यज्ञ हमारी संस्कृति का मूलाधार है। जिस प्रकार जीवन का आधार जल होता है उसी प्रकार समस्त शुभ कर्मो का आधार यज्ञ होता है। इसे अग्निहोत्र भी कहते हैं। अग्निहोत्र दो शब्दों के योग से बना है अग्नि और होत्र। जिस कर्म में हम श्रद्धापूर्वक एक निर्धारित विधि के अनुसार मंत्र पाठ सहित आहुति देते हैं उसे अग्निहोत्र कहते हैं। यह अग्निहोत्र चारों आश्रमों में करना आवश्यक है। ब्रंाचर्य आश्रम में भी यज्ञ आवश्यक है। गृहस्थों के लिए महर्षि मनु ने पंचमहायज्ञ (ब्रहृमयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ) अनिवार्य बताए हैं। महर्षि मनु ने कहा है कि किसी भी स्थिति में इन्हें छोड़ना नहीं चाहिए। इसी तरह वानप्रस्थी के लिए भी यज्ञ आवश्यक है। संन्यासी के लिए भौतिक यज्ञ की प्रधानता तो नहीं है, किंतु आत्मिक यज्ञ संन्यासी को भी करना होता है। इन पांच महायज्ञों में अन्य यज्ञ तो समाप्त हो जाते हैं, किंतु देवयज्ञ कभी समाप्त नहीं होता।
आज समस्त भूमंडल में वायु, जल और ध्वनि आदि प्रदूषण व्याप्त हैं। यज्ञ वायुशोधन की एक पद्धति है। वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि यज्ञ से वातावरण शुद्ध होता है। इसीलिए वायु प्रदूषण की समस्या का वैज्ञानिक समाधान अग्निहोत्र या यज्ञ है। यज्ञ को अब वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में भी मान्यता मिल रही है। सच तो यह है कि यज्ञ एक बहुप्रयोजनीय विद्या है, जिससे अनेक प्रयोजनों की सिद्धि संभव है। इसीलिए इसे कामधेनु भी कहा गया है, जिसके द्वारा यजमान के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं इसलिए अग्निहोत्र नित्य प्रात: और सायंकाल संपन्न किया जाने वाला पावन कर्म है। स्वस्थ, संतुलित व सुखमय जीवन के लिए यज्ञ एक कल्याणकारी कर्म है। हम भोजन और पानी के बिना कुछ दिनों तक रह भी लें, परंतु प्राणवायु के बिना जीवन का अस्तित्व संभव नहीं है। हानिकारक गैसों की अधिकता से वायु विषाक्त होती जा रही है। इस स्थिति में वायुशोधन के लिए यज्ञ की महत्ता बढ़ जाती है। एक धर्मग्रंथ में कहा गया है, यदि आप स्वर्ग की चाहत रखते हैं तो यज्ञ भगवान की शरण में जाना चाहिए। यही यज्ञ संस्कृति है।