‘रूद्र’ का अर्थ होता है-भगवान शिव, और, ‘अक्ष’ का अर्थ होता है-‘आँख’
इस प्रकार से ‘रूद्राक्ष’ का अर्थ हुआ -‘भगवान शिव की आँखों से उत्पन्न पदार्थ ’। ऐसी मान्याता है कि -‘रूद्राक्ष’ की उत्पत्ति भगवान शिव के नेत्रों से हुई है, इसलिये ही इसका नाम ‘रूद्राक्ष’ पड गया है । इसके सन्दर्भ में ‘स्कन्द पुराण’ में एक कथा भी मिलती है जो इस प्रकार से है- प्राचीनकाल में पाताल लोक में ‘मय’ नामक एक बलषाली असुर राज्य करता था । वह बहुत ही अधिक पराक्रमी ,शुरवीर, और अजेय था । एक बार उसके मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि – पाताल लोक से बाहर निकलकर अन्य लोंकों पर भी विजय प्राप्त की जाये और उन पर शासन किया जाये । अपने इस विचार को मूर्त रूप देने के लिये उसने कठोर तपस्या की और यह वरदान प्राप्त कर लिया कि -उसकी मृत्यु केवल भगवान शिव के द्वारा ही हो सकेगी , अन्य किसी प्रकार से नहीं । फिर वरदान प्राप्त करके उसने – धरती लोक तथा स्वर्ग लोक पर आक्रमण किया और अन्त में इन पर विजय प्राप्त कर ली । इसके बाद में उसने अपने लिये तीन भिन्न प्रकार के पुरों (दुर्ग) का निर्माण करवाया । इनमें से – एक पुर ‘स्वर्ण’(सोने) का था, दूसरा पुर ‘रजत’ (चाँदी) का था, तीसरा पुर ‘लौह’ (लोहे) का था । इस प्रकार से तीन पुरों (दुर्ग) का निर्माण करवाने के कारण उसकेा ‘त्रिपुरासुर’ कहा जाने लगा । इस ‘त्रिपुरासुर’ ने धरती लोक तथा स्वर्ग लोक के निवासियों को परेषान करना शुरू कर दिया और उनको विभिन्न प्रकार के कष्ट भी देने लगा । अन्त में देवतागण अपने ही निवासों से निष्कासित कर दिये गये और भयभीत होकर इधर-उधर भटकने लगें । अन्त में सभी देवता भगवान शिव के षरण में पहुॅंचे । देवताओं की प्राथना पर भगवान शंकर ने अपना रौद्र रूप धारण करके ‘त्रिपुरासुर’ से युद्ध किया एवं परास्त कर उसका वद्ध किया । त्रिपुरासूर के वध के उपरान्त तीनों दुर्गो को नश्ट करके भगवान शंकर हिमालय पर्वत के एक शिखर पर बैठकर युद्ध की थकान मिटाने लगे । थकान मिट जाने पर वह अतंयंत हर्षित हुये और हर्ष के कारण ही उनके नेत्रों से जल की कुछ बूदें निकल पड़ी ,उसी बूदों के पवर्त पर गिरने से अंकुर पैदा हो गए । धीरे-धीरे वह अंकुर बढ़ते चले गए, तथा उसने वृक्ष का रूप धारण कर लिया । फिर उन वृक्षों में फल-फूल खिलने लगें । यही फल रूद्राक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।