(धर्म-अध्यात्म)– महाकाल जिनकी उत्पत्ति स्वयंभू मानी है सनातन ने,ये अजन्में हैं,इनकी मृत्यु नहीं होनी न आदि है न अंत,महाकाल का मंदिर आदि नगरी अवन्ती या आज उज्जैन में अवस्थित है.मंदिर का वर्तमान जीर्णोद्धार स्वरूप का श्रेय मराठा शासकों को जाता है एवं आज भी यह परंपरा वे निभा रहे हैं.
महाराज विक्रमादित्य,महाकवि कालिदास का अमर उल्लेख अवंतिका के इतिहास में दर्ज है.आज के समय में जब मनुष्य भौतिकता में जकड़ा हुआ है किसी के पास समय नहीं अपनी धरोहर को सहेजने का वह सिर्फ दर्शन तक ही अपने को समेट कर अपने कर्तव्यों की इति कर लेना चाहता है एवं सच्चाई को ना जांच-परख कर वह भेड़ अनुसरण में अपने आप को झोंक देता है .
सिंहस्थ कुम्भ नजदीक है कई तांत्रिक आज ख़बरों में एक जुमला उछाल रहे हैं की महाकाल को चिता-भस्म चढ़नी चाहिए लेकिन क्यों चढ़ती थी एवं आज क्यों नहीं चढ़ती या क्यों चढ़नी चाहिए यह पत्रकारों को बताने में वे गुरेज करते हैं क्यों नहीं क्या वे जानते नहीं? क्या वे जनमानस को इस सनातन ज्ञान से वंचित रखना चाहते हैं? इनमें से दोनों ही हो सकता है.हमने प्रयास किया इसे जानने का एवं जो पाया वह तथ्यात्मक स्वरूप में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं.इस लेख शब्दों में बंधा नहीं है या यह पूर्ण नहीं है,यदि किसी पाठक के पास कोई अमूल्य तथ्यात्मक जानकारी है तो वे हमने भेज सकते है ताकि हम उसे इस लेख में समाहित कर सकें.यह लेख सनातन परंपरा को सहेजने की दिशा में एक प्रयास है किसी त्रुटि की और ध्यान जाए तो कृपया हमें बताएं ताकि सुधार किया जा सके.
‘सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत् , न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन । उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से श्वास ले रहा था । उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था ।’(ऋग्वेद)
माना जाता है सनातन सृष्टि के आरम्भ से है यह सहज-सरल है इसकी सीमायें अनन्त हैं यह बाँधा नहीं जा सकता,अपरिमित है.इसमें जीवन पद्धति निर्वाह करने की सभी को स्वतंत्रता है मुख्यतः उपासना पद्धति.हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं उज्जैन में स्थित महाकाल मंदिर में स्थित स्वयंभू शिव लिंग के भस्म से अभिषेक का.
इल्तुमिश द्वारा हिन्दू राजाओं के मर्दन के और मंदिरों को ध्वस्त कर उनकी पूजा-पद्धति को क्षति पहुंचाई गयी.मराठा राजाओं द्वारा शासन में आने के बाद महाकाल मदिर का पुनर्निर्माण कर उसे भव्यता प्रदान की गयी एवं पुनर्स्थापन किया गया.इतिहास गवाह है की रामायण काल के पहले से तांत्रिक पूजा-पद्धति बहुतायत में थी.रामायण काल में ऋषि-मुनियों व् राजाओं में यह यौगिक पूजा-पद्धति प्रचलित थी.
अघोर सिद्धांत के अनुसार अघोरी उन वस्तुओं का उपयोग करता है जो अन्य लोगों के लिए अनुपयोगी हो.जंगलों एवं निर्जन में वास करने वाले साधक ठण्ड एवं पर-कीटों से देह को सुरक्षित करने के लिए धूनी की भस्म को शरीर पर धारण करते रहे हैं.अघोर एवं अन्य शैव साधक श्मशान में निवास करते थे एवं वहां शवदाह में जलती अग्नि को वे धूनी एवं शेष भस्म को भस्मी की रूप में इस्तेमाल करते रहे.महाकाल मंदिर एवं उज्जैन तांत्रिक साधनों का गढ़ रहा है,वहां स्थित कई स्थान इस बात के प्रमाण हैं.महाकवि कालिदास स्वयम माँ गढ़कालिका के उपासक थे.कालभैरव मंदिर,मंगलनाथ आदि उज्जैन के तांत्रिक इतिहास को मजबूती प्रदान करते हैं.हजारों वर्षों तक महाकाल जी को पूजा के दौरान भस्म चढ़ाई जाती रही जो शवदाह पश्चात बची चिता-भस्म जो अघोर मत एवं सिद्धांत अनुसार किसी के उपयोग की नहीं थी चढ़ाई जाती रही.कालांतर में जब मराठों ने मंदिर की व्यवस्था पुनः संभाली तब तक पूजा बंद हुए इतना समय बीत गया था की अघोर साधक दूर चले गए थे.पूजा व्यवस्था को अब वैष्णव मत के अनुयायियों के हाथों में आई जो चिता-भस्म से परहेज करते हैं.अतः गाय के गोबर से बने उपलों की अभिमंत्रित भस्म से शिव का अभिषेक किया जाने लगा जो आज भी निरंतर जारी है.और सनातन में सभी मतों का स्थान एवं आदर होने की वजह से इस विधि से भस्म चढ़ाना भी गलत नहीं ठहराया जा सकता है.शिव की पूजा “भाव” द्वारा की गयी पूजा है इसमें “भाव” का महत्त्व है अतः उन्हें किसी भी विधि या सामग्री से पूजा जाय वह गौण है.अद्वैत में साधक श्मशान को पवित्र स्थान मानता है क्योंकि वह सत्य है.
यदि कोई भक्त उन्हें तांत्रिक विधि से पूजना चाहता है और चिता-भस्म का लेपन या चढ़ाना चाहता है तो वह कर सकता है इसमें किसी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए.
कहा है,
” मैं माटी का फूल हूँ इक दिन,भस्मीभूत हो जाऊँगा|
भस्मीभूत हो इस वातायन पर छा जाऊँगा |
व्यर्थ गणित क्या खोया पाया,चल जाने दे |
अघोरी,चिता तनिक जल जाने दे |”
लेखक-अनिल कुमार सिंह “अनल”
मो.-9039130023