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 पूर्वी विवाहों में अगुवा का महत्व | dharmpath.com

Saturday , 23 November 2024

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पूर्वी विवाहों में अगुवा का महत्व

 

imagesविवाह संस्कार को इस दुनिया का एक मात्र ऐसा संस्कार अथवा रस्म कहा जा सकता है जो न तो

 

किसी भूगोल के दायरे में बंधा है और न ही इसपर किसी समाज विशेष का ही कोई निजित्व कायम है।वैवाहिक संस्कार हर समाज,हर देश और हर संस्कृति का अभिन्न अंग है। भारत विविधताओं का देश है अत: स्वाभाविक तौर पर यहाँ के विविध समाजों की अपनी-अपनी वैवाहिक पद्धतियाँ जरुर होंगी। अगर बात उत्तर भारत के बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश की वैवाहिक पद्धति की करें तो तमाम ऐसे संस्कारों,रस्मो एवं संस्कृतियों का चित्र उभर कर सामने आयेंगे जो शायद एक सीमित भूगोल के दायरे में सदियों से अनवरत चलते आ रहे हैं। यूपी-बिहार में विवाहों का एक खास मौसम होता है जिसे स्थानीय भाषा में लगन कहते हैं। गोवर्धन पूजा यानी गोधन-कुटाई के बाद लगन शुरू हो जाता है एवं विवाह संबंधी प्रक्रियाएं भी समानंतर रूप से शुरू हो जाती है। वहाँ के विवाहों में प्राथमिक स्तर पर सबसे बड़ा योगदान अगुवा का होता है। अगुवा यानी वो व्यक्ति जो वर एवं कन्या पक्ष के प्रथम मुलाक़ात एवं बात की कड़ी बनता है। विवाह में अगुवा न सिर्फ काफी महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है, बल्कि उसके ऊपर लड़का-लड़की दोनों ही पक्षों के प्रति बड़ी जवाबदेही भी होती है । क्योंकि, विवाह में कुछ भी इधर-उधर होने की स्थिति में सारा ठीकरा अगुवा पर ही फूटता है । इस कारण प्रायः अगुवा घर-परिवार से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति ही बनता है । खैर, अगुवा लड़का-लड़की दोनों पक्षों को मिला भर देता है, पर विवाह तय होने के लिए सर्वाधिक आवश्यक होता है कि लड़का-लड़की के कुंडलियों के हिसाब से गुण मिलें । ये कार्य ज्योतिष के ज्ञाता पंडित लोगों से करवाया जाता है और मान्यतानुसार कुल ३६ में से अगर न्यूनतम २८ गुण भी मिल गए तो विवाह का योग मान लिया जाता है । गुण-मिलान के बाद पंडित ही ग्रह-नक्षत्र, लग्न-मुहूर्त आदि के आधार पर विवाह के लिए उपयुक्त तारीखें बताते हैं, जिनमे से लड़का-लड़की दोनों पक्षों की सहमति से तिलक, विवाह आदि रश्मों के लिए तारीखें तय की जाती हैं ।

विवाह तय होने के बाद लड़की पक्ष की तरफ से पहली रश्म ‘वररक्षा’ (बरच्छा) की होती है । ये रश्म लड़की का भाई निभाता है । इसके अंतर्गत वधू पक्ष की तरफ से वर पक्ष के सभी सदस्यों को वस्त्र तथा वर को वस्त्र समेत अंगूठी आदि आभूषण भी दिए जाते हैं । कुल मिलाकर इस रश्म का आशय ये होता है कि वधू पक्ष द्वारा वर को अपने लिए सुरक्षित कर लिया गया । इसी कारण इस रश्म को वररक्षा कहते हैं । कुछ लोग ये रश्म विवाह की तारीख से काफी पहले ही निभा लेते हैं, तो कुछ लोग इसे भी तिलक की रश्म के साथ-साथ ही करते हैं । तात्पर्य ये है कि ये रश्म सुविधायुक्त समय देखकर निभाई जाती है, इसके लिए कोई निश्चित या अनिवार्य समय नहीं होता । वररक्षा या बरच्छा की रश्म के बाद से वर-वधू दोनों पक्षों के घरों में औरतों द्वारा विवाह के गीत-गान शुरू हो जाते हैं । गीत गाने के लिए घर-घर बुलावा जाता है और महिलाऐं जुटकर विवाह के मधुर-मधुर गीत गाती हैं । फिर बारी आती है तिलक के रश्म की । तुलनात्मक रूप से तिलक की रश्म वधू पक्ष की अपेक्षा वर पक्ष के लिए थोड़ी अधिक महत्वपूर्ण होती है । मूल रूप से ये रश्म भी वररक्षा की रश्म जैसी ही होती है, लेकिन वररक्षा की अपेक्षा इसमें भव्यता अधिक होती है । इसके अंतर्गत वधू पक्ष तथा उनके गाँव-क्षेत्र के लोग जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘तिलकहरू’ कहा जाता है, चढावा के सामानों के साथ वर पक्ष के यहाँ आते हैं । फिर वधू का भाई और वर आमने सामने बैठते हैं । वेदमंत्रों के द्वारा वर का पूजन होता है और वधू का भाई उसे तिलक लगाता है तथा साथ लाया चढावा का सभी सामान एक-एक कर वर के हाथ से स्पर्श कराकर उसे सौंप दिया जाता है । फिर वर की माँ, बहन, भाभी आदि सभी महिलाओं द्वारा साठी के चावल से वर का चुमावन किया जाता है । इस अवसर पर तमाम गीत आदि होते हैं । उदाहरणार्थ, एक गीत का मुखड़ा है,

एक मुट्ठी साठी चाऊर, बाबू के चुमावन हो

इहे बाबू हऊवें अपनी अम्मा के ललन हो..

