बांदा, 19 मार्च (आईएएनएस)। ‘फगुनइया तोरी अजब बहार चइत मा..’ जैसे बुंदेली होली गीत बुंदेलखंड क्षेत्र के गांव-देहात की चौपालों से अब नदारद हैं। दो दशक पहले तक फाल्गुन मास चढ़ते ही चौपालों पर रोजाना दोपहर व शाम को फगुआरिन (महिलाओं) और फगुआर (पुरुषों) की टोलियों की महफिलें सज जाया करती थीं और फगुआ गीतों की बयार बहने लगती थी। लेकिन अब न तो चौपालें बची हैं और न ही बुंदेली फगुआ गायक व गायिकाएं ही नजर आ रही हैं।
बांदा, 19 मार्च (आईएएनएस)। ‘फगुनइया तोरी अजब बहार चइत मा..’ जैसे बुंदेली होली गीत बुंदेलखंड क्षेत्र के गांव-देहात की चौपालों से अब नदारद हैं। दो दशक पहले तक फाल्गुन मास चढ़ते ही चौपालों पर रोजाना दोपहर व शाम को फगुआरिन (महिलाओं) और फगुआर (पुरुषों) की टोलियों की महफिलें सज जाया करती थीं और फगुआ गीतों की बयार बहने लगती थी। लेकिन अब न तो चौपालें बची हैं और न ही बुंदेली फगुआ गायक व गायिकाएं ही नजर आ रही हैं।
उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड के गांवों में कभी तकरीबन हर घर के मुख्यद्वार पर चौपालें हुआ करती थीं, जहां फाल्गुन मास लगते ही होली गीत ‘फगुनइया तोरी अजब बहार, चइत मा गोरी मचल रही नइहर मा’ जैसे फगुआ गीत बुंदेली साज-संगीत (ढोलक, झांज व मजीरा) की थाप के साथ सुनाई देते रहे हैं। मगर इधर दो दशक बाद ये फगुआ गीत गुजरे जमाने की बात जैसी हो गए हैं। पहले इन गीतों के माध्यम से समाज में सामाजिक समरसता भी कायम होती थी और मनमुटाव या रंजिश की कोई गुंजाइश नहीं होती थी, लेकिन अब इसे बिगड़ते सामाजिक संतुलन का नतीजा ही कहा जा सकता है।
बांदा जिले की नरैनी तहसील क्षेत्र के बुजुर्ग फगुआर शिवकुमार कोरी (72) बताते हैं कि अब से बीस साल पहले ज्यादातर कच्चे घरों के रेहन (मुख्यद्वार) में चौपालें हुआ करती थीं, जहां फाल्गुन मास लगते ही रोजाना दोपहर और शाम को होली गीत (फगुआ) सुनने के लिए बच्चे, युवा, बुजुर्ग और महिलाएं बिना बुलाए इकट्ठा हो जाया करते थे। अब जमाना बदला, सो परंपरा भी बदलती जा रही है।
वह कहते हैं, “तब जाति, धर्म और समुदाय के बीच खाई नहीं थी, अब सब कुछ इसके उलट है। इंसान को इंसान नहीं समझा जा रहा, उसे ऊंच और नीच में बांटा जा रहा है। यही वजह है कि गली-मुहल्लों के वाशिंदे भी एक-दूसरे से सुबह-शाम रामा-केशनी करने से कतराते हैं।”
नरैनी से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव पनगरा की फगुआरिन (महिला होली गीत गायिका) सगुनिया रैदास (76) बताती हैं कि 20-25 साल पहले दर्जनभर फगुआरिनें दो टोलियां बनाकर झुंड की शक्ल में सार्वजनिक स्थल ‘सरांय’ में ढोलक, मजीरा और झांज के साथ आधी रात तक फगुआ गीत गाकर एक-दूसरी टोली को हराया करती थीं। अब नई पीढ़ियों पर भरोसा नहीं रह गया, इसलिए सिर्फ होली के त्योहार में एक-दो गीत दिन गाकर रस्म पूरी की जाने लगी है।
बरसाने की लट्ठमार होली की तरह बुंदेली फगुआ गीत भी चर्चित रहे हैं और सामाज में समरसता कायम करने में भी सहायक हुआ करते थे, लेकिन अब सामाजिक ताना-बाना इतना बिगड़ चुका है कि सैकड़ों साल पुरानी परंपराओं का भी खात्मा होता जा रहा है। अगर वोटबैंक बनाने के लिए सामाजिक समरसता खत्म करने की चालें चली जाती रहीं तो बुंदेली संस्कृति पूरी तरह विलुप्त हो जाएगी।