आज से लगभग 6 वर्ष पूर्व शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई एक्ट-2009) लागू किया गया था। यह भारत के स्कूली बच्चों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा देने के सुविचार से लागू किया गया था, किंतु इस अधिनियम में तीन बड़ी कमियां हैं, जिनके कारण इस आरटीई अधिनियम का उद्देश्य पूर्ण होता प्रतीत नहीं हो रहा है तथा देश में बालक-बालिकाओं की शिक्षा को हानि पहुंच रही है।
आज से लगभग 6 वर्ष पूर्व शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई एक्ट-2009) लागू किया गया था। यह भारत के स्कूली बच्चों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा देने के सुविचार से लागू किया गया था, किंतु इस अधिनियम में तीन बड़ी कमियां हैं, जिनके कारण इस आरटीई अधिनियम का उद्देश्य पूर्ण होता प्रतीत नहीं हो रहा है तथा देश में बालक-बालिकाओं की शिक्षा को हानि पहुंच रही है।
‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’ के नाम पर मान्यता के मानक व शर्ते पूरी न करने के कारण कई निजी विद्यालय बंद हो गए हैं, जिससे बच्चे शिक्षा पाने के अधिकार से वंचित हो रहे हैं। दूसरी बात यह कि इस अधिनियम को लागू करने का उद्देश्य यह रहा होगा कि इससे सरकारी स्कूलों के गिरते हुए शैक्षिक स्तर में सुधार आएगा, किंतु इसके विपरीत, इस अधिनिमय के लागू होने के बाद से सरकारी स्कूलों के शैक्षिक स्तर में और अधिक गिरावट दिखाई दे रही है। तीसरी बात यह कि इस अधिनियम की आड़ में निजी स्कूलांे की स्वायत्तता में भी हस्तक्षेप हो रहा है।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 को लागू करने के नाम पर जारी किए गए कई राज्य अधिनियम व सरकारी शासनादेशों में प्राइवेट स्कूलांे को मान्यता देने के लिए कई ऐसे मापदंड/मानक व शर्ते रखी गई हैं, जिन पर खरे उतरना संभव नहीं है, विशेषकर कम फीस लेने वाले प्राइवेट स्कूलों के लिए। परिणामस्वरूप कई स्कूल बंदी की कगार पर आ रहे हैं। सन् 2013 तक देश के लगभग आठ हजार प्राइवेट स्कूल इसी वजह से बंद हो गए, यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण व दुखदायी है।
कम फीस लेने वाले प्राइवेट स्कूल अक्सर सरकारी स्कूलों से बेहतर पढ़ाई-लिखाई करवाते हैं और वह भी सरकारी स्कूलों मंे प्रति-छात्र पर होने वाले खर्च से बहुत कम खर्च पर। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सरकारी स्कूलों को छोड़कर बच्चे भारी मात्रा में निजी स्कूलों की ओर प्रवेश के लिए दौड़ रहे हैं। केवल ग्रामीण भारत में ही सन 2006 में 16 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट स्कूलों में भर्ती थे, मगर सन् 2014 तक यह 31 प्रतिशत तक पहुंच गए। (शैक्षिक स्थिति की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार)
यदि देश में प्राइवेट स्कूल न होते, तो प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का सारा वित्तीय भार सरकार पर ही पड़ता, जबकि सरकारी स्कूलों में प्रति-छात्र पर खर्चा कई राज्यों में, कम फीस लेने वाले प्राइवेट स्कूलों से 20 गुना अधिक है।
सरकार प्राथमिक शिक्षा देने के मामले में काफी हद तक प्राइवेट स्कूलों पर निर्भर है। देश में करीब 50 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं (31 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में व कम से कम 80 प्रतिशत शहरी इलाके में)। अत: सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि वह प्राइवेट स्कूलों के प्रति अपना ²ष्टिकोण हितार्थ रखे, न कि एक बाधा डालने वाला रुख अपनाए।
कम फीस लेने वाले विद्यालयों को अनुदान दें जिससे उनका बुनियादी स्तर ठीक हो सके। विचार यह है कि निजी स्कूलांे को सरकारी मान्यता उनके छात्रों के सीखने की उपलब्धियों के आधार पर दी जाए, बजाय कि केवल उनके इमारत निर्माण व अन्य बुनियादी ढांचा की शर्तो को पूरा करने पर। (जैसा गुजरात सरकार ने किया है)
आरटीई अधिनियम-2009 के लागू होने के बाद सरकारी स्कूलांे की गिरती हुई व्यवस्था को सुधारने में कोई मदद नहीं मिली है। आरटीई एक्ट का सबसे ज्यादा ध्यान इस पर है कि स्कूलों को सुधारने के लिए उनका भौतिक स्वरूप (इन्फ्रास्ट्रक्च र) अच्छा किया जाए। हालांकि यह विचार अपने आप में जरूर काबिले तारीफ है, परंतु शोध इस बात का समर्थन नहीं करता है कि मूलभूत सुविधाएं दे देने से ही सीखने-सिखाने के परिणामों व उपलब्धियों में कोई विशेष पर्वितन आएगा।
वैसे भी आरटीई एक्ट के सेक्शन 18 में सरकारी व सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों को इस भौतिक स्वरूप के मानदंडों को पूरा करने से छूट प्राप्त है।
यह अधिनिमय उन विषयों पर मौन हैं जो वास्तव में महत्व रखते हैं- जैसे अध्यापक की मेहनत, अध्यापकों की जवाबदेही, व छात्रों की पढ़ाई लिखाई का स्तर। यह दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि बाल शिक्षा के स्तर में प्रगति तो दूर, इस अधिनियम के लागू होने के पांच वर्षो के बाद भी हर साल शैक्षिक स्तर निरंतर गिरा है। (वार्षिक ‘असर’ रिपोर्ट के अनुसार) सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार लाना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि यदि प्राइवेट स्कूलों की 100 प्रतिशत सीटें भी गरीब बच्चों को दे दी जाएं, तब भी सरकारी स्कूलों को करोड़ों गरीब बच्चों को शिक्षा प्रदान करनी होगी।
हालांकि शिक्षकों की जवाबदेही व बालकों की शैक्षिक उपलब्धियां दोनों आसान काम नहीं है, किंतु यही सबसे जरूरी चीजें हैं, जिनसे सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती।
यदि बच्चे स्कूल जाते हैं, परंतु वहां सीखते कुछ भी नहीं, ऐसी शिक्षा उद्देश्यहीन है और इसका मतलब है कि करोड़ों भारतीय बच्चों के जीवन में अंधकार। शिक्षा में गुणवत्ता कम होने की वजह से समाजिक व आर्थिक दृष्टि से देश के विकास की गति धीमी हो सकती है, जिसके परिणाम भयावह होंगे।
एक नया गुणात्मक शिक्षा का अधिनियम तुरंत लागू किया जाना चाहिए, जिसकी परम आवश्यकता है। इसे साक्ष्यों पर आधरित बालकों के सीखने के स्तर पर अध्यापकों की जवाबदेही व प्राइवेट स्कूलों से सकारात्मक शिक्षा का कार्य पब्लिक-पार्टनरशिप में कार्यान्वित करना चाहिए। (आईएएनएस/आईपीएन)