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Wednesday , 27 November 2024

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पाकिस्तान और सजा-ए-मौत

प्रभुनाथ शुक्ल

प्रभुनाथ शुक्ल

नई दिल्ली, 23 मार्च (आईएएनएस/आईपीएन)। दुनिया के कई मुल्कों में सरेआम फांसी की सजा आज भी कानूनी रूप से वैध है। इसमें अरब जगत के मुल्क भी शामिल हैं। वहां आज भी किसी गुनहगार को सजा सरेआम दी जाती है। कोड़े मारना और मुजरिम को बीच सड़क पर फांसी पर लटकाना यानी सजा-ए-मौत का तरीका जग जाहिर है। कभी-कभी भीड़ खुद अपराधी को पत्थर मार-मार कर सजा देती है। मगर सवाल है कि ऐसे बर्बर तरीके क्या न्याय प्रक्रिया का हिस्सा माने जा सकते हैं?

दुनियाभर में फांसी की सजा के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकारवादी संगठन इसकी जंग लड़ रहे हैं। सजा-ए-मौत यानी फांसी की सजा पर सावल उठने लगे हैं। इस तरह के संगठन मौत की सजा यानी फांसी को अमानवीय मानते हैं। लेकिन वैश्विक स्तर पर इसे अभी मान्यता नहीं मिल सकी है।

भारत में भी फांसी की सजा को कानूनी मान्यता है। हालांकि यहां राष्ट्रद्रोह या किसी अक्षम्य जुर्म में ही इसकी स्वीकृति दी जाती है। यहां की न्याय प्रक्रिया सहिष्णु है। पश्चिम बंगाल के धनंजय चटर्जी के मामलों को छोड़कर अभी तक कम ही मामलों में इस तरह की सजा सुनाई गई है। चटर्जी को दुष्कर्म के आरोप में फांसी की सजा दी गई थी। इस अपवाद को छोड़कर आतंकी आमिर अजमल कसाब और संसद पर हमले का मास्टर माइंड अफजल गुरु को फांसी दी गई।

फांसी की सजा को लेकर पाकिस्तान इन दिनों संयुक्तराष्ट्र संघ और मानवाधिकार संगठन के निशाने पर है। इनकी ओर से बराबर मांग की जा रही है कि पाकिस्तान में फांसी की सजा पर प्रतिबंध लगाया जाए।

यहां अब तक 54 आतंकियों और दूसरे लोगों को फांसी की सजा मिल चुकी है। पाकिस्तान ने पिछले साल सेना के एक स्कूल में हुए आतंकी हमले के बाद कानून में बदलाव करते हुए फांसी की सजा पर जारी प्रतिबंध हटा लिया है। पाकिस्तान ने सिर्फ आतंकियों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी प्रकार के जुर्मों में सजा पाए लोगों के लिए मौत यानी फांसी की सजा को बहाल किया है। पाकिस्तान की जेलों में 8,000 से अधिक लोगों को मौत की सजा मिली है।

संयुक्त राष्ट्र संघ पाकिस्तान पर बराबर दबाब बना रहा है कि पाक फांसी पर प्रतिबंध जारी रखे। लेकन आतंक के चलते अंदर तक हिला पाकिस्तान संघ की इस मांग को मानने को तैयार नहीं है। हालांकि पाकिस्तान की यह नीति अभी दिखावा हो सकती है, क्योंकि उसे मालूम है कि कानून में ढील अधिक दिन नहीं चल सकती है क्योंकि मानवाधिकार संगठन और संयुक्तराष्ट्र संघ इसे लेकर गंभीर है।

संयुक्तराष्ट्र संघ यह वकालत करता रहा है कि अपराध के समय जिसकी उम्र 18 साल से कम रही हो यानी वह अपराध के समय नाबालिग रहा हो, उसे फांसी की सजा न दी जाए। इसके पीछे उसका तर्क है कि नाबालिग की स्थिति में अपराध करने वालों की सोच और समझने की क्षमता का विकास नहीं हुआ होता है। इस स्थिति में गलतफहमी में किए गए जुर्म की सजा फांसी नहीं हो सकती है।

