भोपाल-वर्ष 2009 में जब मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित एमपी नगर थाने में व्यापमं ने बुंदेलखंड सागर मेडिकल काॅलेज से प्राप्त प्रतिवेदन के आधार पर 9 छात्रों के खिलाफ एफआईआर क्रमांक 728/9 दर्ज कराई तो किसी को भनक तक नहीं थी कि यह विश्व के सबसे बड़े शिक्षा घोटाले का पर्दाफाश कर देगा। उस वक्त दयाल सिंह, जाहर सिंह, दिलीप सिंह, कुमारी इन्द्रा वारिया, भारत सिंह, कमलेश झावर, रौनक जायसवाल, अश्विन जाॅयसेस, पंकज धु्रर्वे और प्रदीप खरे नामक 9 छात्रों के खिलाफ व्यापमं की मेडिकल परीक्षा में मुन्नाभाई की तर्ज पर स्कोरर के माध्यम से पास होने का आरोप लगाते हुए यह एफआईआर दर्ज की गई थी। दरअसल इन नौ छात्रों को उस प्रवेश समिति के सदस्यों ने पकड़ा था जिसने चेहरों के मिलान करने के बाद यह पाया कि जिन छात्रों ने परीक्षा दी थी उनके और प्रवेश लेने वाले छात्रों के चेहरे अलग-अलग थे। इन 9 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया और वे जमानत पर छूट भी गए। लेकिन इनते बड़े कांड को उस वक्त मध्यप्रदेश सीआईडी, इंटेलीजेंस से लेकर तमाम एजेंसियों ने नजर अंदाज क्यों किया। उस एफआईआर को कागज समझकर वहीं के वहीं दफन कर दिया। नतीजा यह रहा कि वर्ष 2011 में जब यह मामला ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा तब जाकर इसमें बड़े-बड़े नाम उजागर हुए और गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ।
इस बीच 2009 से 2011 तक मुन्ना भाईयों की खेप पर खेप निकाली जाती रही। लेकिन तब भी सरकार की नींद नहीं खुली। वर्ष 2009-10 से वर्ष 2013-14 में निजी काॅलेजों ने व्रूापमं घोटाले के परत दर परत खुलने के बावजूद डीमेट के नाम पर जमकर मनमानी की। स्टेट कोटे की सीटों को भी निजी काॅलेजों ने नहीं छोड़ा। इस मामले में जब चिकित्सा शिक्षा विभाग ने फीस रेग्यूलेटरी कमेटी को लिखा तो उन्होंने आज तक इन वर्षों में जो सीटें निजी कालेजों ने बेची थी उनका हिसाब नहीं दिया। मात्र 2013 की सीटों के बारे में फीस रेग्यूलेटरी कमेटी ने अपना निर्णय दिया। एफआरसी ने इस अनियमितता को सच पाते हुए चिरायु मेडिकल काॅलेज पर 225 लाख, अरविंदों मेडिकल काॅलेज पर 40 लाख, इंडेक्स मेडिकल काॅलेज पर 550 लाख, पीपुल्स मेडिकली काॅलेज पर 215 लाख, एलएन मेडिकल काॅलेज पर 245 लाख और आरडीगार्डी पर 35 लाख की पैनल्टी लगाई है। निजी काॅलेज वाले पैनल्टी न देने के बहाने पर अपीलीय प्राधिकरण के पास चले गए। गड़बड़ी पाई गई तभी तो पैनल्टी लगाई गई थी। यदि एफआरसी इन चार-पांच वर्षों का निर्णय एक ही साथ दे देती तो इन काॅलेजों के ऊपर करोड़ों की पैनल्टी निकलती और सरकारी सीट को खाने वाले काॅलेजों के संचालकों को जेल की हवा खानी पड़ती। परन्तु मामला कानूनी पेंचीदगियों में उलझकर रह गया। सरकारी कोटे की सीटें बेच दी गई और सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी रही। वे