कांग्रेस और सत्तारूढ़ बीजेपी में टकराव बढ़ता ही जा रहा है. संसद में गतिरोध जारी है और टीम मोदी के पसीने छूटे हुए हैं. संसद में भ्रष्टाचार पर हंगामा तो हो रहा है, लेकिन कोई नतीजा निकलता नहीं दिख रहा.
यूपीए के शासनकाल में बीजेपी ने जिस तरह से कड़े तेवर वाले विपक्ष की भूमिका निभाई, कांग्रेस भी अब अपने मुट्ठी भर सांसदों के बूते वैसा ही जवाब विपक्ष के रूप में दे रही है. भ्रष्टाचार के मामले पर कांग्रेस ने बीजेपी को घेरा हुआ है. अब ये लड़ाई केंद्रीय राजनीति और केंद्र सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों से निकलकर राज्य स्तर की राजनीति और राज्य सरकारों तक खिंच गई है.
कांग्रेस ने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों को घेरा तो उसके जवाब में बीजेपी ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की सरकारों को निशाना बनाया है. मामले राज्यों से जुड़े हैं और इनकी गर्मी दिल्ली को तपा रही है. इससे दो बातें फौरी तौर पर स्पष्ट होती हैं. पहली तो ये कि इन पार्टियों का राज्य नेतृत्व या तो कमज़ोर हो गया है जो विधानसभा के भीतर और बाहर सत्तारूढ़ दल को घेर पाने में लाचार ही नजर आता है, या उनका केंद्रीय आलाकमान ही ऐसा मानता है. दूसरी बात ये कि इन दलों के केंद्रीय नेतृत्व के पास राष्ट्रीय महत्त्व और चिंता के ऐसे मुद्दे नहीं रह गए हैं लिहाजा वो राज्य स्तर पर मेरा भ्रष्टाचार तेरा भ्रष्टाचार नुमा वाकयुद्ध में उलझ गए हैं.
दोनों ही स्थितियां कुल मिलाकर भारतीय राजनीति की मौजूदा दशा और दिशा की बदहाली का संकेत भी देती है. इसका एक चिंताजनक पहलू ये भी है कि इस हो हल्ले में ये पार्टियां विधानसभाओं की भी अनदेखी कर रही है जहां राज्य स्तर के मामलों पर तीखी बहस की जा सकती थी. आखिर उनकी भी कोई गरिमा है. ये एक तरह से मुद्दों को हड़पने का मामला है.
व्यापमं घोटाले के परिमाण को देखें तो ये मुद्दा निश्चित ही स्थानीय या प्रांतीय स्तर से आगे भी जाता है. लेकिन उस पर आरोप प्रत्यारोप का जो दौर चला है उसमें कई मुद्दे ऐसे चले आए हैं जिन्हें उठाने के पीछे मकसद यही दिखता है कि वर्चस्व और झुकाने की लड़ाई चल रही है. हमारा दामन साफ है आपका दागदार है. बस यही नूराकुश्ती दिखती है. लेकिन लगता नहीं कि आम जनता या आम वोटर इतने नादान होंगे जो ये न समझ पा रहे होंगे कि बीजेपी और कांग्रेस की ये लड़ाई कितनी असली और कितनी नकली है. इसकी सार्थकता भी सबको नजर ही आ रही होगी और इसका अंजाम भी. वरना क्या कारण है कि व्यापमं में बीजेपी राज्य स्तर पर या केंद्रीय स्तर पर कोई निर्णय नहीं ले पा रही है, वो क्यों इस मुद्दे पर अहम पाले बैठी है. इस मामले में तो कांग्रेस उससे अधिक ही अंक ले जा रही है, क्योंकि यूपीए शासनकाल में मनमोहन सिंह सरकार से मंत्रियों के इस्तीफे होते रहे थे, आरोप लगे, हल्ला हुआ और इस्तीफा हुआ. लेकिन बीजेपी तो इतने तक भी नहीं पहुंची है. इससे हम बीजेपी की पॉलिटिक्स को भी समझ सकते हैं.
लेकिन आज की ये स्थिति बनी है कांग्रेस के दौर से ही. सत्ता राजनीति में भ्रष्टाचार के पहले पाठ इस देश की आजादी उपरांत के राजनैतिक इतिहास में कांग्रेसी सत्ताओं के भीतर या उनके इर्दगिर्द ही नजर आएंगे. आज भ्रष्टाचार पर बात करना ऐसा हो गया है जैसे सब्जी या दाल चावल का भाव पूछना. बोलने में कोई हिचक नहीं होती सोचने में भी निर्जीविता छाई रहती है. इतनी नैतिक हरकत अब नहीं रह गई है कि भ्रष्टाचार पर किसी की बात को कोई गंभीरता से ले. ये जैसे एक खेल हो गया है. देखा देखी राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों की राजनीति के पैमाने बदल गए हैं. आज त्रिपुरा की सरकार को छोड़ दें तो शायद कोई भी सरकार ऐसी नहीं होगी देश में जिस पर भ्रष्टाचार की तोहमतें न हों.
अब ये रोज का किस्सा और संसद के हवाले से कहें तो रोज की कुश्ती हो गई है. दूसरे आरोपों प्रत्यारोपों के साथ लोकतंत्र की इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार का मामला पीछे छूट रहा है. आज बीजेपी और उसके साथी दल संसद के कामकाज की दुहाई दे रहे हैं लेकिन एक साल पहले तक संसद में अपने वे दिन क्या भूल गए होंगे.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी