आज इक्कीसवीं सदी में वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति ने सारे संसार को एक छोटा-सा घर बना दिया है| हमें यह जानकर आश्चर्य नहीं होता कि भारत से हज़ारों किलोमीटर दूर एकदम बेगाने देश के लोग योगाभ्यास करते हैं या भरतनाट्यम सीखते हैं, खाने की तो बात ही छोड़िए| दूसरी ओर अमरीकी हैमबर्गर, फ़िल्में और पॉप संगीत संसार के किसी कोने में अनजाने नहीं हैं| यही है संसार में विभिन्न संस्कृतियों का मिलन जो आज हमें इतना आसान और सहज लगता है| अब कल्पना कीजिए, हज़ारों साल पहले की| कोई इंसान परदेस जाता था तो उसे यों विदा करते थे कि पता नहीं फिर कभी मिलेगा भी कि नहीं| कितनी बड़ी थीं तब दूरियां! सच्चा आश्चर्य तो आज यह जानकर होता है कि उन दिनों भी देशों के बीच संपर्क थे, यही नहीं लोग दूर-दराज के देशों की संस्कृति की उपलब्धियों को अपनाते थे| हां, तब वे पराये देश की बातों को अपने सांचे में ढाल लेते थे ताकि उनके देश वाले उन्हें अपनी ही उपलब्धियां समझें| इसी का एक उदाहरण आज हम आपके सामने पेश करने जा रहे हैं|
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प्राचीन रूस में सभी नगर एक ही योजना के अनुसार बनाए जाते थे| नदी किनारे ऊंचे टीले पर किला बनाया जाता था| रूसी भाषा में ऐसे किले को ही क्रेमलिन कहते हैं| क्रेमलिन के भीतर बड़ा चौक होता था| जब भी कोई ज़रूरी फैसला करना होता था तो नगरवासी इस चौक में जमा होते थे| रूस में जब ईसाई धर्म का प्रचलन हो गया तो नगर का प्रमुख गिरजा इसी चौक पर बनाया जाने लगा| मास्को क्रेमलिन के प्रमुख चौक की भी शोभा बढ़ा रहा है यहां का गिरजाघर जो “उद्ग्रहण” गिरजा कहलाता है| ईसाइयों की शब्दावली में उद्ग्रहण का अर्थ है ईश्वर द्वारा ग्रहण किया जाना| अंग्रेज़ी में इसे एज़म्पशन चर्च कहते हैं| सबसे पहली इस “नाम” का गिरजा माता मरियम की स्मृति में बनाया गया था और फिर इस “नाम” के यानी उद्ग्रहण गिरजों में संतों और राजा-महाराजाओं को दफनाया जाने लगा| ख़ैर, यह तो चलते-चलते गिरजे की चर्चा हो गई| हां, इतना और बता दें कि रूस में जो ऑर्थोडोक्स यानी “पुरातन” या “सनातन” ईसाई धर्म माना जाता है उसके गिरजों पर सोने के गुम्बद बने होते हैं (जैसा अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर है) और अंदर भी वे भित्ति चित्रों और काष्ठ-फलकों पर बने “देवचित्रों” से सजे होते हैं| मास्को क्रेमलिन के उद्ग्रहण गिरजे की दीवारों, स्तंभों और मेहराबों पर अनेक भित्ति-चित्र बने हुए हैं|..ये अनगिनत ईसाई संतों के चित्र हैं| आज के “रॉकेटी” ज़माने में किस के पास फुर्सत है यह सब ध्यान से देखने और जानने की कि कौन सा चित्र किस संत का है|
हां, कुछ संतों को सभी लोग जानते हैं जबकि ज़्यादातर के बारे में तो अब विशेषज्ञ ही बता सकते हैं| ये भित्तिचित्र मुख्यतः पंद्रहवीं सदी के अंत में बनाए गए थे| कहना न होगा कि उस ज़माने के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों को ही यह काम सौंपा गया था| तो अब सबसे रहस्यमय बात यह है कि पिछले पांच सौ साल से भी अधिक समय से इस गिरजे में भारतीय राजकुमार योआसफ़ और उसके गुरू वरलाम का भित्तिचित्र बना हुआ है| अब आती है असली भेद की बात! यह राजकुमार योआसफ़ और कोई नहीं सिद्धार्थ गौतम ही हैं| जी हां, वही गौतम जो महात्मा बुद्ध के नाम से सारे संसार में जाने गए और जिन्होंने ईसा मसीह से कई सौ साल पहले ही संसार को ज्ञान-प्रकाश दिखाया था और जिनके नाम पर बौद्ध धर्म संसार भर में फैला| क्या है यह भेद? कैसे बना बुद्ध का चित्र प्राचीन रूसी गिरजे में?
