नई दिल्ली- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कालखंड में समाज सुधार के भी कई कार्य हुए, जो आंदोलन में शामिल सेनानियों के प्रयास से ही संभव हो पाए। उन समाज सुधारकों में शिक्षा शास्त्री ईश्वरचंद विद्यासागर भी एक थे। ईश्वरचंद का जन्म 26 सितंबर 1820 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले में एक साधारण गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुरदास बंद्योपाध्याय और माता भगवती देवी थीं। वह जब छह साल के थे, तभी उनका परिवार कलकत्ता (अब कोलकाता) आ गया। वे कुशाग्र बुद्धि के थे और कोई भी चीज बहुत जल्द सीख जाते थे। उनकी मेधा का ही असर था कि उन्हें विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियां मिलीं और उच्चकोटि के विद्वान होने के कारण उन्हें ‘विद्यासागर’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
ईश्वरचंद ने समाज सुधार के कई कार्य किए। वे गरीबों व दलितों के संरक्षक माने जाते थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह पर जोर दिया था। मेट्रोपोलिटन स्कूल सहित कई महिला विद्यालयों की स्थापना उन्होंने ही करवाई और वर्ष 1848 में बांग्ला की प्रथम गद्य रचना ‘वैताल पंचविशति’ का प्रकाशन भी किया।
वर्ष 1839 में उन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी की, लेकिन परिवार का आर्थिक संबल बनने के लिए महज 21 वर्ष की अवस्था में उन्होंने फोर्ट विलियम कॉलेज में संस्कृत का अध्यापन शुरू किया।
पांच वर्ष तक फोर्ट विलियम कॉलेज में अध्यापन के बाद जब उन्होंने कॉलेज छोड़ा तब वह संस्कृत कॉलेज में सहायक सचिव नियुक्त हुए। पहले ही वर्ष उन्होंने शिक्षा सुधार पर अपनी रिपोर्ट शासन को सौंप दी, जिससे तत्कालीन सचिव रासोमय दत्ता के साथ उनका तकरार हुआ और उन्हें पद त्यागने पर मजबूर होना पड़ा।
नैतिक मूल्यों के संरक्षक और शिक्षाविद् विद्यासागर का मानना था कि अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के ज्ञान का समन्वय करके ही भारतीय और पाश्चत्य परंपराओं के श्रेष्ठ को हासिल किया जा सकता है।
ईश्वरचंद बेहद संवेदनशील और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आग्रही थे। उनसे जुड़े दो रोचक प्रसंगों के जरिए उनकी इस भावना को समझा जा सकता है।
जब वह संस्कृत कॉलेज के आचार्य थे, तब प्रेसिडेंसी कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल केर से मिलने गए। जिस समय उन्होंने कमरे में प्रवेश किया, केर अपने पांव मेज पर रखे आराम से बैठे रहे। उन्होंने विद्यासागर का लिहाज नहीं किया। वह केर से बात किए बिना लौट गए। इस घटना के कुछ ही दिनों बाद केर भी किसी काम से संस्कृत कालेज पहुंचे तो विद्यासागर ने भी चप्पलों के साथ अपने पैर मेज पर रख लिए और केर को बैठने तक के लिए नहीं कहा। इस तरह उन्होंने अपमान का बदला लिया।
नाराज केर ने शिक्षा सचिव डॉ. मुआट से शिकायत कर दी। डॉ. मुआट ने जब विद्यासागर से इस तरह के व्यवहार का कारण पूछा तो उन्होंने बड़ी सहजता से उत्तर दिया, “हम हिंदुस्तानी यूरोपीय समुदाय से ही शिष्टाचार सीखते हैं। जब मैं इनके पास पहुंचा था तब उन्होंने कुछ ऐसा ही किया था सो मैंने इसे यूरोपीय शिष्टाचार समझा।” यह सुनकर केर लज्जित हो गए और उन्होंने विद्यासागर से माफी मांग ली।
विद्यासागर के बारे में एक दूसरा प्रसंग उनकी सहृदयता को दर्शाता है। उन दिनों बंगाल और बिहार में नील की खेती के लिए विवश किसानों पर अत्याचार चरम पर था। पश्चिम बंगाल में युवकों की एक नाटक मंडली इस अत्याचार के खिलाफ जगह-जगह नाटकों का मंचन कर लोगों को सजग करने में जुटी थी। ऐसर ही एक नाटक देखने विद्यासागर भी पहुंचे। नाटक में अंग्रेज की भूमिका एक युवक निभा रहा था। उसका अभिनय इतना जीवंत था कि विद्यासागर नाटक को हकीकत समझ अपना आपा खो बैठे और उन्होंने अपनी चप्पल उसकी ओर उछाल दी। सभागार में हंगामा मच गया मगर वह अभिनेता दौड़कर आया और विद्यासागर के चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा, “आज मेरा जीवन धन्य हो गया। मुझे आज जो पुरस्कार मिला है वह अमूल्य है।”
बंगभूमि के इस महान विभूति का निधन 29 जुलाई 1891 को हो गया।