बच्चे जिन्होंने मेडिकल में आने का सपना देखा था उनके मंसूबों पर पानी इन्हीं गफलतों के कारण फिर गया। ठीक वैसे ही जैसे वर्ष 2009 में एफआईआर के बावजूद सरकारी सोती रही। सरकार की कुम्भकरणी नींद तब भी नहीं टूटी जब 150 से अधिक मुन्नाभाईयों का पर्दापाश हो चुका था। मध्यप्रदेश मुन्नाभाईयों की जन्नत बन चुका था। विधानसभा में कईयों बार यह प्रश्न उठा। व्यापमं घोटाले पर जमकर हंगामा भी हुआ। लेकिन निष्कर्ष नहीं निकल पाया। निजी तौर पर भी कई लोगों ने सूचना के अधिकार के तहत् मुन्नाभाईयों की मार्कशीट, जाति प्रमाण पत्र, फोटो समेत तमाम दस्तावेज मांगे लेकिन नतीजा सिफर रहा। इसीलिए घोटालेबाजों का हौंसला बढ़ता गया और उन्होंने डीमेट में भी पूरा 100 प्रतिशत फर्जीवाड़ा कर दिखाया। व्यापमं घोटाले की आंच में सुलग रहे मध्यप्रदेश और उसकी तपिश से परेशान शिवराज सरकार के सामने एक नई मुसीबत आन खड़ी हुई है। प्राइवेट मेडिकल काॅलेजों में प्रवेश के लिए जिम्मेदार डीमेट परीक्षा के डायरेक्टर उपरीत ने जो खुलासे किए हैं उससे प्रदेशभर के नौकरशाहों, मंत्रियों, अधिकारियों की सांसे ऊपर-नीचे हो रही हैं। डीमेट घोटाले से जुड़े लोग उच्च पदों पर पदस्थ हैं। यह एक संयोग ही है कि डीमेट के पेरे सेटअप की नींच भी नितिन महिन्द्रा ने ही वर्ष 2006 में रखी थी। व्यापमं और डीमेट में एक समानता यह भी है कि दोनों महाघोटालों के किरदार मिलते-जुलते हैं। नितिन महिन्द्रा और उनके करीबी दोस्त अजय मेहता जिनके तार मुख्यमंत्री निवास से भी जुड़े हुए हैं। इन्हीं का जुड़ाव एटीएस टेक्नोलाॅजी से जुड़ा हुआ है, जो डीमेट घोटाले में सक्रिय थी। अरविन्दो मेडिकल काॅलेज और पीपुल्स मेडिकल काॅलेज सबसे पुराने मेडकल काॅलेजों में से एक हैं। यदि इनसे पास आउट बच्चों की लिस्ट निकाली जाए और उनके माता-पिता की पूरी जानकारी पता की जाए तो ऐसे चैंकाने वाले नाम सामने आएंगे जिससे प्रदेश के प्रशासनिक, राजनीतिक और न्यायिक गलियारों में भूचाल आ जाएगा। डीमेट एक ऐसा हमाम है जिसमें प्रदेश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका नग्न नजर आती है। इस मामले मेंमेडिकल काउंसिल आॅफ इंडिया ने भी आंख बंद कर रखी थी। यह भी पता लगाने का प्रयास नहीं किया कि जिन बच्चों को एडमीशन दिया जा रहा है वे एडमीशन की पात्रता रखते हैं या नहीं।
मध्यप्रदेश के प्राइवेट मेडिकल काॅलेज में दो ही तरीके से प्रवेश हो सकता है। या तो बच्चा पीएमटी से पास हुआ हो जो राज्य कोटे में भर्ती होता है या डीमेट से पास हुआ हो। एनआरआई कोटे के बाद बची सीटों में से आधी डीमेट और आधी पीएमटी से भरी जाती हैं। लेकिन ऐसे भी कई उदाहरण हैं जिनमें उन बच्चों को प्रवेश दे दिया गया जिन्होंने न तो डीमेट किया और न ही पीएमटी की परीक्षा दी। उदाहरणस्वरूप इन्डेक्स काॅलेज में गुजरात से परीक्षा पास छात्र को एडमीशन दे दिया गया, जिनके पीएमटी में 50 प्रतिशत अंक भी नहीं थे। अगर कायदे से देखा जाए तो इतने कम अंकों में प्रवेश की पात्रता भी नहीं थी। ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं। जैसे भोपाल के लोकायुक्त में डीएसपी के पद पर पदस्थ अधिकारी के बेटे अजय रघुवंशी, इंदौर की विधायक और वर्तमान में मेयर मालनी गौड़ के सुपुत्र कर्मवीर गौड़ और कांग्रेस के पूर्व मंत्री के खास लक्ष्मण ढोली के सुपुत्र तन्मय ढोली को परीक्षाओं में 50 प्रतिशत भी नहीं मिले, लेकिन वे अरविन्दो मेडिकल काॅलेज से डाॅक्टर बन गए, जो कि एमसीआई के नियमों का सरासर उल्लंघन है। मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग, एमसीआई और निजी काॅलेज संचालकों की मिलीभगत का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि हाईकोर्ट जबलपुर बेंच ने इन तीन छात्रों के प्रवेश का तो नामजद गलत ठहराया था। चिकित्सा शिक्षा विभाग को कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। लेकिन वे डाॅक्टरों की डिग्री लेकर समाज में दुकानें खोलकर बैठे हैं। ये तो एक बानगी मात्र है। ऐसे किस्सों से डीमेट का इतिहास भरा पड़ा हुआ है। वर्ष 2006-07 में भी एक आईएएस अधिकारी का साला 12 लाख रुपए के साथ गिरफ्तार हुआ था। यह मामला दबा दिया गया। वर्तमान एसआईटी के चेयरमैन ने भी इस मामले में जांच पड़ताल की थी। उन्होंने कई अनियमितताओं की तरफ इशारा किया था, लेकिन उनकी जांच भी दबा दी गई। इसके बाद जब सुप्रीम कोर्ट में 23 सितम्बर 2011 को न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और दीपक वर्मा की बेंच ने डीमेट तथा पीएमटी में 50-50 प्रतिशत सीटें भरने का निर्णय दिया था। उस समय यह साफ कहा था कि डीमेट की परीक्षा में पारदर्शिता होनी चाहिए पर यह परीक्षा पारदर्शिता के लिए बनी ही नहीं थी। यहीं से उपरीत और तमाम गड़बड़ी करने वालों की भूमिका शुरू होती है। डीमेट की परीक्षा का विधान इस प्रकार बनाया गया है कि फर्जीवाड़े की पूरी गुंजाइश रखी गई है। न्यायिक हिरासत में जेल जाने से पहले डीमेट के कोआॅर्डिनेटर एवं कोषाध्यक्ष योगेश उपरीत ने एसटीएफ व एसआईटी को बताया था कि डीमेट का रिकार्ड तीन महीने तक ही सुरक्षित रखा जाता है और उसके बाद नष्ट कर दिया जाता है। इस परीक्षा में 100 प्रतिशत छात्रों की उत्तर पुस्तिका पर गोले काले किए जाते हैं। क्योंकि निजी मेडिकल काॅलेजों के संचालक परीक्षा से पहले डीमेट को उन छात्रों की सूची थमा देते हैं, जिनके सिलेक्शन होने होते हैं। इसी सूची के आधार पर डीमेट की रेवड़ी बांटी जाती है। भोपाल के एक नामी डाॅक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया है कि जिन छात्रों को लाखों रुपए लेकर डीमेट के द्वारा भर्ती करवाया गया वे सब पूरी की पूरी उत्तर पुस्तिका खाली छोड़कर आए थे। यह फर्जीवाड़ा वर्ष 2006 में डीमेट के गठन के बाद से ही चल रहा है। जब रिकार्ड नहीं है तो सबूत कहां से मिलेंगे। पिछले 9 साल में डीमेट के