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परंपराओं को संजोए है बिहार की होली

पटना, 4 मार्च (आईएएनएस)। देश भर में परंपराओं के मुताबिक होली वर्षारंभ की दस्तक है और इससे एक दिन पहले सम्मत अर्थात संवत होता है। पुरानी वस्तुओं के ढेर को जलाने की जो कथा है उससे अलग इसकी परंपरा अत्यंत गहरी है और वह है गेहूं की बालियों को उसकी आग में भून कर लाना। इन तमाम परंपराओं से अलग बिहार की होली राष्ट्रीय परंपराओं का एक मिश्रित और सम्मिलित रूप है जो यहां के गायन में दिखता है।

मिथकीय कथा के अनुसार पिता हिरण कश्यप और उनके बेटे भक्त प्रहलाद के बीच युद्ध की चरम स्थिति होलिका द्वारा प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रविष्ट होना और प्रहलाद का वहां से बच निकलने की खुशी का ही प्रतीक होली है। इसी कहानी में आगे भगवान श्रीकृष्ण आते हैं और होली का गायन उन्हीं के इर्दगिर्द घूमता है। बिहार में जिन शैलियों में होली का गायन है उसमें ब्रज भाषा का गायन और मगध क्षेत्र का धमाल है। इससे अलग श्रमिक वर्ग या तथाकथित सवर्ण वर्ग से इतर वर्ग का जोगीरा गायन है।

गायन होली में दल सवाल और उत्तर गाते हैं। सवाल और उलाहने गोपियों के होते हैं और उत्तर गोपाल के होते हैं। इस परंपरा में वाद्य गायन का साथ देता है और गीत की प्रधानता तो होती ही है राग अपनी लय से आगे बढ़ता चलता है और अंत में राग अपनी लय के साथ ही विराम तक पहुंचता है।

धमाल में गायन तुरंत ही चरम पर पहुंचता है और अंत में अचानक ही उसकी परिणति आती है। होली की इस गायन शैली में राग शिखर पर ही बना रहता है।

इससे अलग होली की एक और खासियत है कि इसमें सूफी गायन भी शामिल रहता है। जोहम कवि भी कबीर की परंपरा के कवि थे और उनके लिखे गीत आज भी होली में ही गाए जाते हैं लेकिन उसमें रंग में सराबोर जिस कपड़े का जिक्र है वह कुछ और नहीं मनुष्य का शरीर है।

गायन की परंपरा मिथिला के क्षेत्र में है तो धमाल मगध क्षेत्र की। भोजपुरी में दोनों का मिश्रित रूप है लेकिन उसपर धमाल हावी है।

जोगीरा में जो कुछ कहा जाता है उसमें अश्लीलता और तंज का ज्यादा प्रयोग होता है। कबीर के दोहों का बिगड़ा हुआ रूप सुनकर अटपटा सा लगता है। ग्रामीण सभ्रांत परिवारों में दामाद को जोगीरा सुनाने की प्रथा आज भी है और ऐसे गायकों को पुरस्कार दिया जाता है।

झारखंड के विनोवा भावे विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर और मिथिला निवासी विमलेश्वर झा ने बताया कि बसंतपंचमी से ही होली की धूम शुरू हो जाती है। बसंतपंचमी की संध्या पर गांव के लोग एक सार्वजनिक स्थान पर ढोलक-झाल के साथ एकत्र होकर होली गाते हैं जिसे ‘ताल ठोकाई’ कहा जाता है। इसे होली पर्व का आगाज माना जाता है।

बिहार के समस्तीपुर जिले के भिरहा और पटोरी गांव में आज भी परंपरागत रूप से मनाई जाने वाली होली की खासियत बरकरार है। भिरहा में झरीलाल पोखर में गांव के विभिन्न टोलों के लोग पहुंच जाते हैं। वे सभी लोग पोखर में ही विभिन्न रंगों को घोलकर एक साथ स्नान करते हैं। ढोल, मंजीरे के साथ जुलूस की शक्ल में होलिका दहन करने सारे ग्रामीण उसी तालाब के पास आते हैं।

समस्तीपुर के वरिष्ठ पत्रकार और सांस्कृतिक परंपराओं के जानकार योगेंद्र पोद्दार ने बताया कि पटोरी में आज भी ‘छाता होली’ का प्रचलन है। पटोरी तथा इसके आसपास के क्षेत्र के लोग यहां होली के दिन इकट्ठा होते हैं, सभी के हाथों में छाता होता है। इस दौरान लोग एक-दूसरे को रंगने की कोशिश करते हैं जबकि लोग रंग से बचने के लिए छाते का इस्तेमाल करते हैं। इस दौरान होली के गीत गाए जाते हैं।

वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अच्युतानंद ने भोजपुर की होली के बारे में बताया, “होली खेलने की अब पहले जैसी परंपरा नहीं रही। पहले जैसे ढोलक-झाल लेकर गांव-गांव घूमकर फगुआ गाने का प्रचलन था, जो अब नहीं रहा। अब फगुआ के नाम पर मोबाइल में डाउनलोड किए भोजपुरी गीत सुनते को मिलते हैं।”

परंपराओं को संजोए है बिहार की होली Reviewed by on . पटना, 4 मार्च (आईएएनएस)। देश भर में परंपराओं के मुताबिक होली वर्षारंभ की दस्तक है और इससे एक दिन पहले सम्मत अर्थात संवत होता है। पुरानी वस्तुओं के ढेर को जलाने पटना, 4 मार्च (आईएएनएस)। देश भर में परंपराओं के मुताबिक होली वर्षारंभ की दस्तक है और इससे एक दिन पहले सम्मत अर्थात संवत होता है। पुरानी वस्तुओं के ढेर को जलाने Rating:
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