ऊशा उपाध्याय
ऊशा उपाध्याय
मानव जीवन की भूमिका बचपन है तो वृद्धावस्था उपसंहार है। युवावस्था जीवन की सर्वाधिक मादक व ऊर्जावान अवस्था होती है। इस अवस्था में किसी किशोर या किशोरी को उचित अनुचित का भलीभांति ज्ञान नहीं हो पाता है और शनै: शनै: यह मानसिक तनाव का कारण बनता है।
मानसिक तनाव का अर्थ है मन संबंधी द्वंद्व की स्थिति। आज का किशोर, युवावस्था में कदम रखते ही मानसिक तनाव से घिर जाता है। आंखों में सुनहरे सपने होते हैं, लेकिन जमाने की ठोकर उन सपनों को साकार होने से पूर्व ही तोड़ देती है। युवा बनना कुछ चाहते हैं पर कुछ पर विवश हो जाते हैं। यहीं से मानसिक तनाव की शुरुआत होती है।
युवा उच्च शिक्षा प्राप्त करके डॉक्टर, इंजीनियर बनकर धनोपार्जन कर सुख-सुविधा युक्त जीवन निर्वाह करना चाहते हैं, परंतु जब उनका उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता तो उनका मन असंतुष्ट हो उठता है और मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाता है। शिक्षा से प्राप्त उपलब्धियां उन्हें निर्थक प्रतीत होती हैं।
वर्तमान युग में लड़का हो या लड़की, सभी स्वावलंबी होना चाहते हैं, मगर बेरोजगारी की समस्या हर वर्ग के लिए अभिशाप सा बन चुकी है। मध्यम वर्ग के लिए तो यह स्थिति अत्यंत कष्टदायी होती है। जब इस प्रकार की स्थिति हो जाती है तो जीवन में आए तनाव से मुक्ति पाने के लिए वे आत्महत्या जैसे कदम उठाने को बाध्य हो जाते हैं। महिलाओं की स्थिति तो पुरुषों की तुलना में ज्यादा ही खतरनाक है।
वर्ष 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की तकरीबन 57 फीसद महिलाएं मानसिक विकारों की शिकार बनीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े पर गौर करें तो हम पाते हैं कि हर पांच में एक महिला और हर 12 में एक पुरुष मानसिक व्याधि का शिकार है। देश में लगभग 50 प्रतिशत लोग किसी न किसी गंभीर मानसिक विकार से जूझ रहे हैं। सामान्य मानसिक विकार के मामले में तो आंकड़ा और भी भयावह है। इनमें महिलाओं के आंकड़े सबसे अधिक हैं।
‘जिंदगी जब मायूस होती है तभी महसूस होती है.’ फिल्म ‘डर्टी पिक्च र’ का यह संवाद उस नायिका की व्यथा है जो रुपहले परदे पर चमकने के सपने लिए ग्लैमर की दुनिया में आती है और हर तरह के समझौते करते हुए अपने को स्थापित भी कर लेती है। पर चकाचैंध भरी इस दुनिया में शोषित होते हुए शिखर पर पहुंचने के बाद अंतत: इतनी अकेली हो जाती है कि आत्महत्या कर लेती है।
बहरहाल, दीपिका का यह खुलासा एक बार फिर सोचने को मजबूर करता है कि सिने जगत के कई चेहरों के असल जीवन में अंधेरा क्यों होता है? उनके यहां क्यों संबंधों के अर्थपूर्ण भाव जिन्हें हम आस्था, समर्पण और विश्वास कहते हैं, निर्वासित रहते हैं। क्यों ग्लैमर के आसमान में उड़ने वाले अधिसंख्य सितारों को रिश्तों की पवित्रता और जीवन की चेतना ढूंढे नहीं मिल पाती।
हमारा पारिवारिक और सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि मानसिक अवसाद या तनाव को बीमारी नहीं माना जाता, जबकि अवसाद जैसी समस्या को स्वीकारना और उसका हल खोजना छुपाने वाली बात नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट की मानें तो भारत अवसाद के मरीजों के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में से शुमार है। यहां तकरीबन 36 फीसद लोग गंभीर अवसाद से ग्रस्त हैं।
आमतौर पर माना जाता है कि गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और असफलता जैसी समस्याओं से जूझने वाले युवा अवसाद और तनाव झेलते हैं और इसके चलते आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं। ऐसे में कुछ समय पहले आये एक सर्वे के परिणाम थोड़ा हैरान करने वाले हैं।
इस शोध के मुताबिक, उत्तर भारत के बजाय दक्षिण भारत में आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या अधिक है। आत्महत्या से होने वाली मौतों में 40 फीसद अकेले चार बड़े दक्षिणी राज्यों में होती है। यह बात किसी से छिपी ही नहीं है कि शिक्षा का प्रतिशत दक्षिण में उत्तर से कहीं ज्यादा है। वहां रोजगार के भी बेहतर विकल्प रहे हैं, बावजूद इसके यहां तनाव और अवसाद के चलते आत्महत्या जैसे समाचार सुर्खियां बनते हैं। इनमें बड़ा प्रतिशत ऐसे युवाओं का है जो सफल हैं, शिक्षित हैं और धन दौलत तो इस पीढ़ी ने उम्र से पहले ही बटोर ली है।
मौजूदा दौर में समाज में आगे बढ़ने और सफल होने के जो मापदंड हैं, वे सिर्फ आर्थिक सफलता को ही सफलता मानते हैं। यह बात फिल्म से लेकर कारपोरेट वल्र्ड और सामान्य जन तक बर बराबर लागू होती है। पढ़ाई मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने का जरिया भर बन कर रह गई। इस दौड़ में शामिल युवा परिवार व समाज से दूर होते जा रहे हैं। उनके जीवन में न रचनात्मकता बची है और न आपसी लगाव का कोई स्थान रहा है, परिणाम सामने है।
आज जिस आयु वर्ग के युवा तनाव व अवसाद झेल रहे हैं, वे परिवार और समाज के सपोर्ट सिस्टम से दूर ही रहे हैं। इस पीढ़ी का लंबा समय घर से दूर पढ़ाई में बीतता है और नौकरी के लिए भी उन्हें परिवार से दूर रहना पड़ता है। युवा घर से दूर रहकर करियर के शिखर पर तो पहुंच जाते हैं, पर मन और जीवन दोनों सूनापन लिए होता है।
उम्र के इस पड़ाव पर उनके पास भौतिक स्तर पर सब कुछ पा लेने का सुख तो है पर कुछ छूट जाने की टीस भी है। कभी-कभी यही अवसाद और अकेलापन असहनीय हो जाता है तो वे जाने-अनजाने जीवन के अंत की राह चुन लेते हैं या बीमारी में इतना घिर जाते हैं कि सुध-बुध खो जाती है। अवसाद के बढ़ते आंकड़े सोचने को विवश करते हैं कि क्या यह पीढ़ी इतना आगे बढ़ गयी है कि जीवन पीछे छूट गया है?