प्रसिद्ध इतालवी यात्री मार्को पोलो (1254-1324) जब बरसों तक एशिया के देशों की यात्रा करके स्वदेश लौटे तो वह वहां की अनेक कथाएं, किवदंतियां भी लेकर आए| इन्हीं में एक थी महात्मा बुद्ध के जीवन की गाथा| ज़रा सोचिए, कितने दंग हुए होंगे वह यह जानकर कि यूरोप में तो यह बहुत पहले से ज्ञात है| हां, ईसाई ग्रंथों में भारतीय राजकुमार सिद्धार्थ गौतम राजकुमार योआसफ़ बन गए हैं और इनमें उनका जीवन-काल भी बदल दिया गया है| ऐसे दिखाया गया है कि वह उन दिनों हुए जब ईसाई धर्म का प्रसार हो रहा था| योआसफ़ को ईसाइयों ने अपना संत भी घोषित कर दिया| उनकी जीवन-कथा का वर्णन ईसाई ग्रंथों में इस प्रकार किया गया है:
दूर-दराज के भारत देश में अवेनीर नाम का एक महाबली राजा था जो ईसाइयों का घोर विरोधी था| उसके अपने चहेते दरबारी वरलाम ने भी जब ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया तो उसे भागकर रेगिस्तान में छिपकर रहना पड़ा| जब अवेनीर के पुत्र हुआ तो सभी ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि वह अकूच संपदा और यश पाएगा| सबसे बड़े ज्योतिषी ने इतना और कहा: हां, वह महान और यशस्वी होगा किंतु दूसरे जगत में – ईसाई जगत में | तब राजा ने कहा कि बालक का लालन-पालन राज-महल में ही हो, वह कहीं बाहर न जाने पाए, यह न जान पाए कि संसार में इस जीवन से अलग कोई दूसरा जीवन भी है| सो, राजकुमार अपने हमउम्रों के साथ महल में पलता रहा, सुख-चैन से जीता रहा|
परंतु एक बार संयोगवश राजकुमार महल से बाहर निकल गया और यहां उसने एक कोढ़ी भिखारी को देखा, फिर एक जर्जर बूढ़े को| अंततः उसने पास से निकलती अर्थी देखी| इस प्रकार राजकुमार को यह ज्ञान हुआ कि हर मनुष्य को रोग होते हैं, वह बूढा होता है और अंततः मर जाता है|
कहना न होगा कि ये सभी तथ्य राजकुमार सिद्धार्थ के जीवन से लिए गए हैं| बस इन्हें ईसाई सांचे में ढाल दिया गया है|
राजकुमार यह देखकर हतप्रभ रह गया कि इस संसार में तो दुःख ही दुःख हैं| उसका मन विषाद से भर गया| अब उसे जीवन में कुछ नहीं भाता था वह कुछ नहीं करना चाहता था| रेगिस्तान में संन्यासी बनकर रह रहे वरलाम को अपनी अंतर्दृष्टि से राजकुमार की त्रासदी का आभास हो गया| एक जौहरी का वेश धरकर वह महल में पहुंच गए| वहां राजकुमार योआसाफ से देर तक बातें करते हुए वरलाम ने उसे सच्चे ज्ञान का पथ समझाया| अंततः राजकुमार ने ईसाई धर्म में दीक्षा ले ली| अवेनीर ने पुत्र को अपने धर्म में लौटाने के अनेक प्रयत्न किए, शास्त्रार्थ करवाए, सुंदरियों को उसे मोहित करने भेजा| राजकुमार योआसफ ने ये सभी परीक्षाएं झेलीं| अपने विश्वास पर वह अडिग रहा| कुछ समय पश्चात वह स्वयं सिंहासन पर बैठे| विवेकी और दयावान राजा योआसाफ के राज से प्रजा सुखी थी| परंतु राजा योआसाफ ने राजपाट त्यागने का निश्चय किया, प्रजा के अनुनय-विनय को न मानकर वह अपने गुरू वरलाम की शरण में पहुंच गए और कठोर तपस्या करने लगे|
