महेन्द्र ठाकुर, सीहोर।
देश की आजादी की लड़ाई में शहर का भी अपना योगदान रहा हैं मगर उस योगदान को तवज्जों नहीं मिल पा रही है। देश को आजाद हुए एक दशक से अधिक का म्समय हो चुका है लेकिन चैन सिंह की छतरी आज भी शासकिाय आयोजनों की बाट जोह रही है।
जी हां देश में जब अंग्रेजी कुशासन का दौर चल रहा था तब उन्हें सीधे-सीधे चुनौती देने एवं ललकारने का साहस सीहोर की धरती पर कुंवर चैनसिंह ने दिखाया। उन्होंने अपने साथियों के साथ फिररंगियों से लोहा लिया उन्हें नाको चने चबवाएं, लेकिन अंत में वह वीरगति को प्राप्त हुए। यह विडम्बना यह है कि देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली सशस्त्र क्रांति का शहीद मंगल पांडे को माना जाता है। मगर कुंवर चैनसिंह की शहदत को प्रमाणित दस्तावेजों के बाद भी नजर अंदाज किया जा रहा है। अंग्रेज परस्त, भोपाल नवाब बेगम सिकन्दर जहां सन 1844 से 1868 तक के शासनकाल में 6 अगस्त को सीहोर की अंग्रेज छावनी में हुए सशस्त्र सैनिक विद्रोह की गाथा सीहोर के गर्वीले सीने पर अंकित बलिदान की अमर दोस्ती है, लेकिन खेद है कि प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 के इतिहास में सीहोर के इस रक्त रंजित विद्रोह की क्रांति गाथा की सदैव से उपेक्षा की जाती रही है, जबकि यह सम्मान केवल सीहोर को मिलना चाहिए कि यहां के बहादुर राष्ट्र भक्त विद्रोही सिपाहियों ने गुलाम भारत की पहली स्वतंत्र सरकार की सिपाही बहादुर सरकार के नाम से सीहोर में स्थापना की थी और उनकी क्रांति पताकाएं हिन्दु मुस्लिम एकता को प्रतीक बनकर, निशान ए मोहम्मदी और निशान ए महावीरों के नाम से एक साथ सीहोर कोतवाली और कस्बा स्थित पुरानी निजामत पर फहराती रही। 10 मई 1857 की मेरठ उप्र से शुरू हुए अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह की क्रांतिकारी गर्म हवाओं ने मध्य भारत में सर्वप्रथम 3 जून 1857 को नीचम से प्रवेश किया। क्रांति की अंग्रेय शिखाएं जल्दी ही इंदौर जा पहुंची। एक जुलाई 1857 को इंदौर रेसीडेंसी से विद्रोह की लपटें उठने लगी। उसी समय कर्नल डयेरेन्ड इंदौर रेसीडेंसी छोडकऱ 16 अंग्रेज असफरों के साथ जान बचाकर देवास के रास्ते सीहोर भाग आया था। यह घटना 4 जुलाई 1857 को सीहोर छावनी में सुलग रही क्रांति की चिंगारी का आभास होते ही 20 वफादार सैनिकों के साथ सीहोर से भाग खड़ा हुआ था। उस समय सीहोर में केवल 23 अंग्रेज अफसर और उनके परिवार रह रहे थे, जिन्हें अंग्रेज परस्त भोपाल नबाव बेगम सिकन्दर जहां की भोपाल बटालियन की अभिरक्षा में सीहोर से सुरक्षित होशंगाबाद पहुंचा दिया गया था। अंग्रेज पोलिटिकल एजेन्ट मेजर रिचर्डस के पलायन से भोपाल कटिन्जेंट के सैनिकों के हौंसले बुलंद थे। भारत को अंगे्रजों की गुलामी से मुक्त कराने का उद्घोष सबसे पहले निकटवर्ती गांव जमोनिया के राव रणजीत सिंह को सुनाई दिया। ग्राम चांदबड़ के ठाकुर गोवर्धन सिंह गांवों में आजादी का अलेख जगाने में लगे थे फिर क्या था सीहोर के आसपास के ग्रामीण अंचलों के नौजवान उठ खड़े हुए। 14 जुलाई 1857 को सजात सखान के नेतृत्व में पिण्डारियों ने असिस्टेंट पोलिटिकल एजेंट के बैरसिया स्थित कार्यालय तथा ट्रेजरी खजाने पर हमला बोलकर खजाना लूट लिया। 