redबांदा, 25 जनवरी-उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस में हुए गठबंधन से बुंदेलखंड के बांदा जिले की सदर विधानसभा सीट में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर भारी पड़ सकता है। यहां बसपा के ‘डीबीएम’ फॉर्मूले के कारगर होने के कम ही आसार हैं।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो मायावती ‘दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम’ (डीबीएम) के फॉर्मूले के आधार पर चुनाव जीत कर सूबे की सत्ता में काबिज होना चाहती हैं, लेकिन यह फॉर्मूला विधानमंडल के दोनों सदनों में नेता प्रतिपक्ष गयाचरण दिनकर और नसीमुद्दीन सिद्दीकी के गृह जिले बांदा की सदर सीट में ही कारगर होते नहीं दिख रहा। इसकी सबसे बड़ी वजह दलित मतों का बिखराव और सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण के होने वाले अंदेशे को माना जा रहा है।
पिछले विधानसभा चुनाव 2012 पर नजर डालें तो बांदा सदर सीट से कांग्रेस के विवेक सिंह (क्षत्रिय) ने 49,270 मत पाकर जीत हासिल की थी। बसपा के दिनेशचंद्र शुक्ला (ब्राह्मण) को 41,729, भाजपा के प्रभाकर अवस्थी (ब्राह्मण) को 24,890 और सपा की अमिता बाजपेयी (ब्राह्मण) को 24,625 मत मिले थे।
मौजूदा मतदाता सूची के जातीय समीकरण के अनुसार, सदर सीट में दलित करीब 81,000, ब्राह्मण 39,500, कुशवाहा 29,000, मुस्लिम 26,500, वैश्य 23,500, यादव 19,000, क्षत्रिय 18,500, लोधी 12,000, कायस्थ 9,500 और कुम्हार साढ़े नौ हजार के आस-पास मतदाता हैं। सदर सीट में कुल मतदाताओं की संख्या 3,02,942 है, इनमें 1,36,024 महिला और 1,66,901 पुरुष मतदाता शामिल हैं।
बसपा की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह करीब 81 हजार दलित मतों को एक विशेष दलित कौम (जाटव) मान कर राजनीतिक गुणा-भाग लगाती है, जबकि तल्ख सच्चाई यह है कि इन दलित मतों में आधे से ज्यादा कोरी, धोबी, सोनकर, मेहतर, कुछबंधिया और पासी बिरादरी भी शामिल है, जो लगातार राजनीतिक उपेक्षा के चलते बसपा से अलग होती जा रही है।
इस बार के चुनाव में बसपा से डॉ. मधुसूदन कुशवाहा, भाजपा से प्रकाश द्विवेदी और गठबंधन खाते में कांग्रेस पाले से निवर्तमान विधायक विवेक सिंह चुनाव मैदान में होंगे। हालांकि सदर सीट से 1991 के चुनाव बसपा के नसीमुद्दीन सिद्दीकी और 2007 में बसपा के ही बाबूलाल कुशवाहा विधायक चुने जा चुके हैं। यहां के मुस्लिम मतदाता भाजपा उम्मीदवार को हराने में सक्षम दल और उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करते आए हैं, अबकी बार भी यही होने के कयास लगाए जा रहे हैं।
हालांकि बसपा के बांदा सदर से उम्मीदवार डॉ. मधुसूदन कुशवाहा ने मंगलवार को कहा कि ‘सपा-कांग्रेस गठबंधन का असर बसपा पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि निवर्तमान विधायक और कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार से मतदाता काफी खुश नहीं है।’ वह कहते हैं कि ‘सपा के पूर्व घोषित उम्मीदवार हसनुद्दीन सिद्दीकी के चुनाव लड़ने से आंशिक असर पड़ रहा था, लेकिन अब बसपा का मुस्लिम वोट बिखरने से बच गया है।’
बुंदेलखंड़ के राजनीतिक विश्लेषक रणवीर सिंह चौहान एड़ कहते हैं कि ‘सपा-कांग्रेस गठबंधन बसपा और भाजपा दोनों पर भारी पड़ सकता है। बसपा जहां जातीय समीकरणों की भूल से मात खा सकती है, वहीं भाजपा को मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण से काफी क्षति उठानी पड़ सकती है।’
उन्होंने कहा कि बसपा से राजनीतिक तौर उपेक्षित दलित मतदाताओं को जो दल अपनी ओर खींच लेगा, उसी की फतह संभव है। अनुसूचित वर्ग में कुछ कौमें ऐसी हैं, जो चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करती हैं। 1991 और 2007 के चुनाव में ये कौमें बसपा के साथ जुड़ी थीं, अब बसपा से इनका मोहभंग सा हो गया है।