ईसाई जगत में राजकुमार सिद्दार्थ की कथा का पहला रूपांतर सातवीं सदी की एक जार्जियाई पाण्डुलिपि में मिलता है जो सिनाई के एक मठ में मिली है| जार्जिया के ईसाई संन्यासी तब अक्सर फिलिस्तीन और सीरिया में उन स्थानों की तीर्थ यात्रा पर जाते थे जहां से ईसाई धर्म शुरू हुआ| यहीं कहीं बुद्ध के चरित को उसका ईसाई-करण करके लिखित रूप दिया गया| यूनान के पवित्र माने जाने वाले एथेन्स पर्वत पर जार्जियाई ईसाइयों का बहुत पुराना मठ था| ग्यारहवीं सदी में इस मठ के धर्माध्यक्ष बहुत बड़े विद्वान थे जिन्हें सारे पुराने ईसाई साहित्य का ज्ञान था| यह माना जाता है कि उन्होंने ही जार्जियाई भाषा में लिपिबद्ध इस कथा को यूनानी भाषा में रूपांतरित किया| एथेंस पर्वत पर जार्जियाई मठ के बगल में ही था इटली वालों का संत बेनेडिक्ट मठ| इन मठवासियों ने ही जार्जियाई मठवासी लेओ से यूनानी भाषा में रचे गए चरित की हस्तलिपि खरीदी| और फिर सन् 1048 में लातीनी भाषा में इसका अनुवाद हुआ| चौदहवीं सदी के आरम्भ में ईसाई संतों के चरित-संग्रह में इसे शामिल किया गया| इसके बाद ही इसके सीरियाई, कोप्ट, आर्मीनियाई, फिर से जार्जियाई और यहां तक कि अरबी भाषा में भी अनुवाद हुए|
रूस में दसवीं सदी में ईसाई धर्म ग्रहण किया गया था| उसकी यूनानी (बैज़न्तियाई) शाखा को रूस ने अपनाया, सो यूनानी भाषा से ही सभी ईसाई ग्रंथों का प्राचीन स्लाव भाषा में अनुवाद हुआ| प्रत्यक्षतः ऐसे ही बारहवीं सदी में वरलाम और योअसाफ की कथा का भी अनुवाद हुआ|प्राचीन रूसी लिपिकारों ने राजकुमार योआसफ़ का चरित लिखते हुए उसमें तथाकथित “वरलाम उपदेश” भी जोड़ दिए – वे कथाएं जो वरलाम ने राजकुमार को सुनाईं|
2 दिसंबर को रूसी सनातनी गिरजा संत वरलाम और योआसफ़ का स्मृति दिवस मनाता है| रूसी लोगों में सदा इन संतों की बहुत मान्यता रही है| मास्को में सत्रहवीं सदी में राजकुमार संत योआसफ़ के सम्मान में एक गिरजा भी बनाया गया था| वह नगर के एक सबसे सुंदर स्थान पर था, जहां रूसी जारों का उपवन-महल था| इस स्थान का नाम है इज़मायलोवो| खेद्वश यह गिरजा हमारे दिनों तक बचा नहीं है| किंतु भारतीय राजकुमार और रूसी संत योआसफ़ का देवचित्र हम आज भी मास्को के केंद्र में – क्रेमलिन के उद्ग्रहण गिरजे में देख सकते हैं|