भोपाल, 24 दिसंबर – मध्य प्रदेश में भले ही बाल मजदूरों की संख्या में कमी आई हो, मगर शहरी इलाकों में बाल मजदूर बढ़े हैं। बाल मजदूरों की संख्या के मामले में मध्य प्रदेश देश में चौथे स्थान पर है।
बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ और श्रम विभाग द्वारा इंदौर में बाल मजदूरों पर आयोजित कार्यशाला में राज्य में बाल मजदूर समस्या पर खुलकर चर्चा हुई। सभी ने बचपन बचाने पर बेबाक राय जाहिर की। साथ ही बढ़ती इस समस्या सभी की एक राय थी कि इस सामाजिक बुराई को खत्म करने मे सभी का साथ जरूरी है, कोई एक विभाग या क्षेत्र से जुड़े लोग इसे खत्म नहीं कर सकते।
आंकड़ों की बात करें तो देश और प्रदेश में बाल श्रमिकों की संख्या में पिछले दस सालों में कमी आई है। जनगणना 2011 के आंकड़ें बताते हैं कि अधिकार प्राप्त कार्य समूह राज्यों में पांच से 14 आयु वर्ग के बाल श्रमिकों में मामले में मप्र का स्थान अभी भी चौथा है।
बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम 1986 अनुच्छेद तीन कहता है कि किसी भी बच्चे को खतरनाक व्यवसायों और प्रक्रियाओं में काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है या काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसके बावजूद बच्चे खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं।
श्रम कानून के अनुसार, बच्चों को भोजन प्रंबंधन संस्थान या स्थान, निर्माण संबंधी कार्य, पटाखे बनाने व बेचने का कार्य, बूचड़खाना, वाहन सुधारने की जगह, खदानों में काम कराना प्रतिबंधित है। तमाम कानूनों के बावजूद बीड़ी निर्माण, कागज निर्माण, कालीन बुनना, अगरबत्ती बनाना, वाहन सुधारना और मरम्मत करना, ईंट-भट्टों पर काम, फाइबर ग्लास और प्लास्टिक को गलाना व निर्माण, तंबाकू बनाना, टायर निर्माण और मरम्मत, पन्नी बीनना और कचरा, मलमूत्र की सफाई का काम, बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन, बाल-श्रम भारत की एक गंभीर समस्या बना हुआ है।
बच्चों की खराब स्थिति के मद्देनजर विश्व में भारत छठे स्थान पर है। वर्ष 2011 की जनणना के अनुसार, भारत में छह से 14 साल के एक करोड़ एक लाख 28 हजार 663 बाल मजदूर हैं। इसमें से सबसे अधिक बाल श्रमिकों की संख्या उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में है।
उत्तर प्रदेश में इस आयु वर्ग के 21 लाख 76 हजार 706 बाल श्रमिक हैं तो बिहार में यह संख्या 10 लाख 88 हजार 509 है। राजस्थान में आठ लाख 48 हजार 386 बाल श्रमिक हैं, जबकि मध्य प्रदेश का स्थान चौथा है। मप्र में बाल श्रमिका की संख्या सात लाख 239 है।
आंकड़े बताते हैं कि 2001 में मप्र में कुल 10़65 बाल श्रमिक थे जो 2011 में घट कर सात लाख रह गए। यानी 10 सालों में 3़65 बाल श्रमिक कम हुए। इसका लैंगिक अनुपात देंखे तो 2001 में पांच से 14 आयु वर्ग की 5़31 लाख बालिका श्रमिक थीं जो 2011 में 3़26 लाख रह गईं, जबकि बालक श्रमिकों की संख्या में 1़60 लाख की कमी आई। 2001 में 5़34 लाख बालक श्रमिक थे जो 2011 में घट कर 3़74 लाख रह गई। यह संख्या उन बाल श्रमिकों की है जो मुख्य या सीमांत कार्यो में संलग्न हैं।
मप्र में बाल श्रमिकों की कुल संख्या में कमी आई है, वहीं शहरों में बाल श्रमिकों की संख्या में इजाफा हुआ है। जनगणना 2001 और 2011 के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में जहां 2001 में पांच से 14 वर्ष आयु समूह के बाल श्रमिकों की कुल संख्या 65 हजार थी वह 2011 में बढ़ कर 92 हजार हो गई यानी 27 हजार बाल श्रमिकों की वृद्धि हुई है।
बालक और बालिका में इस वृद्धि का तुलनात्मक आकलन करें तो पाएंगे कि बालक श्रमिकों की संख्या बालिका श्रमिकों की तुलना में अधिक बढ़ी है। राजधानी भोपाल में 2001 की तुलना 2011 में 121 फीसदी बाल श्रमिक बढ़े हैं। इसी तरह राजधानी से सटे जिले में सीहोर में 12 तथा जबलपुर में नौ, ग्वालियर में चार और इंदौर में एक प्रति’ात बाल श्रमिक बढ़ गए,।
श्रम आयुक्त के.सी. गुप्ता का कहना है कि समाज को बाल मजदूरी को रोकने आगे आना होगा। कोई एक विभाग इस खत्म नहीं कर सकता है। बीते एक वर्ष की कोशिशों के चलते 100 बाल श्रमिकों को मुक्त कराया गया है।
ठस कार्यशाला में मौजूद केंद्रीय श्रम मंत्रालय के प्रतिनिधि डॉ. ओमकार शर्मा ने कहा कि आज जरूरत है कि जिले स्तर पर ऐसी कमेटी बनाई जाए जो इन पर ध्यान दे। समाज जुटेगा तो इस समस्या पर अंकुश लगेंगा। वैसे मध्य प्रदेश कई अन्य राज्यों के लिए आदर्श रहा है।
राज्य में कई गैर सरकारी संस्थाएं बाल मजदूरों का जीवन बदने की कोशिश में लगी हैं। मुस्कान की नीति बताती है कि बच्चे पढ़ना चाहते हैं और उन्हें जब सहयोग मिलता है तो वे मजदूरी को छोड़ देते हैं।
राज्य के शहरी इलाकों में बढ़ी बाल मजदूरों की संख्या इस बात का संकेत है कि अभिजात वर्ग ही बाल श्रमिकों का सहारा ले रहा है। यह वर्ग जब आत्ममंथन करेगा, तभी इस समस्या से निजात मिलेगी।