वे राज्य को चर्च से अलग रखने का विरोध कर रहे हैं। एकदम दूसरे धर्म — हिन्दू धर्म के अनुयायियों की तरफ़ से ईसाई धर्म को दिया जा रहा यह समर्थन यह दिखाता है कि आज ’सभ्यताओं के आपसी टकराव’ की बात करने की जगह इस बारे में बात करनी चाहिए कि पारम्परिक ईसाई, हिन्दू और मुस्लिम सभ्यताओं के सामने आज नास्तिक और उदारवादी विचारधारा ख़तरा बनकर खड़ी हो गई है। यह विचारधारा पश्चिमी देशों में अपने क़दम जमा चुकी है और मानवजाति के परम्परागत धर्मों के सामने नष्ट हो जाने का ख़तरा पैदा हो गया है।
ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री डेविड कैमेरॉन का ’चर्च टाइम्स’ नामक अख़बार में एक लेख छपा था, जिसका शीर्षक था — इंगलिश गिरजे में मेरा विश्वास। यह लेख छपने के बाद ही ब्रिटिश समाज में ईसाई धर्म की भूमिका को लेकर बहस-मुबाहिसा शुरू हो गया। अपने इस लेख में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री ने यह अपील की थी कि ब्रिटेन को आगे भी ज़िम्मेदारी, मेहनतपसन्दी, परोपकारिता, सहिष्णुता और प्रेम जैसे ईसाई धार्मिक मूल्यों पर आधारित ईसाई देश बनाए रखा जाना चाहिए। रेडियो रूस के विशेषज्ञ और रूस के सामरिक अध्ययन संस्थान के एक विद्वान बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
हम विस्तार से इस बारे में बात नहीं करेंगे कि आधुनिक ब्रितानियाई समाज और प्रधानमन्त्री सहित ब्रितानियाई समाज के नेता इन मूल्यों का कितना पालन करते हैं। आइए, हम दूसरी तरफ़ नज़र डालें। ब्रितानियाई प्रधानमन्त्री की इन बातों का विरोध ब्रिटेन के उदारवादी लोगों की तरफ़ से हुआ, जिनमें सत्तारूढ़ गठबन्धन में शामिल लिबरल-डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता तथा ब्रिटेन के उपप्रधानमन्त्री निक क्लेग भी शामिल हैं। उन्होंने कहा कि धीरे-धीरे ब्रिटेन की महारानी को भी इंगलैण्ड के चर्च के प्रमुख का कार्यभार छोड़ देना चाहिए।
ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय भी ब्रिटानियाई जीवन में गिरजे की भूमिका पर हो रहे इस बहस-मुबाहिसे में भाग लेने लगे। एक सामाजिक संगठन के प्रबन्ध निदेशक तथा ब्रिटेन में हिन्दुओं के हितों का ख़याल रखने वाले अनिल भनोट ने कहा कि राज्य से गिरजे को अलग किए जाने से न केवल ब्रिटिश लोकतन्त्र भंग होगा बल्कि इससे ब्रिटेन में रहने वाले अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की तरह हिन्दुओं की स्थिति पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा। बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
ऐसा लग सकता है कि इंगलैण्ड के चर्च से भला हिन्दुओं का क्या लेना-देना? वास्तव में हिन्दुओं के एक नेता का यह नज़रिया दुनिया में चल रही और व्यापक रूप से चर्चित ’सभ्यताओं के टकराव’ की धारणा जैसी प्रक्रियाओं को गहराई से व्यक्त करता है।
हम आपको बता दें कि यह धारणा पिछली सदी के अन्तिम दशक में अमरीकी राजनीतिक विचारक सैम्युल हैंटिंगटन ने प्रस्तुत की थी और इसका उद्देश्य मुख्य रूप से इस्लाम को निशाना बनाना था। ऐसा लग सकता है कि इक्कीसवीं सदी के पहले और दूसरे दशक में घटने वाली घटनाओं से इस धारणा की पुष्टि होती है। लेकिन एक बात ऐसी है, जिसकी तरफ़ से इस धारणा के समर्थक अपनी आँखें मून्द लेते हैं और इस तरह वे जो कुछ भी आज घट रहा है उसकी सच्चाई को छुपाने की कोशिश करते हैं। वास्तव में जो कुछ भी आज घट रहा है — वह सभ्यताओं का टकराव, इस्लाम और ईसाई सभ्यताओं का टकराव नहीं है बल्कि पारम्परिक सभ्यताओं का उस ताक़त से टकराव है, जिसे सभ्यता कहा ही नहीं जा सकता है।
यह ताक़त पश्चिम के कुछ देशों में अपनी पैठ बना चुकी है और उसी तेज़ी से इराक, अफ़ग़ानिस्तान लीबिया, सीरिया आदि बहुत से मुस्लिम देशों की जनता को भी नष्ट कर रही है।
यही ताक़त पश्चिमी देशों के निवासियों के बीच उनके दिमाग़ में यह धारणा भर रही है कि परम्परागत धर्मों से इन्कार किया जाना चाहिए, समलैंगिक विवाहों को मान्यता दी जानी चाहिए आदि-आदि। यही लोग आज उन नरेन्द्र मोदी की छवि को भी बिगाड़ने में लगे हुए हैं, जो भारत को परम्परागत जड़ों की तरफ़ वापिस लौटाना चाहते हैं।
इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि ब्रिटेन में रहने वाले हिन्दू ईसाई धर्म से अनजान होने के बावजूद ईसाई धर्म का पक्ष ले रहे हैं क्योंकि आज पारस्परिक विरोध की धुरी धर्मों के बीच से नहीं गुज़र रही है, बल्कि इस धुरी के एक तरफ़ परम्परागत मानव सभ्यता खड़ी हुई है और उसके दूसरी तरफ़ परम्परागत मानव-मूल्यों से इन्कार करने का समर्थन करने वाली पश्चिम में मज़बूत होती जा रही ताक़तें खड़ी हैं।