भारत ने मंगल ग्रह के लिए अपना पहला उपग्रह रवाना कर दिया है. चंद्रमा पर भेजे यान के बाद यह भारत का सबसे महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष अभियान है. अभियान की सफलता का पता अगले साल चलेगा.
पूर्वी तट के करीब श्रीहरिकोटा द्वीप से रॉकेट ने सीधे आकाश की ओर उड़ान भरी और 44 मिनट बाद रॉकेट से अलग हो कर उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में आ गया. यात्रा का पहला चरण सफल रहा.इसरो ने इस कार्यक्रम के सीधे प्रसारण का भी इंतजाम किया था जिसके जरिए भारत के इस ऐतिहास पल को लाखों लोगों ने टीवी पर देखा.
करीब 1350 किलो वजन वाला मंगलयान पहले पृथ्वी की कक्षा में रहेगा जहां कई तकनीकी बदलावों के बाद यह अपनी कक्षा बढ़ाएगा और फिर धीरे धीरे मंगल ओर बढ़ जाएगा. मंगलयान करीब 78 करोड़ किलोमीटर का सफर तय कर मंगल की कक्षा में पहुंचेगा इस काम में 300 से ज्यादा दिन लगेंगे यानी अगले साल सितंबर में यह मंगल के चारों ओर चक्कर लगा रहा होगा. भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो के प्रमुख के राधाकृष्णन ने कहा, “सबसे बड़ी चुनौती इस अंतरिक्ष यान को मार्स की तरफ ले जाना है. हम परीक्षा में सफल हुए कि नहीं यह अगले साल 24 सितंबर को पता चलेगा.”
मार्स अभियान के जरिए भारतीय वैज्ञानिकों मंगल ग्रह के वायुमंडल में मीथेन गैस की मौजूदगी का पता लगाना चाहते हैं. इसके जरिए वहां जीवन की संभावनाओं के बारे में जानकारी जुटाई जा सकेगी. नासा के खोजी यान क्यूरियोसिटी ने वहां मीथेन गैस के होने के कुछ संकेत भेजे हैं. भारतीय उपग्रह मंगल की सतह और वहां खनिजों के बारे में भी जानकारी हासिल करेगा.
भारत रूस, अमेरिका और यूरोप की तरह मंगल ग्रह की यात्रा सफल बनाना चाहता है. मंगल ग्रह के अभियानों में बहुत सी नाकामियां हाथ लगी हैं और ऐसे में अगर भारतीय अभियान सफल रहता है तो निश्चित रूप से उसका गौरव बढ़ेगा. इसी तरह का एक चीनी मिशन 2011 में तब नाकाम हो गया जब उपग्रह पृथ्वी की कक्षा से बाहर निकला ही नहीं.
भारत ने इस अभियान पर करीब 7.2 करोड़ डॉलर खर्च किए हैं. इसी तरह के एक अभियान पर अमेरिका जितना खर्च करने जा रहा है उसकी तुलाना में इसरो के इस अभियान का बजट बहुत मामूली है. विश्लेषक मानते हैं कि भारत अपनी किफायती तकनीक के बलबूते वैश्विक बाजार में बड़ी हिस्सेदारी हासिल कर सकता है. हालांकि इसके बावजूद 1.2 अरब की आबादी वाले देश में जहां भूख और गरीबी का बोलबाला है वहां इतना पैसा ऐसे कार्यक्रमों पर खर्च करने की आलोचना भी हो रही है. हालांकि भारत सरकार की दलील है कि वह वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के लिए उच्च तकनीक की नौकरियां पैदा करने में ऐसे कार्यक्रमों का महत्व समझती है, इसके साथ ही पृथ्वी की समस्याओं को सुलझाने में भी इन जानकारियों से मदद मिलेगी.
भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम करीब 50 साल पुराना है और यह पश्चिमी देशों के प्रतिबंध के जवाब में शुरू किया गया. 1974 में पहला परमाणु परीक्षण करने के बाद भारतीय वैज्ञानिकों को उन्नत रॉकेट बनाने से रोकने के लिए ये प्रतिबंध लगाए गए थे. प्रतिबंधों के दबाव में भारत ने बहुत तेजी से प्रगति की. हालांकि यह प्रगति रॉकेट के क्षेत्र में ही रही लड़ाकू विमान बनाने में भारत उतना कामयाब नहीं रहा. पांच साल पहले भारत ने चंद्रमा पर भी एक यान भेजा था जिसने वहां पानी होने के सबूत हासिल किये थे.from dw.de