नायक को बधाई- आशा और उम्मीद का संसार गढ़ता नायक
एक ऐसे युवा शिक्षक की कहानी जिसने अपना घर बार छोड़ा, गांॅव में रहीं और घर-घर जाकर स्कूल में बच्चों का दाखिला कराया। स्कूल जहां 2008 में 10 छात्रों का दाखिला हुआ था, आज छात्रों की संख्या बढ़कर 206 हो गया है।
फ्रेनी मानेकशाॅ
वैशाली, बिहार, भारत 7 अप्रैल 2014 – यह है बिहार के वैशाली जिले के करमापुर गांव का नजारा जहां के प्राथमिक विद्यालय की कक्षायें पूरी तरह से बच्चों से भरी पड़ी है। कतार में रखी गये बेंच पर बैठने हुए छात्रों के अलावां बमुश्किल ही कोई जगह बची है जहां और अधिक बच्चों को बैठाया जा सके, या वहां से आगे जाया जा सके। क्लास में हर तरफ से बच्चों की आवाजे आ रही थी । क्लासटीचर नीतू कुमारी और कक्षा के छात्रों के बीच में आपसी परिचर्चा की आवाज सुनने को मिली।
उड़ने वाली चिड़िया को लेकर बनी एक साधारण सी कविता बच्चों के बीच सवाल-जवाब के सत्र का रूप ले चुका था। क्या व्यक्ति हवा में उड़ सकता है ? उत्साहित बच्चे जवाब देने के लिऐ अपने हाथ उठा रहे थे तो कही से जवाब आ रहा था। हां, हेलीकाॅप्टर तो कहीं से जवाब आ रहा था हां, हवाई जहाज । तो उसी में से एक बच्चे ने उत्साहित होकर आॅक्सीजन कहा। शिक्षक को समझ आ गया कि बच्चे ने सवाल को सही तरीके से नहीं समझा, और उन्हें समझा नहीं पायी हैं। शिक्षक उनके पास गईं और विनम्रता से उन्हें समझाया कि आॅक्सीजन और हवा में समानता भले ही है पर मैने जो सवाल पूछा था वो इससे अलग था,भिन्न था। बच्चो ने प्रश्न को सही तरीके से नहीं समझा इसमंे कोई हतप्रभ होने वाली बात नहीं थी।
इसके बदले शिक्षक ने सभी बच्चों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वे जोरदार ताली बजाकर उसे शाबासी दें क्योंकि उस बच्चे ने प्रश्नोत्तर सत्र में भाग लिया। यह घटना उस समय और आकर्षित करती है जब हमने कहा कि शिक्षिका तीसरी, चैथी और पांचवी कक्षा के बच्चों को एक साथ पढा रही थीं।
नीतू कुमारी सिंह कोई साधारण शिक्षिका नहीं हैं। वह दो वर्शो तक 2008 से 2010 के बीच लगातार इस स्कूल अकेले अपने दम पर चला रही थी। इसके बाद जाकर ही उन्हें दो अन्य शिक्षकों का सहयोग मिला।
झारखंड के देवघर जिले की मूल निवासी यह समार्पित शिक्षिका ने नालंदा से शिक्षा में स्नातकोत्तर किया। इन्होंने वर्श 2006 में बिहार सरकार में नौकरी प्राप्त की । पठ्न-पाठ्न के इनके अभियान के दौरान ही इनका तबादला इस स्कूल में कर दिया गया। यह स्कूल चारों तरफ े पेड़ों एवं झाडियों से घिरा हुआ है, और यह गंगा नदी के किनारे रेत पर स्थित है।
नीतू कहती हैं कि ‘‘ जब मैं यहां पहली बार आई तो मैने पाया कि इस स्कूल में मात्र 10 बच्चों का नामांकन था।‘’
उसने न केवल यह निश्चय किया कि स्कूल को सुचारू रूप से चलायेगी बल्कि इसके लिए उसने इसी गांव में रहने का भी निश्चय किया। उसने सोचा कि वह गांव में घर-घर जाकर बच्चे के दाखिले के लिये उनके माता-पिता को जागरूक करेगी।
नीतू आगे कहती हैं कि ’’मैं इसके पहले गांव में कभी नहीं रही थी, लेकिन इस गांव के लोगांे ने मुझे काफी सहयोग दिया और धीरे-धीरे मैं यहां के वातावरण में रच बस गई।’’