6 अगस्त 1857 को सीहोर छावनी में घुड़ सवारी के रिसालदार मोहम्मद अली खान ने खुलेआम विद्रोह कर छावनी में लगे अंग्रेजों के झण्डे को उतार फेंका और भोपाल कांटिनजेंट के दौर अधिकारियों रिसालेदार वाली शाह और महावीर कोठा लारा बनाए गए सैनिक क्रांति के प्रतीक दो झण्डे एक हरे रंग का और दूसरा भगवा ध्वज जिन्हें वे निशान-ए-मोहम्मदी और निशान-ए-महावीरी कहते थे, महावीर कोठा और रज्जूलाल ने फहरा दिया। अंग्रेजों ने बाद में इन दोनों देश भक्तों महावीर और रज्जूलाल को अंग्रेज ध्वज उतारने और भारतीय ध्वज फहराने के अपराध में गोलियों से भून डाला। सीहोर कोतवाली में पदस्थ पुलिस अधिकारी छावनी के विद्रोही सिपाहियों के आतंक से आतंकित होकर कोतवाली छोडकऱ भाग खड़ा हुआ था। उन दिनां सीहोर सैनिक छावनी के विद्रोह सैनिकों की सिपाही बहादुर सरकार कोतवाली पर काबिज रही, पोलिटिकल एजेंट कार्यालय एवं निवास वतर्मान कलेक्ट्रेट अंग्रेजों के बंगले जंगली अहाता स्थित चर्च ओर पोस्ट आफिस विद्रोहियों के आधिपत्य में रहे। सीहोर के सम्पूर्ण केन्टोमेंट इलाके पर नवम्बर 1857 तक विद्रोहियों की सिपाही बहादुर सरकार का कब्जा रहा। लगभग पांच महीने तक सीहोर छावनी स्वतंत्र रही। परिणामस्वयप सर ह्यूरोज ओर सर राबर्ट हामिल्टन को महू से सेंट्रल इंडिया फील्ड फोर्स के साथ 6 जनवरी 1858 को सीहोर कूच करने का हुक्म मिला। सर ह्यूरोज दल बल और तोपखाना लेकर 8 जनवरी 1858 को सीहोर आ गया। सीहोर आकर ह्यूरोज ने बड़ी निर्ममता से 149 विद्रोही सिपाहियों को पकडकर उन्हें पलटन एरिए में पंक्तिबद्ध खड़े कर 15 जनवरी 1858 को गोलियों से भून डाला। सैनिक जमादार इनायत हुसैन खां को तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिया। उस दिन सीवन नदी सिर धुनती रही। उसका पानी देशभक्तों के खून से लाल हो गया था। इससे पहले 6 अगस्त को बहुत से देशभक्त सीवन की लहरों में समा गए थे। गोरे जालिमों ने देशभर में विद्रोही सिपाहियों की टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया था, कई सौ देश भक्तों का गर्म खून इस सीहोर की मिट्टी में समाया हुआ है। सन 1908 में प्रकाशित भोपाल स्टेट गजेटियर में उल्लेखित सीहोर के दशहरा बाग में अंग्रेजों और तत्कालीन नरसिंहगढ़ रियासत के कुंवर चैनसिंह के बीच हुई लड़ाई को तथ्यांकित करती है। भोपाल स्टेट गजेटियर के इस अंश के अनुसार सन 1857 के सीहोर सैनिक छावनी विद्रोह 6 अगस्त 1857 के 33 वर्ष पहले नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुंवर चैनसिंह ने अंग्रेजों से लोहा लिया था। हालांकि कुंवर चैनसिंह अंग्रेजों से हुए इस युद्ध में हार गए थे और उन्हें 24 जून 1824 को अपने 43 विश्वस्त साथियों के साथ सीहोर के दशहरा वाले बाग के मैदान में मौत को गले लगाना पड़ा, कुंवर चैनसिंह ओर उनके साथियों की इस शहादत का अपना महत्व है। 1824 की यह घटना नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैनसिंह को इस अंचल के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रतिष्ठित करती है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि भोपाल नवाब नजर मोहम्मद खां जिन्हें नजर उद्दोला व नजर खान भी कहते हैं सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन स्टुवर्ड के साथ रायसेन में एक दुरभि संधि की थी, जिसे रायसेन समझौता भी कहा जाता है। इस संधि के आधार पर ही अंग्रेजों ने सन 1818 में सीहोर को अपनी सैन्य छावनी का रूप दिया। मिस्टर मेडांक अंग्रेजों के प्रथम राजनैतिक प्रतिनिधि की हैसियत से इसी वर्ष सीहोर आए। मि. मेडांक के अंतर्गत भोपाल नवाब की फौज एक हजार सैनिक 600 घुड़सवार एवं 400 सैनिक सीहोर में भोपाल बटालियन के नाम से तैनात किए गए, जिन्हें भोपाल खजाने से वेतन दिया जाता था, लेकिन नियंत्रण इस्ट इंडिया कंपनी के राजनैतिक प्रतिनिधि के हाथ में था। अंग्रेजों ओर कुंवर चैनसिंह के विवाद की पृष्ठभूमि समझने के लिए तत्कालीन नरसिंहगढ़ रियासत में अंदरूनी हालातों की चर्चा करना भी यहां जरूरी है। अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा के वशीभूत होकर नरसिंहगढ़ रियासत से तत्कालीन महामंत्री आनंदराम बश्खी को प्रलोभन देकर अपनी और मिला लिया था, ताकि बख्शी के माध्यम से उन्हें नरसिंहगढ़ राज्य परिवार को गुप्त जानकारियां मिलती