे सख्ती से निपटेगी।
इस मामले में कानूनी अवस्थिति को ‘पूरी तरह से साफ’ बताते हुए पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील से कहा, “आप हमारा समय बर्बाद कर रहे हैं।”
न्यायालय ने सवाल किया कि जो लोग कथित तौर पर इस भेदभाव का शिकार हैं, वे इसके निवारण के लिए आगे क्यों नहीं आते। प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “ऐसा क्यों है कि समुदाय का कोई व्यक्ति आगे नहीं आता?”
याचिकाकर्ता द्वारा इस याचिका के औचित्य पर सवाल उठाते हुए पीठ ने कहा कि अगर कोई पीड़ित महिला आती है तो फिर अदालत उस पर विचार कर सकती है।
उपाध्याय को इस कानून के लिए संसद जाने की सलाह देते हुए अदालत ने पूछा, “आप जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकते, उसे अप्रत्यक्ष रूप से करने की कोशिश कर रहे हैं?”
याचिका में संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत का हवाला दिया गया था, जिसमें कहा गया है कि राज्य देश में समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करेगा। इसमें यह भी कहा गया कि ऐसी संहिता से संदेश जाएगा कि भारत एक ऐसा आधुनिक राष्ट्र है जो धर्म, जाति, लैंगिक भेदभाव से ऊपर उठ चुका है।
याचिका में कहा गया था कि देश ने आर्थिक रूप से तरक्की कर ली है लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से इतना नीचे चला गया है कि हम न इसे आधुनिक कह सकते हैं और न ही परंपरागत।
पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने सर्वोच्च अदालत के फैसले को सही बताते हुए कहा कि कानून बनाना सरकार का काम है।
मोइली ने आईएएनएस से कहा, “समान नागरिक संहिता नीति निदेशक सिद्धांतों में शामिल है लेकिन यह जरूरी नहीं है कि सभी नीति निदेशक सिद्धांत कानून बनें ही। यह वह दिशा है जिधर संसद चल सकती है।”
उन्होंने कहा कि भारत व्यापक विविधता वाला देश है। इसीलिए कई तरह के पर्सनल ला हैं। बात सिर्फ हिंदू, मुसलमान, ईसाई की नहीं है। हिंदू समुदाय में ही कई तरह के समुदाय है। इस मामले में सहमति ही बनानी होगी नहीं तो हम देश को बांट देंगे।
भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण यादव ने कहा कि सरकार को समान नागरिक संहिता बनाने पर गंभीरता से सोचना होगा। समाजवादी विचारक राम मनोहर लोहिया भी यही चाहते थे।