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लांसेट का सर्वे कहता है कि भारत में आत्महत्या युवाओं की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। आत्महत्या जैसा कदम उठाने की सबसे बड़ी वजह है अवसाद है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 2020 तक मौत का सबसे बड़ा कारण अपंगता व अवसाद होगा। जिस युवा पीढ़ी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए है, उसका यूं उलझना समाज व राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।
इन मानसिक तनावांे से मुक्ति का सबसे महत्वपूर्ण उपाय उसका अपना विवेक है। संस्कारवान शिक्षा दीक्षा तथा नैतिकता के माध्यम से उसका रास्ता प्रशस्त होता है। इसके लिए दृढ़संकल्प, अदम्य साहस, अथक परिश्रम, धैर्य, यथार्थ को ज्ञान, सहनशीलता और सबसे अधिक स्वावलंबन, आत्म निर्णय एवं आत्मविश्वास की भी आवश्यकता होती है। यह जीवन एक साधना है। इसे आप एक नियमित दिनचर्या बनाकर, एक उद्देश्य को सामने रख कर जिएं। अपने अंदर अच्छे गुण पैदा करें। पुण्य कार्य करें।
धर्म के रास्ते पर चलते हुए अपने दुख के दिनों को धीरज के रास्ते बीतते हुए देखें। जीवन अवधि, सुख-दुख, धन, विद्या मनुष्य के जन्म से पहले ही निश्चित होता है। इसलिए न तो इनके बारे में चिंता करनी चाहिए और न भटकना चाहिए। फिर भी सब कुछ भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ देना चाहिए।
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ को ध्यान में रखते हुए सदा कर्म करते रहना चाहिए। परेशानियों को हमेशा सबक की तरह लें, प्रकृति आपको सिखाना चाहती है। परीक्षा लेती है। कितने खरे उतरते हो। इस रोल के लिए आपको चुना गया है। आप चाहें तो टूटकर बिखर जाएं, आप चाहें तो निखर जाएं। अपनी ऊर्जा को सही दिशा दें। जब आप इस अहसास से भरे होंगे कि आपके आस-पास इतने सारे लोग, सब उस सर्व-शक्तिमान के अंश हैं, सिर्फ शरीर रूपी आवरण की वजह से भटके हुए हैं। तब आप किसी के साथ अन्याय नहीं कर पायेंगे।
मन की नकेल अपने हाथ रखिए, चिंता और डर को हावी न होने दें। भाव और बुद्धि का सामंजस्य बिठाते हुए चलें। भाव के बिना सब नीरस है, बुद्धि के बिना सब आफत है। जो छूट गया है, जिसका आप दुख मना रहे हैं, चाहे वह महत्वाकांक्षाएं थीं या इच्छाएं, सुख-सुविधाएं या बड़े प्रिय अपने या मान-सम्मान या फिर सपने; वह तो महज बैसाखियां थीं जो आपने अपने जीने के लिए सहारे या कहिये बहाने की तरह खोज लिए थे।
आप अपने सहारे या अपने नूर के साथ चले ही कहां? आपने अपनी दुनिया भी इतनी सीमित कर ली थी, जरा अपनी दुनिया का दायरा बड़ा कीजिए, दूसरों का दुख नजर आएगा तो अपना दुख छोटा नजर आएगा। सकारात्मक चिंतन ही सही दिशा दे सकता है। जिंदगी एक तपस्या है, जीवन को साधकर एक साधक की तरह जिएं। प्रत्येक युवा वर्ग को इन पंक्तियों पर अमल करते हुए आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए।
“मत सोच बढ़ चल तू अभय, ले बाहु में उत्साह बल।
जीवन समर के सैनिकों, संभव असंभव को करो।
पथ-पथ निमंत्रण दे रहा, आगे कदम, आगे कदम।
पल-पल समर, नूतन सुमन, शैया न देगा लौटने तुझे।
आराम संभव है नहीं, जीवन सतत संग्राम है।।” (आईएएनएस/आईपीएन)