यहां आने के बाद उसका पहला कार्य था बच्चों के दाखिले को बढ़ाना । यहां बच्चे भी काफी अच्छे थे। पर कुछ ऐसे बच्चे भी थे जो पढ़ तो सकते थे पर लेकिन उनका मन ज्यादा से ज्यादा गंगा किनारे रेत पर खेलने में लगता था तो कुछ बच्चे पेड़ की छांवों में बैठ कर दिनभर ताश खेलते थे। उन्में अधिकतर संख्या बड़े बच्चों की थी। ‘‘ मैं टोला दर टोला घूमती रही और जाकर उनके माता-पिता को प्रोत्साहित किया कि वे अपने को स्कूल भेजें। जब बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी हो गई तो नीतू को उन सभी बच्चों को अकेले संभालने की जिम्मेदारी उठाना पड़ा।’‘ मैं अक्सर रात तक पढ़ा करती थी और सुबह छात्रों के आने से पहले ही स्कूल पहंुच कर सारी व्यवस्थाओं को ठीक कर लेती थी।
स्कूल को सुचारू रूप से चलाने में बाल संसद (चिल्ड्रेन कैबिनेट) के योगदान की उन्होंनें काफी सराहना की। बच्चों के लिए ऐसा मंच जो कि बिहार के सभी स्कूलों में अनिवार्य था। जिसके जरिए विभिन्न कार्यकलापों में बच्चों की भागीदारी जरूरी थी, और ऐसा कर प्रशासनिक समस्याओं को हल करने में काफी मदद मिली।
यही नहीं वह जब भी कक्षा से बाहर आती थी, लोगों से बातचीत करती थी उस वक्त बाल संसद के सदस्यों पर कक्षा को संभालने की जिम्मेवारी होती थी जिसका निर्वहन वे बेहतर तरीके से करते थे, जिससे की स्कूल सुचारू रूप से चल सके ।
नीतू कुमारी सिंह ब्लाॅक रिसोर्स केन्द्र, सकुल विकास केंद्र, ब्लाॅक के पदाधिकारियों और ग्राम पंचायत के सदस्यों का भी उनके द्वारा दिये गये सहयोग के लिए आभार व्यक्त करती हैं। उनका मानना है कि ‘‘बिना इनके परामर्श,मार्गदर्शन और सहायता के यह कभी भी संभव नहीं होता।’’
वह बिहार सरकार द्वारा स्कूलों के लिये तैयार किये गये उस लर्निग फेसिलिटेशन मैनुअल का भी जिक्र करती हैं जिसमें अनुसार न सिर्फ उन्हें बच्चों के पाठ्यक्रम को पढ़ाने में मदद मिली बल्कि यह स्कूल में बच्चों के अनुरूप दोस्ताना माहौल बनाने में भी मददगार साबित हुआ। वह कहती हैं कि ‘‘ यह मेरे साथी हैं।’’ इसके जरिए उन्होंने सीखा कि कैसे समूह में बांटकर बड़ी संख्या में उपस्थित बच्चों को व्यवस्थित किया जा सकता है, जहां मुश्किल से कोई शिक्षक हैं। अत्यधिक संख्या में पढ़ने वाले बच्चों को कैसे को शिक्षक मैनेज कर सकता हैं ।
अपने विशय में दिये गये इस परामर्श को की वह बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, सिरे से खारिज करती हैं। ‘‘ मैं इस गाॅव के बच्चों को देखती हूं। उनका भविश्य देखती हूं कि बिना शिक्षा के उनका जीवन कैसा होगा ? वे अगर घर पर ही रहते हेैं तो बालू भरने का काम करेंगें और अगर कहीं बाहर जाते हैं तो मजदूर के रूप में काम करने को अभिशप्त होंगे। ऐसा भी संभव है कि बिना स्कूली शिक्षा के इनमें से कई लोग आपराधिक गतिविधियों में भी संलिप्त हो जाजायें।
आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने का डर स्वाभाविक है क्योंकि गंगा के किनारे जितने भी गांव हैं उन्हें अपराधियों का गढ़ माना जाता है। नदी के किनारे होने का फायदा उन्हें यह मिलता है कि अपराध कर वे असानी से एक छोऱ से दूसरे छोर या दूसरे जिले में आसानी से भाग जाते हैं ।
हालांकि नीतू कुमारी सिंह अपने स्कूल के बच्चों में शिक्षा का अलख जगा एक नई दुनिया के साथ उनका रिश्ता कायम करने की कोशिश कर रहीं है। एक ऐसी दुनिया जहां चिड़ियां चहचहाती है,ठीक उसी तरह जैसे बच्चे वहां कें बच्चों में कल्पना और अरमानों के बीच गोता लगाते हैं। यूनिसेफ से साभार