द्वारा कितने छात्रों का हक मारा गया है और कितने अयोग्य लोगों को डिग्रियां थमा दी गईं इसकी जानकारी उपरीत जैसे मोहरों को ही हो सकती है। जिन्हें आगे रखकर बिसात बिछाने वाले सफेद पोश अभी भी बंकरों मे दुबके हुए हैं। उपरीत बहुत कुछ जानते हैं लेकिन वे निजी मेडिकल काॅलेज की इस करतूत का खुलासा करेंगे इसमें संदेह ही है। फिलहाल एसआईटी ने जबलपुर के न्यूरोलाॅजिस्ट एम एस जौहरी की बेटी डाॅ. रिचा जौहरी को गिरफ्तार करने के लिए जाल बिछाया है। डाॅ. एमएस जौहरी पहले से ही गिरफ्तार हैं। उपरीत ने स्वीकार किया था कि जौहरी ने अपनी बेटी के प्रीपीजी में एडमिशन के लिए 25 लाख रुपए की रिश्वत दी थी। जौहरी के बंगले में पुरानी फाइलों में इस रिश्वतखोरी का हिसाब-किताब मिल गया। अभी गिरफ्तारियों का सिलसिला जारी है। यदि उपरीत ने पूरा सच बता दिया तो न जाने कितने चेहरे बेनकाब हो जाएंगे। देखा जाए तो मध्यप्रदेश के सभी मेडिकल काॅलेज इस जांच के दायरे में आ सकते हैं। डीमेट के सारे पदाधिकारी इस घोटाले में शामिल बताए जा रहे हैं। पिछले 9 वर्ष के दौरान गलत तरीके से प्रवेश देने वाले 5 हजार 500 छात्र जांच के दायरे में आ सकते हैं। लेकिन जो रिकार्ड नष्ट हुआ है उसे कैसे रिकवर किया जाएगा। यह एक अहम सवाल है।
इससे भी बड़ा सवाल सरकार के समक्ष उपस्थित हुआ है क्योंकि डीमेट के नियम बनाकर उसको संचालित करने की जिम्मेदारी तो सरकार की ही थी। सभी चिकित्सा शिक्षा मंत्रियों ने मेडिकल काॅलेजों की लाॅबी के दबाव के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। परीक्षा संचालन के नियम भी आज तक नहीं बन पाए हैं। परीक्षा मेें सुधार के कई सुझाव दिए गए। चाहे वह उत्तर पुस्तिका स्केन करने का मामला हो या फिर अंक सूची पर नजर रखने की बात। जब उत्तर पुस्तिका जांचने वाले कुछ परीक्षकों ने खाली उत्तर पुस्तिका को काट कर उस पर हस्ताक्षर करने शुरू कर दिए तो उसके लिए भी रास्ता निकाल लिया गया। तू डाल-डाल मैं पात-पात वाली स्थिति है। प्रीपीजी के रेट आज भी डेढ़ करोड़ से लेकर 90 लाख तक तय हैं। कुछ बदला नहीं है। बस पैसे खर्च करने हैं। यह पैसा बड़े-बड़े निजी अस्पतालों के संचालक हँसते-हँसते दे देते हैं। क्योंकि उन्हें अपना पुस्तैनी धंधा चलाना है। अगली पीढ़ी को डाॅक्टर बनाना उनकी मजबूरी है। इसीलिए जिनमें कम्पाउंडर बनने की अक्ल नहीं है वे आज की तारीख में निजी अस्पतालों के विख्यात डाॅक्टर बन बैठे हैं। दिक्कत यह है कि वर्ष 2008 में ही इस फर्जीवाड़े का पता लगने के बाद नितिन महिन्द्रा, अमित मिश्रा, पंकज त्रिवेदी, योगेश उपरीत जैसे कई महाघोटालेबाजों को पनपने का मौका दिया गया। डाॅ. जगदीश सागर ने तो निजी काॅलेजों में डीेमेट के नाम पर पैसा लेकर फर्जी जाति प्रमाण पत्र के सहारे पीएमटी में सेलेक्शन करवा दिया। त्रिवेदी बंधुओं, पंकज और पीयूष की हर जगह प्रोफेशनल शिक्षा में दखलअंदाजी है।
कविता रावत के ब्लॉग से