हजारों वर्षों से वैद्य रत्नों की भस्म और हकीम रत्नों की षिष्टि प्रयोग में ला रहे हैं। माणिक्य भस्म शरीर मे उष्णता और जलन दूर करती है। यह रक्तवर्धक और वायुनाशक है। उदर शूल, चक्षु रोग और कोष्ठबद्धता में भी इसका प्रयोग होता है और इसकी भस्म नपुंसकता को नष्ट करती है। कैल्शियम की कमी के कारण उत्पन्न रोगों में मोती बहुत लाभकारी होता है। मुक्ता भस्म से क्षयरोग, पुराना ज्वर, खांसी, श्वास-कष्ट, रक्तचाप, हृदयरोग में लाभ मिलता है। मूंगे को केवड़े में घिसकर गर्भवती के पेट पर लेप लगाने से गिरता हुआ गर्भ रुक जाता है। मूंगे को गुलाब जल में बारीक पीसकर छाया में सुखाकर शहद के साथ सेवन करने से शरीर पुष्ट बनता है। खांसी, अग्निमांद्य, पांडुरोग की उत्कृष्ट औषधि है।
पन्ना, गुलाब जल या केवड़े के जल में घोटकर उपयोग में आता है। यह मूत्र रोग, रक्त व्याधि और हृदय रोग में लाभदायक है। पन्ने की भस्म ठंडी मेदवर्धक है, भूख बढ़ाती है, दमा, मिचली, वमन, अजीर्ण, बवासीर, पांडु रोग में लाभदायक है। श्वेत पुखराज को गुलाबजल या केवड़े में 25 दिन तक घोटा जाए और जब यह काजल की तरह पिस जाए तो इसे छाया में सुखा लें। यह पीलिया, आमवात, खांसी, श्वास कष्ट, बवासीर आदि रोगों में लाभकारी सिद्ध होता है।
श्वेत पुखराज की भस्म विष और विषाक्त कीटाणुओं की ािढया को नष्ट करती है। हीरे की भस्म से क्षयरोग, जलोदर, मधुमेह, भगंदर, रक्ताल्पता, सूजन आदि रोग दूर होते हैं। हीरे में वीर्य बढ़ाने की शक्ति है। पांडु, जलोदर, नपुंसकता रोगों में विशेष लाभकारी सिद्ध होती है। रसराज समुच्चय के अनुसार, हीरे में विशेष गुण यह है कि रोगी यदि जीवन की अंतिम सांस ले रहा हो, ऐसी अवस्था में हीरे की भस्म की एक खुराक से चैतन्यता आ जाती है। कुछ पुराणों का मत है कि दैत्यराज बलि का वध करने के लिए भगवान त्रिलोकीनाथ ने वामन-अवतार धारण किया और उसके गर्व को चूर किया।
इस समय भगवान के चरण स्पर्श से दैत्यराज बलि का सारा शरीर रत्नों का बन गया, तब देवराज इंद्र में उस पर वज्र की चोट की, इस प्रकार टूट कर बिखरे हुए बलि के रत्नमय खंडों को भगवान शिव ने अपने त्रिशूल में धारण कर लिया और उसमें नवग्रह और बारह राशियों के प्रभुत्व का आधार करके पृथ्वी पर गिरा दिया। पृथ्वी पर गिराए गए इन खंडों से ही विभिन्न रत्नों की खानें पृथ्वी के गर्भ में बन गईं।
रत्नों की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य कथा भी ग्रंथों में आती है। देवता और दैत्यों ने समुद्र मंथन किया तो 14 रत्न पदार्थ निकले। उसमें लक्ष्मी, उच्चैश्रवा, ऐरावत आदि के कौस्तुभ मणि को अपने कंठ में धारण कर लिया। इससे निकले अमृत को लेकर देव और दानवों में संघर्ष हुआ। अमृत का स्वर्ण कलश असुरराज लेकर भाग खड़े हुए।
कहते हैं कि इस छीना-झपटी में अमृत की कुछ बूंदें जहां-जहां गिरीं वहां सूर्य की किरणों द्वारा सूखकर वे अमृतकण प्रकृति की रज में मिश्रित होकर विविध प्रकार के रत्नों में परिवर्तित हो गए। रत्न चौरासी माने गए हैं। नौ प्रमुख रत्न तथा शेष उपरत्न माने जाते हैं। इन नौ प्रमुख रत्नों का नवग्रहों से संबंध माना जाता है। सूर्य- माणिक्य, चन्द्रमा-मोती, मंगल- मूंगा, बुध- पन्ना, बृहस्पति- पुखराज, पा- हीरा, शनि- नीलम, राहु- गोमेद, केतु- लहसुनिया।
