बैसाखी की धूम की एक वजह यह भी है कि इस समय रबी फसलें कटकर घर आती हैं जिससे मन उत्साहित रहता है। इस वर्ष सूर्य 13 अप्रैल की आधी रात के बाद मेष राशि में प्रवेश करेगा। इसलिए वैशाखी का स्नान दान 14 अप्रैल की सुबह में होगा।
इतिहास में वैशाखी �
धार्मिक दृष्टि के अलावा ऐतिहासिक रूप से भी बैसाखी का त्योहार महत्वपूर्ण है। बात है सन् 1699 की, बैसाखी के अवसर पर गुरू गोविंद सिंह जी ने सिख समुदाय को आमंत्रित किया। गुरू का अदेश मिलते ही सभी सिख समुदाय आनंदपुर साहिब के उस बड़े से मैदान में पहुंच गये जहां पर गोविंद सिंह जी ने सभा का आयोजन किया था।
गोविंद सिंह जी ने एक नंगी तलवार लेकर सिख समुदाय को संबोधित किया कि मुझे सिर चाहिए। गुरू की बात सुनते ही सभा में सन्नाटा छा गया। तभी लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, “मेरा सिर हाजिर है”। गोविंद सिंह दयाराम को तंबू में ले गये और कुछ ही देर में तंबू से खून की धारा बहती नज़र आयी।
इसके बाद गोविंद सिंह फिर से मंच पर आये पुनः एक और सिर की मांग की। इस बार सहारनपुर भाई धर्मदास आगे आये। इन्हें भी तंबू में ले जाया गया और फिर तंबू से खून की धारा बह निकली।
इसके बाद क्रमशः जगन्नाथ पुरी निवासी हिम्मत राय, द्वारका निवासी मोहकम चंद और पांचवी बार बीदर निवासी साहिब चंद को तंबू में ले जाया गया और हर बार तंबू से खून की धारा बह निकली।
साहिब चंद को तंबू में ले जाने के बाद जब छठी बार गोविंद सिंह जी तंबू से बाहर निकले तो वह सभी लोग उनके साथ थे जिन्हें गुरू जी अपने साथ तंबू में ले गये थे। पांचों व्यक्ति ने कहा कि गुरू जी हमारी परीक्षा ले रहे थे, हर बार बकरे की बलि दी गयी।
इसके बाद गुरुजी ने सिख समुदाय को संबोधित करके कहा कि ये मेरे ‘पंच प्यारे’ हैं। इनकी निष्ठा से एक नए संप्रदाय का जन्म हुआ है जो खालसा कहलाएगा। खालसा की स्थापना करने के बाद गुरू गोविंद सिंह जी ने बड़ा सा कड़ाह मंगवाया। इसमे स्वच्छ जल भरा गया। गोविंद सिंह जी की पत्नी माता सुंदरी ने इसमे बताशे डाले। ‘पंच प्यारों’ ने कड़ाह में दूध डाला और गुरुजी ने गुरुवाणी का पाठ करते हुए उसमे खंडा चलाया।
इसके बाद गुरुजी ने कड़ाहे से शरबत निकालकर पांचो शिष्यों को अमृत रूप में दिया और कहा, “तुम सब आज से ‘सिंह’ कहलाओगे और अपने केश तथा दाढी बढाओगे। गुरू जी ने कहा कि केशों को संवारने के लिए तुम्हे एक कंघा रखना होगा। आत्मरक्षा के लिए एक कृपाण लेनी होगी।
सैनिको की तरह तुम्हे कच्छा धारण करना पड़ेगा और अपनी पहचान के लिए हाथों में कड़ा धारण करना होगा। इसके बाद गुरू जी ने सख्त हिदायत दी कि कभी किसी निर्बल व्यक्ति पर हाथ मत उठाना।
इसके बाद से सभी सिख खालसा पंथ के प्रतीक के रूप में केश, कंघा, कृपाण, कच्छा और कड़ा ये पांचों चिन्ह धारण करने लगे। नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। इस घटना के बाद से ही गुरू गोविंद राय गोविंद सिंह कहलाने लगे।