लेकिन पाकिस्तान का तर्क है कि उसने हर तरह के अपराधों में फांसी की सजा बहाल रखी है सिर्फ आतंकवाद मामलों में ही नहीं। निश्चित तौर पर संयुक्त राष्ट्र की मांग जायज है। पाकिस्तान आतंकवाद पर खड़ा रुख अख्तियार कर सकता है। लेकिन उसे इस पर चिंतन करने की जरुरत है। नाबालिगों की तरफ से किया गया जुर्म किसी सोची समझी रणनीति का नतीजा नहीं कहा जा सकता है।

निश्चित तौर पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से उठाई गई मांग जायज है। इस पर पाकिस्तान सरकार को अपना नजरिया बदलना चाहिए। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए निर्भया कांड में शामिल लोगों में एक नाबालिग भी है। लेकिन उस पर अलग से मामला चल रहा है, क्योंकि भारत में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड हैं। यहां बाल अपराधियों पर अलग से सुनाई की जाती है। वहीं बाल अपराधियों के लिए किसी जुर्म के लिए अधिकतम तीन साल से अधिक की सजा नहीं दी जा सकती।

पाकिस्तान बाल अपराधियों को कैसे आतंकियों की श्रेणी में रखता है। वह आतंक और बाल अपराध की सजा को किस तरह समानता के तराजू में तौलता है। यह उसकी सोच पर सवाल उठता है। पाकिस्तान को बाल अपराध और आतंकवाद पर समीक्षा करने की आवश्यकता है।

आतंकवाद पर रहमदिली नहीं अपनाई जा सकती, क्योंकि आतंकवाद अमानवीयता का घिनौना चेहरा है, मगर सभी प्रकार के अपराधों के लिए फांसी की सजा गलत है। आतंकवाद और दूसरे अपराधों में जमीन आसमान का फासला है। आतंकवाद सोची समझीरणी का हिस्सा है। दुनिया में भर में भय और दहशत फैलाने के लिए जिस सोची समझी रणनीति का आतंकवादी नजरिया अपनाते हैं, वह निश्चित तौर पर जघन्यतम है। सभ्य समाज में इस अमानवीयता को प्रश्रय नहीं दिया जा सकता।

आतंकवाद की करतूतों के लिए सजा-ए-मौत को वाजिब ठहराया जा सकता है, क्योंकि आतंकवाद के नजरिए को देखते हुए इसकी सजा भी उसकी की भाषा में दी जानी चाहिए।

आईएसआईएस ने जिस तरह से दुनिया में अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए घृणित और अमानवीय हिंसा का सहारा लिया है, वह आतंक और अपराध का सबसे बर्बर रूप है। अमेरिका, जापान और दूसरे देशों के पत्रकारों को जिस तरह कत्लेआम किया गया और पिंजरे में बंद कर बेगुनाह लोगों को जिंदा जलाया गया उसे देख रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

आईएसआई और बोकोहराम का नजरिया आतंकवाद का सबसे घिनौना चेहरा है। अपनी बातों को मनवाने का जो तरीका अपनाया जा रहा है। उससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है, लेकिन मानवीय इतिहास में जिस बर्बर न्याय और सोच की अवधारणा का इन आतंकी संगठनों ने नींव रखी है, उससे मानवीय सभ्यता का इतिहास कलंकित हो गया है। उस स्थिति में आतंकवाद और उसके हिमायतियों पर कोई ढील नहीं देनी चाहिए।

लेकिन पाकिस्तान और दुनियाभर को बाल अपराध पर अपने नजरिए को बदलना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से उठाई गई मांग जायज है। पाकिस्तान सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

(लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं)

पाकिस्तान और सजा-ए-मौत Reviewed by on . प्रभुनाथ शुक्लप्रभुनाथ शुक्लनई दिल्ली, 23 मार्च (आईएएनएस/आईपीएन)। दुनिया के कई मुल्कों में सरेआम फांसी की सजा आज भी कानूनी रूप से वैध है। इसमें अरब जगत के मुल्क प्रभुनाथ शुक्लप्रभुनाथ शुक्लनई दिल्ली, 23 मार्च (आईएएनएस/आईपीएन)। दुनिया के कई मुल्कों में सरेआम फांसी की सजा आज भी कानूनी रूप से वैध है। इसमें अरब जगत के मुल्क Rating:
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