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Monday , 25 November 2024

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योग : सर्वागीण विकास की कुंजी

सुरेश चंद्र त्यागी

सुरेश चंद्र त्यागी

योग के विषय में यह भ्रामक धारणा लंबे समय तक रही है कि योग-विज्ञान कोई गूढ़ विद्या है और इसका संबंध उन लोगों से है जो दुनिया से कोई संपर्क नहीं रखते या नहीं रखना चाहते। हो सकता है कि यौगिक साधनाओं के बारे में कभी गोपनीयता आवश्यक समझी जाती रही हो। लगभग एक शताब्दी पूर्व श्रीअरविंद ने घोषणा की थी कि योग-विज्ञान में कुछ भी रहस्यमय और गूढ़ नहीं है।

उनके विचार से योग मानवीय मनोविज्ञान के कुछ नियमों पर आधारित है। यह इस ज्ञान पर आधारित है कि शरीर पर मन का और मन पर अंतरात्मा का नियंत्रण है तथा इस ज्ञान का दुरुपयोग न हो, इसलिए प्रशिक्षित जनों को ही यह प्रदान किया जाना चाहिए।

योग-साधना से अर्जित शक्तियों के दुरुपयोग की आशंका को ध्यान में रखते हुए यह अनिवार्य मान लिया गया था कि नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रशिक्षण के बाद ही योगाभ्यासी को योग-पथ पर अग्रसर होना चाहिए। ऐसे आध्यात्मिक महापुरुषों की लंबी परंपरा रही है, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत साधना और भगवत्कृपा से प्राप्त योग-विज्ञान को मानव-जाति के कल्याण के लिए प्रकट किया है।

आज के नवीन युग में इस धारणा में बदलाव की जरूरत है कि जो दीक्षा प्राप्त कर ले, उसे ही योग के बारे में जानने का अधिकार है या उसी में योग का ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है। श्रीअरविंद की वाणी है – “समय आ पहुंचा है कि भारत अब अपने प्रकाश को अपने तक सीमित नहीं रख सकता; उसे यह प्रकाश संसार पर उंडेल देना चाहिए। योग मानव-जाति के लिए प्रकट किया जाना चाहिए क्योंकि योग के बिना मानव-जाति मानवीय विकास में अलग कदम नहीं उठा सकती।”

विश्व के कोने-कोने में फैल रहे योग के प्रकाश के संदर्भ में श्रीअरविंद की उपर्युक्त वाणी का स्मरण महायोगी की भविष्यवाणी ²ष्टि का प्रमाण है। विभिन्न देशों द्वारा प्रतिवर्ष योग-दिवस मनाने का संकल्प योग-विज्ञान के प्रति निरंतर बढ़ रहे रुझान का ही नहीं, योग के माध्यम से भारत की आध्यात्मिक परंपरा की स्वीकृति का भी प्रमाण है।

जगद्गुरु होना भारत की नियति है और इस लक्ष्य की सिद्धि मात्र भौतिक समृद्धि से संभव नहीं है। हम अप्रतिम आध्यात्मिक सम्पदा के स्वामी हैं। आध्यात्मिक ज्योति से स्वयं प्रकाशित होना और जगत को आलोकित करना हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है।

विश्व में योग के प्रचार-प्रसार की वेगवती धारा हम भारतीयों को गौरवान्वित करती है, लेकिन योग के बारे में एक भ्रांत धारणा को निर्मूल करना अनिवार्य है। कुछ शारीरिक कसरतों और प्राणायाम की कतिपय क्रियाओं को ही योग समझकर ‘योगी’ बन जाने का भ्रम साधन को साध्य मान लेने का मिथ्याभिमान है।

श्रीअरविंद ने लिखा है – “प्राणायाम और आसन, एकाग्रता, उपासना, धर्मानुष्ठान, धार्मिक प्रथा-ये स्वयं में योग नहीं हैं, बल्कि ये योग के साधन मात्र हैं। योग कठिन या खतरनाक नहीं है; यह उन सभी के लिए निरापद और सरल है जो अंतर में विराजमान मार्ग-दर्शक एवं गुरु की शरण में जाते हैं।”

केवल देह को पुष्ट बना लेना, केवल प्राणिक कामनाओं-वासनाओं की पूर्ति, केवल मन की संतुष्टि योग का लक्ष्य नहीं है। मानवीय चेतना के विकास को गति देने के लिए योग अपरिहार्य है। यहां योग की परिभाषाओं की समीक्षा का अवकाश नहीं है। योग निरंतर चलने वाली सचेतन प्रक्रिया है।

उच्चतर चेतना की ओर बढ़ना, शरीर से प्राण, मन और आत्मा की ओर प्रयाण का पथ योग है। योग भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का प्राण तत्व है। भागवत कृपा के अनवरत प्रवाह को प्राप्त करने के लिए सारा विश्व भारत के उत्थान की प्रतीक्षा कर रहा है। योग-दिवस मानव-जाति की एकाग्र अभीप्सा की अभीव्यक्ति का अवसर है। हमें इस स्वर्णिम अवसर का सदुपयोग करना चाहिए। (आईएएनएस/आईपीएन)

(लेखक पुदुच्चेरी स्थित श्रीअरविंद सोसायटी के कोर ग्रुप सदस्य हैं)

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