जिस प्रकार मकर राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर मकर संक्रांति का त्योहार मनाया जाता है उसी प्रकार सूर्य के मेष राशि में आने पर बैसाखी का त्योहार मनाया जाता है।
बैसाखी की धूम की एक वजह यह भी है कि इस समय रबी फसलें कटकर घर आती हैं जिससे मन उत्साहित रहता है। इस वर्ष सूर्य 13 अप्रैल की आधी रात के बाद मेष राशि में प्रवेश करेगा। इसलिए वैशाखी का स्नान दान 14 अप्रैल की सुबह में होगा।
इतिहास में वैशाखी �
धार्मिक दृष्टि के अलावा ऐतिहासिक रूप से भी बैसाखी का त्योहार महत्वपूर्ण है। बात है सन् 1699 की, बैसाखी के अवसर पर गुरू गोविंद सिंह जी ने सिख समुदाय को आमंत्रित किया। गुरू का अदेश मिलते ही सभी सिख समुदाय आनंदपुर साहिब के उस बड़े से मैदान में पहुंच गये जहां पर गोविंद सिंह जी ने सभा का आयोजन किया था।
गोविंद सिंह जी ने एक नंगी तलवार लेकर सिख समुदाय को संबोधित किया कि मुझे सिर चाहिए। गुरू की बात सुनते ही सभा में सन्नाटा छा गया। तभी लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, “मेरा सिर हाजिर है”। गोविंद सिंह दयाराम को तंबू में ले गये और कुछ ही देर में तंबू से खून की धारा बहती नज़र आयी।
इसके बाद गोविंद सिंह फिर से मंच पर आये पुनः एक और सिर की मांग की। इस बार सहारनपुर भाई धर्मदास आगे आये। इन्हें भी तंबू में ले जाया गया और फिर तंबू से खून की धारा बह निकली।
इसके बाद क्रमशः जगन्नाथ पुरी निवासी हिम्मत राय, द्वारका निवासी मोहकम चंद और पांचवी बार बीदर निवासी साहिब चंद को तंबू में ले जाया गया और हर बार तंबू से खून की धारा बह निकली।
साहिब चंद को तंबू में ले जाने के बाद जब छठी बार गोविंद सिंह जी तंबू से बाहर निकले तो वह सभी लोग उनके साथ थे जिन्हें गुरू जी अपने साथ तंबू में ले गये थे। पांचों व्यक्ति ने कहा कि गुरू जी हमारी परीक्षा ले रहे थे, हर बार बकरे की बलि दी गयी।
इसके बाद गुरुजी ने सिख समुदाय को संबोधित करके कहा कि ये मेरे ‘पंच प्यारे’ हैं। इनकी निष्ठा से एक नए संप्रदाय का जन्म हुआ है जो खालसा कहलाएगा। खालसा की स्थापना करने के बाद गुरू गोविंद सिंह जी ने बड़ा सा कड़ाह मंगवाया। इसमे स्वच्छ जल भरा गया। गोविंद सिंह जी की पत्नी माता सुंदरी ने इसमे बताशे डाले। ‘पंच प्यारों’ ने कड़ाह में दूध डाला और गुरुजी ने गुरुवाणी का पाठ करते हुए उसमे खंडा चलाया।
इसके बाद गुरुजी ने कड़ाहे से शरबत निकालकर पांचो शिष्यों को अमृत रूप में दिया और कहा, “तुम सब आज से ‘सिंह’ कहलाओगे और अपने केश तथा दाढी बढाओगे। गुरू जी ने कहा कि केशों को संवारने के लिए तुम्हे एक कंघा रखना होगा। आत्मरक्षा के लिए एक कृपाण लेनी होगी।
सैनिको की तरह तुम्हे कच्छा धारण करना पड़ेगा और अपनी पहचान के लिए हाथों में कड़ा धारण करना होगा। इसके बाद गुरू जी ने सख्त हिदायत दी कि कभी किसी निर्बल व्यक्ति पर हाथ मत उठाना।
इसके बाद से सभी सिख खालसा पंथ के प्रतीक के रूप में केश, कंघा, कृपाण, कच्छा और कड़ा ये पांचों चिन्ह धारण करने लगे। नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। इस घटना के बाद से ही गुरू गोविंद राय गोविंद सिंह कहलाने लगे।