बौद्ध धर्म की बुनियाद शांति और अहिंसा से हुई. भिक्षुओं को देख कर मन में सहसा शांति का आभास होता है. लेकिन हाल के दिनों में श्रीलंका और म्यांमार की वजह से बौद्धों की छवि बदली है. आखिर क्यों हिंसक होते जा रहे हैं. बौद्ध.
भारत की एक प्रमुख अंग्रेजी पत्रिका में बौद्धों पर आकर्षक फोटो फीचर देखते हुए आज के हालात पर सहसा कुछ सवाल मन में उठने लगे. फोटो फीचर केंद्रित है ठीक पड़ोस में बसे देश श्रीलंका के बौद्ध मठों, स्तूपों, स्मारकों, खंडहरों, भित्ति चित्रों, म्यूरलों और शिल्पों पर. यानी ये कुछ पन्ने श्रीलंका मे बौद्ध विचार और धर्म की स्थापना और इतिहास की झांकी दिखाते हैं. उस बौद्ध धर्म की झांकी, जो करुणा, प्रेम, अहिंसा और शांति का महान पैरोकार दर्शन है.
फिर ध्यान भटककर हाल की बौद्ध हिंसा पर चला जाता है. कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि बुद्ध के अनुयायी, जीवन की निस्सारता के अध्येता वे विनम्र कोमल भिक्षु, चरमपंथी और अतिवादी नफरत से भरे और खून के प्यासे बर्बरों में बदलते जा रहे हैं.
शांति के साधक गौतम बुद्ध
वे क्यों अपने ही देश के अल्पसंख्यक मुसलमानों का खून बहा रहे हैं उनके धर्मस्थल तोड़ रहे हैं उनके घरों को जला रहे हैं और दशकों से उनके खिलाफ बाकायदा अभियान चलाए हुए हैं. श्रीलंका में इस मुस्लिम विरोधी बौद्ध हिंसा पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी क्यों खामोश है. क्या ये सिर्फ अध्ययन और शोध का विषय है, कुछ इस हिंसा को काबू करने का नहीं. क्या वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति की दलील के आवरण में इस संहार को ढांप दें.
म्यांमार में निशाना
भारतीय उपमहाद्वीप में ही बंगाल की खाड़ी के ऊपर और भारत के पूर्वोत्तर से जुड़े म्यांमार (बर्मा) में बौद्ध चरमपंथ फिर से सिर उठाने लगा है और वहां के रोहिंग्या मुसलमानों का कत्लेआम हो रहा है. 1995 से मुसलमानों के खिलाफ बाकायदा योजनाबद्ध हमले बढ़े हैं और रह रह कर उन्हें जमीन और जिंदगी से बेदखल किया जाता रहा है (कुछ जानकार कहते हैं कि अफगानिस्तान में बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमाओं पर तालिबानी हमलों ने कुछ बौद्ध संप्रदायों को भड़काया है और उसका बदला वे इस तरह भी ले रहे हो सकते हैं. जैसा कि म्यांमार में दिखता है.) बौद्धों के म्यांमार और श्रीलंकाई वर्गों की ये नफरत अस्वाभाविक है. वे महात्मा बुद्ध के क्षमा के मूल्य की उपासना तो करते हैं लेकिन लगता है उसे धारण नहीं करते हैं.
म्यमांर के परेशान रोंहिग्या
हर तरफ के बहुसंख्यकों को ये क्या हो गया है. क्या ये बहुसंख्यकवाद वर्चस्व और ताकत का अतिवाद है. जहां जहां जिसके पास हर किस्म की ताकत और हर तरह के संसाधनों की लूट का मंसूबा है वो अपने समाज के दबे कुचलों पर दमन ढा रहा है. सभ्यताओं के टकराव का जो अमेरिकी सत्ता और पूंजी का दर्शन है, उसमें भी इस्लाम के साथ अलगाव को अवश्यंभावी माना गया है. उसी फिलॉसफी के कुछ बिखरे हुए नजारे हमें इधर भारत समेत दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में कुछ ज्यादा सघन हुए हैं. और यहीं क्यों, दमन का ये साया आप अफ्रीकी और पश्चिमी एशिया (मध्य पूर्व) के देशों और पूर्वी यूरोप में भी देख सकते हैं. सर्बिया जैसे नरसंहार कोई भुला सकता है. अफ्रीका में अगर उपनिवेशी ताकतों की नई कुटिलताओं के इर्द गिर्द कबीलाई जातीय संघर्ष हैं तो गजा जैसे इलाकों में अस्मिता और राष्ट्रीयता को कुचलने वाले अभियान. म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की यही स्थिति है.
बौद्ध धर्म का विस्तार
म्यांमार में बौद्ध धर्म कमोबेश उतना ही प्राचीन है जितना दूसरे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में. श्रीलंका के अलावा इन देशों में बौद्ध धर्म भारत से ही गया था. ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक की बेटी संघमित्रा भारत के बोधगया से बोधिवृक्ष की डाल लेकर सबसे पहले श्रीलंका पहुंची. बौद्ध धर्म की जड़ें फिर आसपास फैलती चली गईं. श्रीलंका की ही तरह म्यांमार में भी बौद्धों का सत्ता राजनीति में दखल और कभी प्रत्यक्ष कभी परोक्ष वर्चस्व रहा है. श्रीलंका में तमिलों के खिलाफ जातीय संघर्ष में बौद्धों ने भी भूमिका निभाई. उसी तरह म्यांमार में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी को रोहिंग्या मुसलमान खटकते हैं, उन्हें बांग्लादेशी कहा जाता है और देश से चले जाने की धमकियां दी जाती हैं. लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों के इतिहास से जुड़े तथ्य बताते हैं कि उन्हें बांग्लादेशी कहना सही नहीं है. वे भी म्यांमार की मिट्टी का हिस्सा रहे हैं.
खामोश हैं दलाई लामा
और इस नाजुक घड़ी में दलाई लामा जैसे गुरुओं के मुखर न होने के क्या मायने होंगे. भले ही म्यांमार के चरमपंथी बौद्ध गुटों और बौद्ध मठों की राजनीति और कड़े बौद्ध संस्कारों में ढले होने का दावा करने वाली सैन्य हुकूमत में दलाई लामा का स्वागत और सत्कार नहीं है, सही है कि दलाई लामा जिस बौद्ध संप्रदाय के प्रमुख हैं, म्यांमार के बौद्ध उस संप्रदाय से अलग हैं.
फिर भी दुनिया के एक बहुत सम्मानित और लोकप्रिय धार्मिक गुरु से ये अपेक्षा तो की ही जाती है कि खामोशी की राजनीति के साथ साथ वो दबाव की राजनीति भी बनाए. शायद उनका दबाव काम आए और बेगुनाहों का कत्लेआम रुक सके. युद्धों, हत्याओं और अत्याचारों की भर्त्सना करने से ही शांति नहीं आती और पाप नहीं रुक जाते हैं. शांति की कामना ज़रूर की जानी चाहिए लेकिन पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की लड़ाई में भी आगे रहना चाहिए. यही धर्म है. वरना तो इस दुनिया में मनुष्य नहीं कातिल ही रह जाएंगे.