रहें। कुंवर चैनसिंह को जब विश्वासघाती मंत्री की कार गुजारियों का पता चला तो उन्होंने अपने पिता के विरोध के बावजूद बख्ती को मौत के घाट उतार दिया। इंदौर के होल्कर राजा लारा अंग्रेजों के विरूद्ध मध्य भारत के देशी रजवाड़ों की बैठक बुलाने ओर उसमें कुंवर चैनसिंह के भाग लेने की जानकारी अंग्रेजों के सीहोर स्थित पोलिटेकिल एजेंट मि. मेडांक को नरसिंहगढ़ रियासत के एक अन्य मंत्री रूपराम बोहरा ने दी थी, कुंवर चैनसिंह ने उसे इस कृत्य की सजा भी मौत के घाट उतार कर दी। अंग्रेज यह कैसे बर्दाश्त करते कि एक देशी रियासत का राजकुंवर चैनसिंह एक के बाद एक अपराध करते रहे ओर अंग्रेजों के विरूद्ध होने वाली साजिशों में शामिल रहे। परिणामस्वरूप कुंवर चैनसिंह के संबंध में सीहोर स्थित पोलिटिकल एजेंट ने कलकत्ता स्थित गर्वनर जनरल को शिकायती पत्र लिखकर सारे घटनाक्रम की जानकारी भेजी। कहते हैं कि कुंवर चेनसिंह नरसिंहगढ़ से अपने विश्वस्त साथी नरसिंहगढ़ से अपने विश्वस्त साथी सारंगपुर निवासी हिम्मत खां और बहादुर खां सहित सैनिकों की टुकड़ी के साथ सीहोर आए थे, जहां अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट सीहोर की वतर्मान कलेक्ट्रेट के सभाकक्ष में कुंवर चैनसिंह और मि. मेडांक का आमना सामना हुआ। लोक श्रुति के अनुसार मेडांक ने चैनसिंह की तलवार की प्रशंसा करते हुए उनसे देखने के लिए उनकी तलवार मांगी। कुंवर चैनसिंह द्वारा एक तलवार दे देने पर मि. मेडांक ने दूसरी तलवार देखने की इच्छा व्यक्त की। संभवत: कुंवर चैनसिंह अंगे्रजों की साजिश को भांप गए और उन्होंने अपनी दूसरी तलवार यह कह कर नहीं दी कि राजपूत की कमर शस्त्रविहिन नहीं रहती। मेडांक ने बिना समय गवांए चैनसिंह को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। जिसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि कुंवर चैनसिंह ने अपनी तलवार खींच ली ओर वे लड़ते हुए सभाकक्ष से बाहर आए और वहां खड़े घोड़े पर सवार होकर साथियों के साथ चल दिए। सीहोर के वतर्मान तहसील चौराहे पर बताते है कुंवर चैनसिंह के साथियों ओर अंग्रेजों के बीच जमकर संघर्ष हुआ एक ओर कुंवर चैनसिंह के साथ मु_ी पर विश्वस्त साथी थे तो दूसरी और शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजों की फौज। घंटों की लड़ाई में अंगे्रजों के तोपखाने ओर बंदूकों के सामने कुंवर चैनसिंह के जांबाज लड़ाके खेत रहे। कुंवर चेनसिंह के अंगरक्षक बने विश्वस्त साथी हिम्मत खां व बहादुर खां अपनी जान पर खेलकर उन्हें बचाए रहे। चैनसिंह को लोटिया पुल के पास पुन: अंंगे्रजों ने घेर लिया, वहां कुंवर चैनसिंह ओर हिम्मत खां और बहादुर खां के साथ बचे-खुचे मु_ी भर सैनिकों ने जमकर मोर्चा लिया। कुंवर चैनसिंह की बहादुरी देखकर मि. मेडांक हतप्रद था। अंग्रेजों की फौज के मुकाबले कुंवर चैनसिंह भारी पड़ रहे थे, लोटिया पुल पर आकर स्थानीय दशहरा वाले मैदान कहे जाने वाले क्षेत्र में कुंवर चैनसिंह हिम्मत खां और बहादुर खां ने अंग्रेजों के विरूद्ध अंतिम सांस तक संघर्ष किया। जानकारी के अनुसार शहर में देश के पहले शहीद की निशानी चैनसिंह की छतरी स्थित है और वहां पर शासकीय स्तर पर नियमित आयोजन नहीं होते हैं। बहरहाल बात जो भी हो यह स्पष्ट है कि मंगल पाण्डे से अंग्रेजों कुशासन के विरूद्ध कुंवर चैनसिंह ने न केवल पहले आवाज उठाई बल्कि उनसे टकराकर अपने प्राण भी मातृभूमि के लिए न्यौछावर कर दिए, लेकिन न जाने क्यों देश में मंगल पांडे का नाम तो लिया जा रहा और चैनसिंह को नजर अंदाज किया जा रहा है। देश प्रेम का जिनमें जज्बा होता है उनके लिए यह पक्तिंया सटीक है।
खिदमते मुल्क में जो भी मर जाएंगे, वो अमर नाम दुनिया में कर जाएंगे।
यह न पूछो की मरकर किधर जाएंगे, वो जिधर भेज देगा उधर जाएंगे।