खंडवा, 1 मई (आईएएनएस)। ‘इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले, गोविंद नाम ले के प्राण तन से निकले..’ यह गीत खंडवा जिले के घोगलगांव में ओंकारेश्वर बांध के विस्थापित किसान गाने को मजबूर हैं, क्योंकि सरकार से नाउम्मीद हो चुके हैं। उनकी आखिरी मुराद यही है कि संघर्ष करते हुए मर भी जाएं तो अंत समय में उनके मुंह से गोंविद का नाम जरूर निकले।
खंडवा, 1 मई (आईएएनएस)। ‘इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले, गोविंद नाम ले के प्राण तन से निकले..’ यह गीत खंडवा जिले के घोगलगांव में ओंकारेश्वर बांध के विस्थापित किसान गाने को मजबूर हैं, क्योंकि सरकार से नाउम्मीद हो चुके हैं। उनकी आखिरी मुराद यही है कि संघर्ष करते हुए मर भी जाएं तो अंत समय में उनके मुंह से गोंविद का नाम जरूर निकले।
नर्मदा नदी पर बने ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर बढ़ाए जाने से कई गांव के परिवारों की रोजी-रोटी संकट में पड़ गई है, प्रभावितों को उचित मुआवजा नहीं मिला और जमीन के बदले जमीन की चाहत भी पूरी नहीं हुई। यही कारण है कि यहां 80 से ज्यादा लोग जल सत्याग्रह कर रहे हैं। पिछले 20 दिनों से जल सत्याग्रह कर रहे लोगों की हालत बिगड़ रही है, पैरों की चमड़ी गल गई है, खून का रिसाव हो रहा है, पैरों के मांस मछलियां नोंच-नोंचकर खा रही हैं। ऊपर से सर्दी-जुकाम और बुखार की तपिश।
एक तरफ जहां 80 लोग पानी में खड़े हैं तो खुले खेतों में एकत्र महिलाएं सरकार को कोसे जा रही हैं और गीत गाकर सत्याग्रह करने वालों का हौसला बढ़ा रही हैं। महिलाओं के गीत सत्याग्रहियों के लिए ठीक वैसा ही उत्साह भरने का काम कर रहे हैं, जैसा पुराकाल में युद्ध पर जा रही सेनाओं में जोश भरने के लिए गीत गाए जाते थे।
ढोल-मंजीरे की थाप और तालियों की खनक के बीच गूंजते गीत इस बात का संदेश देने के लिए काफी है कि वे अपनी जमीन बचाने के लिए लंबे संघर्ष को तैयार हैं।
बुजुर्ग लीला बाई (60) कहती हैं, “सरकार किसान के कल्याण और अच्छे दिन की बातें करती रही हैं, मगर उन्होंने किसका कल्याण किया है और किसके अच्छे दिन आए हैं, यह उन्हें पता नहीं, मगर उनके बुरे दिन जरूर आ गए हैं। अब तो हम मान चुके हैं कि सरकार हमें जीते जी मारने पर तुल गई है। यही कारण है कि हमने भी ठान लिया है कि मर जाएंगे, मगर जमीन नहीं छोड़ेंगे।”
वह आगे कहती हैं कि सरकार भले ही उन्हें मारने पर आमादा हो, मगर ईश्वर उनके साथ है, वह अन्याय नहीं करेगा, अगर मरने की नौबत आ भी गई तो गोविंद का नाम लेकर ही दुनिया छोड़ेंगे।
गिरिजा बाई (65) कहती हैं कि अपने बच्चे हैं, नाती भी साथ रहता है, सभी का जीवन चलाने का जरिया सिर्फ खेती है। अब खेती भी पानी में डूब चली है, यानी मौत करीब आ गई है। उनके लिए सिर्फ दो ही रास्ते बचे हैं- या तो संघर्ष करते हुए जान दे दें या दाने-दाने के लिए मोहताज होकर मरें।
उन्होंने जमीन पाने की आस में पूर्व में मिला मुआवजा सूदखोर से कर्ज लेकर लौटा दिया था, न तो बढ़ा हुआ मुआवजा मिला और न ही खेती की जमीन। जो जमीन थी, वह भी अब डूब चली है। सरकार उनके लिए काल बन गई है।
इसी तरह गीत गाने में मस्त सक्कू बाई संभावित खतरे को याद कर गुस्से में आ जाती हैं। उनका कहना है कि रोजी-रोटी छिन रही है, इसे बचाने के लिए जो भी करना होगा करेंगे। सरकार बातें बहुत करती हैं, मगर हकीकत में होता कुछ नहीं है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान किसानों के साथ अन्याय कर रहे हैं, इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी।
बुजुर्ग और अधेड़ महिलाओं के साथ नौजवान युवतियों भी सत्याग्रहियों का उत्साह बढ़ाने में लगी हैं। वकालत कर रहीं दीपिका गोस्वामी खरगोन से आंदोलनरत अपनी नानी का साथ देने आई हैं। वह कहती हैं कि यह सरकार कैसी है जो आमजन से उसका मौलिक अधिकार छीन रही है।
घोगलगांव में जल सत्याग्रह स्थल का नजारा दीगर आंदोलनों से जुदा है, यहां एक तरफ लोग पानी में हैं तो दूसरी तरफ पानी से बाहर सैकड़ों लोगों की भीड़ जमा है। बीते 20 दिनों से सुबह से लेकर शाम तक यही नजारा देखा जा रहा है, मगर उत्साह किसी का कम नहीं है, वे दावा यही कर रहे हैं कि यह लड़ाई जीतने के लिए लड़ी जा रही है, हार भी गए तो याद किए जाएंगे।