पुराणों में कुछ ऐसे मणि रत्नों का वर्णन भी पाया जाता है, जो पृथ्वी पर पाए नहीं जाते। ऐसा माना जाता है कि चिंतामणि को स्वयं ब्रह्माजी धारण करते हैं। कौस्तुभ मणि को नारायण धारण करते हैं। रुद्रमणि को भगवान शंकर धारण करते हैं। स्यमंतक मणि को इंद्र देव धारण करते हैं। पाताल लोक भी मणियों की आभा से हर समय प्रकाशित रहता है। इन सब मणियों पर सर्पराज वासुकी का अधिकार रहता है। प्रमुख मणियां 9 मानी जाती हैं- घृत मणि, तैल मणि, भीष्मक मणि, उपलक मणि, स्फटिक मणि, पारस मणि, उलूक मणि, लाजावर्त मणि, मासर मणि। इन मणियों के संबंध में कई बातें प्रचलित हैं। घृतमणि की माला धारण कराने से बच्चों को नजर से बचाया जा सकता है। इस मणि को धारण करने से कभी भी लक्ष्मी नहीं रूठती। तैल मणि को धारण करने से बल-पौरुष की वृद्ध होती है। भीष्मक मणि धन-धान्य वृद्धि में सहायक है।
उपलक मणि को धारण करने वाला व्यक्ति भक्ति व योग को प्राप्त करता है। उलूक मणि को धारण करने से नेत्र रोग दूर हो जाते हैं। लाजावर्त मणि को धारण करने से बुद्धि में वृद्धि होती है। मासर मणि को धारण करने से पानी और अग्नि का प्रभाव कम होता है। कुछ रत्न बहुत ही उत्कट प्रभाव वाले होते है। कारण यह है कि इनके अंदर उग्र विकिरण क्षमता होती है। अत इन्हें पहनने से पहले इनका रासायनिक परिक्षण आवश्यक है। जैसे- हीरा, नीलम, लहसुनिया, मकरंद, वज्रनख आदि। यदि यह नग तराश (म्ल्त्tल्rाd)दिए गए हैं, तो इनकी विकिरण क्षमता का नाश हो जाता है। ये प्रतिष्ठापरक वस्तु (स्टेट्स सिंबल) या सौंदर्य प्रसाधन की वस्तु बन कर रह जाते हैं। इनका रासायनिक या ज्योतिषीय प्रभाव विनष्ट हो जाता है। कुछ परिस्थितियों में ये भयंकर हानि का कारण बन जाते हैं। जैसे- यदि तराशा हुआ हीरा किसी ने धारण किया है तथा पुंडली में पांचवें, नौवें या लग्न में गुरु का संबंध किसी भी तरह से राहु से होता है, तो उसकी संतान कुल परंपरा से दूर मान-मर्यादा एवं अपनी वंश-कुल की इज्जत डुबाने वाली व्यभिचारिणी हो जाएगी।
दूसरी बात यह कि किसी भी रत्न को पहनने के पहले उसे जागृत अवश्य कर लेना चाहिए। अन्यथा वह प्राकृत अवस्था में ही पड़ा रह जाता है व निपिय अवस्था में उसका कोई प्रभाव नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए पुखराज को लेते हैं। पुखराज को मकोय (एक पौधा), सिसवन, दिथोहरी, अकवना, तुलसी एवं पलोर के पत्तों को पीस कर उसे उनके सामूहिक वजन के तीन गुना पानी में उबालिए। जब पानी लगभग सूख जाए तो उसे आग से नीचे उतारिए। आधे घंटे में उसके पेंदे में थोड़ा पानी एकत्र हो जाएगा। उस पानी को शुद्ध गाय के दूध में मिला दीजिए। जितना पानी उसके लगभग चौगुना दूध होना चाहिए। उस दूधयुक्त घोल में पुखराज को डाल दीजिए। हर तीन मिनट पर उसे किसी लकड़ी के चम्मच से बाहर निकाल कर तथा उसे पूंक मार कर सुखाइए और फिर उसी घोल में डालिए। आठ-दस बार करने से पुखराज नग के विकिरण के ऊपर लगा आवरण समाप्त हो जाता है तथा वह पुखराज सािढय हो जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक नग या रत्न को जागृत करने की अलग विधि है। रत्नों के प्रभाव को प्रकट करने के लिए सािढय किया जाता है।