इस प्रकार तिलक की प्रक्रिया पूरी होती है । तिलक की रश्म पूरी होने के साथ ही वर-वधू दोनों का शगुन उठ जाता है । शगुन उठने के साथ ही शादी के दिन तक के लिए लड़की के नहाने आदि पर रोक लग जाती है । यहाँ तक कि घर से बाहर भी बेहद आवश्यक होने पर ही निकलने दिया जाता है । हालांकि लड़के के नहाने आदि पर तो कोई प्रतिबन्ध नहीं लगता है, लेकिन घर से बाहर निकलने के विषय में उसपर भी ये नियम तकरीबन लड़की जैसे ही लागू होते हैं । तत्पश्चात, विवाह से एक-दो दिन पहले वर-वधू दोनों पक्षों में ‘मटकोड़वा’ की रश्म होती है । दोनों पक्षों की महिलाओं द्वारा वर व वधू को लेकर किसी ऐसे खेत आदि में जाया जाता है, जहाँ दूब हो । इस दौरान नगाड़ा के साथ चमार बुलाया जाता है, नगाड़े का ‘मानर पूजन’ होता है, पूर्वजों का नाम लेकर गीत होते हैं । फिर दूब वाले स्थान पर तथा उसके बाद किसी कुँए पर बुआ या बहन आदि के द्वारा माटी कोड़ी जाती है । दरअसल यह पूरी प्रक्रिया का निहितार्थ भूमि-पूजन एवं मिट्टी पूजन से होता है। इस रस्म में खोदी गई मिट्टी लाकर घर में रखा जाता है जिससे कि ‘मतिर पूजा’ की रस्म होती है । मटकोड़वा के बाद लड़का-लड़की दोनों को हल्दी लगाने की रस्म होती है । दोनों के घरों के महिला-पुरुष सदस्यों द्वारा वर-वधू को हल्दी लगाई जाती है । हल्दी लगाने की रस्म के भी कई गीत होते हैं । उदाहरणार्थ, एक मुखड़ा प्रस्तुत है:

कहाँ बाड़े दर-दयादिन, कहाँ पाँचों भाई हो  

कहाँ बाड़े भईया, कवन भईया हरदी चढ़ाई हो  

हल्दी लगने, मतिर पूजा होने, कोहारवत उतरने के बाद लड़का-लड़की के नहावावन की रस्म होती है। इसके बाद एकतरफ जहाँ वधू पक्ष की तरफ बरात स्वागत की तैयारियां हो रहीं होती हैं तो वहीँ दुसरी तरफ वरपक्ष की तरफ परछावन की तैयारी चल रही होती है। परछावन का अर्थ रस्मों की उस प्रक्रिया से है जिसमे पुरे गाँव की महिलायें दुल्हे को साथ लेकर गाँव के सभी मंदिरों एवं पूज्य स्थानों की पूजा के लिए गाजे-बाजे के साथ घूमती हैं एवं बारात निकलने से पूर्व दुल्हे को चावल-काजल आदि के साथ उसकी नजर उतारी जाती है। इन रस्मों के गाने भी बड़े मनोहारी होते हैं।

दल साजन-साजन साजे,

दलवा त साजे लें कवन बाबा हो, उनकर पूता बियाहन जालें।

तत्पश्चात बरात जब वधू पक्ष के यहाँ पहुचती है तो स्वागत-जलपान के साथ-साथ सबसे पहली रस्म द्वार पूजा की होती है जिसमे वधू पक्ष का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति एवं दूल्हा आमने-सामने बैठते हैं। मंत्रोचारण के बीच पूजन प्रक्रिया सम्पन्न होती है। रात भर चलने वाले विवाह-प्रक्रिया का प्रथम चरण शुरू होता है “गुर-हथन” के साथ। गुर-हथन में वर पक्ष की तरफ से वर को छोड़कर तमाम सभी वधू के आँगन में जाते हैं और वधू के लिए लाये गए गहने-कपड़े आदि विधिवत पूजन प्रक्रिया के साथ दुल्हे के बड़े भाई यानी भसुर जी द्वारा वधू की हाथों में सौपा जाता है। इसी दौरान ठिठोली का क्रम चलता है और वधू पक्ष की महिलायें भसुर के नाम गारी-गीत गाती हैं। इसके बाद की प्रक्रिया में वर को आँगन में बुलाया जाता है और पीढयी पर बिठाया जाता है। वर एवं वधू संयुक्त रूप से बैठते हैं फिर वधू के भाई द्वारा पानि-ग्रहण की संवेदनात्मक रस्म निभाई जाती है। फिर सिंदूर-दान(सेनुरदान) की रस्म, फेरों की रस्म, मन्त्रों एवं मनोहारी गीतों के बीच निभाई जाती है। विवाह संपन्न होने के बाद कोहबर की रस्म फिर सुबह में दुल्हे की विदाई स्वरुप परछावन की रस्म भी खूब रोचक होती है। इन सबके बीच दुल्हन की विदाई के समय पूरा माहौल नम हो जाता है और सबकी आँखे डबडबाई नजर आती हैं। फिर बारता विदा होती है और दुल्हन एक नए संसार में आकर रचने बसने लगती है।

(शिवानन्द द्विवेदी)1231246_712472618766091_1414369783_n

 

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