Friday , 1 November 2024

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भारत-पाक रिलोड – कश्मीर का इम्तहान

Passing out parade of new recruits in Kashmirजम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पिछले दशक की सबसे गंभीर वारदात हुई है जिसमें भारत के पांच जवान खेत हुए हैं| यह वारदात बहुत बारीकी से तैयार किया गया एक उकसावा ही लगती है| इस पर गौर करने से बहुत से सवाल सामने आते हैं|
उदाहरण के लिए, यह सवाल कि हमला करने वालों में कुछ पाकिस्तानी सेना की वर्दी में थे और कुछ कश्मीरी लड़ाकों जैसे – क्यों था ऐसा? क्या पाकिस्तानी सेना ने इस्लामपंथियों के साथ मिलकर भारत के खिलाफ कोई विशेष साझी कार्रवाई की?
बहुत मुमकिन है कि यह एक खूनी नाटक था जिसका मकसद नवाज़ शरीफ की नई पाकिस्तानी सरकार के इरादों पर शक पैदा करना था| रेडियो रूस के समीक्षक सेर्गेई तोमिन ने यह विचार व्यक्त किया है:
“दिल्ली और इस्लामाबाद के संबंधों की दूसरी घटनाओं का विश्लेषण करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि जम्मू-कश्मीर में इस वारदात का साफ-साफ राजनीतिक मकसद था – भारत और पाकिस्तान के संबंधों में “रिलोड” की जो उम्मीद बंध रही थी उस पर पानी फेरना| बहुत शीघ्र ही अगस्त के अंत या सितम्बर के शुरू में दोनों पक्षों की सीमावर्ती जल-संसाधनों के वितरण के सवाल पर भेंट होने जा रही थी| यह योजना भी बनाई जा रही थी कि सितम्बर में ही संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन के दौरान मनमोहन सिंह और नवाज़ शरीफ की मुलाकात होगी|”
मई में संसदीय चुनावों में मुस्लिम लीग (एन) की जीत हुई और नवाज़ शरीफ फिर से सत्ता में लौट आए – इस सबसे भारत और पाकिस्तान के बीच वार्तालाप फिर से शुरू करने के लिए अच्छी ज़मीन बन गई थी| नवाज़ शरीफ कभी भी पाकिस्तानी “बाजों” के दल में शामिल नहीं थे| फिर से प्रधानमंत्री पद-ग्रहण करने पर उन्होंने इस बात की पुष्टि की थी कि वह भारत के साथ संबंधों का विकास करना चाहते हैं|
1999 में पद-च्युत किए जाने से कुछ समय पहले नवाज़ शरीफ़ ने ही दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य करने और सहयोग बढाने के बारे में लाहौर घोषणापत्र पर अटल बिहारी वाजपेयी के साथ हस्ताक्षर किए थे| किंतु फिर पाकिस्तान में सेना ने सत्ता हथिया ली और दोनों देशों के संबंधों में बर्फीली हवाएं चलने लगीं| पूरे आठ साल तक जनरल परवेज़ मुशर्रफ सत्ता में रहे| भारत के प्रति अपना असली रुख तो उन्होंने तभी दिखा दिया था जब सत्ता हथियाने से पहले ही पकिस्तान सरकार को बताए बिना कारगिल में लड़ाई छेड़ दी थी| इसीलिए भारत के नेतृत्व में भी उन ताकतों का पलड़ा भारी हो गया जो इस्लामाबाद से आंखें तरेर कर बात करने के हक में थीं| यह टकराव 2002 की गर्मियों में अपने चरम शिखर पर पहुंच गया| सौभाग्यवश तब युद्ध की नौबत नहीं आई, हालंकि दोनों ओर से “युद्ध” शब्द बोला गया था, जिससे पता चलता था कि नेता इसके लिए तैयार हैं|
बहरहाल, अब 2002 की तरह राष्ट्रवादी सत्ता में नहीं हैं| कांग्रेस सरकार इस्लामाबाद से संबंधों में अधिक ठंडे दिमाग से और संतुलित ढंग से बात करने के पक्ष में है| भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने अपनी नियुक्ति के समय कहा था कि पाकिस्तान से सम्बन्धों को सामान्य बनाने को वह प्राथमिकता देंगे| सेर्गेई तोमिन आगे कहते हैं:
“पुंछ सेक्टर में हुई इस नई वारदात के बाद भारत सरकार बड़ी मुश्किल में पड़ गई है| पाकिस्तान ने आधिकारिक रूप से भले ही इस बात पर जोर दिया है कि भारतीय सैनिकों पर हमले में उसका कोई हाथ नहीं है, लेकिन भारत में जनमत उत्तेजित है| जनता यह चाहती है कि सरकार कोई ठोस दृढ़ कदम उठाए, उधर चुनाव भी बहुत दूर नहीं हैं| ऐसे में मनमोहन सिंह की सरकार के पास बहुत कम विकल्प हैं| वोट पाने की खातिर अगर एकदम अटल होने का दिखावा किया जाता है तो इससे संबंधों को सामान्य बनाने का मौका हाथ से जा सकता है| भारत और पाकिस्तान को ऐसे मौके बहुत कम ही मिलते हैं| 2014 के चुनावों में यदि बीजेपी की जीत होती है तो दक्षिण एशिया के परमाणु अस्त्र रखने वाले दोनों देशों के संबंधों में “शीत शांति” का लंबा दौर शुरू हो सकता है|”
ऐसी स्थिति में मनमोहन सिंह की सरकार दूसरा रास्ता अपना सकती है: उकसावों में न आया जाए और इस्लामाबाद के साथ वार्तालाप जारी रखा जाए| यदि यह वार्तालाप फलप्रद सिद्ध होता है तो इससे कांग्रेस को चुनावों में वोट मिलेंगे, नहीं तो यह बाजी उलटी पड़ेगी|

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