बांदा, 26 जनवरी (आईएएनएस)। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जहां एक तरफ देश के 66वें गणतंत्र दिवस का जश्न मनाया जा रहा था, वहीं देश के एक अति पिछड़े हिस्से बुंदेलखंड में गरीब बच्चों का गणतंत्र रोटी के जुगाड़ में बीत गया।
बांदा, 26 जनवरी (आईएएनएस)। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जहां एक तरफ देश के 66वें गणतंत्र दिवस का जश्न मनाया जा रहा था, वहीं देश के एक अति पिछड़े हिस्से बुंदेलखंड में गरीब बच्चों का गणतंत्र रोटी के जुगाड़ में बीत गया।
देश का भविष्य कहे जाने वाले मनिया, भूरा, रजनी और शुभम भी अन्य बच्चों के साथ स्कूल जाकर गणतंत्र दिवस समारोह में हिस्सा लेना चाहते थे, मगर उनकी किस्मत में ऐसा कहां। वे सोमवार सुबह से ही अपने हाथों में तिरंगा और कंधे में कबाड़ का थैला टांगे कूड़े के ढेर में दो वक्त की रोटी की तलाश में जुटे रहे।
‘इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के, यह देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के’ -यह गीत गाने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है, लेकिन हकीकत से कोसों दूर है। जिस देश के गणतंत्र दिवस पर दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद रहे हों, उसी देश के बच्चे इस दिन हाथ में तिरंगा लेकर कूड़े के ढेर में कबाड़ चुनकर दो वक्त की रोटी जुटाते रहे।
इन बच्चों का गणतंत्र क्या यही है!
बुंदेलखंड में बांदा जिले के अतर्रा कस्बे में रेलवे स्टेशन के पास झोपड़ी बना कर रह रहे एक दर्जन परिवारों के बच्चों ने 66वां गणतंत्र दिवस किसी स्कूल में नहीं, बल्कि कूड़े के ढेर में कबाड़ चुनकर मनाया।
हाथ में तिरंगा और कंधे पर कबाड़ वाला थैला टांगे मनिया (13), भूरा (10), रजनी (9) और शुभम (7) तो सिर्फ बानगी हैं।
बुंदेलखंड में सैकड़ों बच्चे ऐसे हैं, जो रोजाना की भांति गणतंत्र दिवस के पर्व से बेखर हो सुबह से ही दो वक्त की रोटी की तलाश में कुड़े के ढेर में पुराना लोहा, कांच और प्लॉस्टिक की बोतलें ढूंढ़ रहे हैं।
तेरह साल के बच्चे मनिया ने बताया, “वह भी अन्य बच्चों के साथ किसी स्कूल में जाकर ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ गीत गाना चाहता था, पर कबाड़ न चुनने (बीनने) पर शाम को मां-बाप की डांट सुननी पड़ती।”
उसने बताया, “सुबह जब अपने तीन साथियों के साथ कबाड़ चुनने कुनबे से निकले तो सड़क पर कतार में चल रहे स्कूली बच्चों से यह झंडा मांग लिया।”
भूरा का कहना है, “उसके मां-बाप यहां खजूर के झाडू बनाकर परिवार का भरण-पोषण करते हैं, वह दिन भर कबाड़ चुनकर 20 से 30 रुपये कमा लेता है।”
स्कूल न जाने के बारे में वह बताता है कि गरीब होने के करण मां-बाप नहीं पढ़ाते।
नौ साल की रजनी भी इनके साथ कंधे पर कबाड़ का थैला टांगे कूड़े के ढेर में रोटी की तलाश कर रही है। वह बताती है कि वह पढ़ना चाहती है और बच्चों के साथ खेलना भी चाहती है, लेकिन घर में कुछ न होने के कारण कबाड़ चुनना मजबूरी है। कुछ करेंगे नहीं तो खाएंगे क्या?
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी के संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ से जुड़े बांदा के सामाजिक कार्यकर्ता धर्मेन्द्र सिंह गौतम का कहना है, “बुंदेलखंड में हजारों बच्चे रोजाना कबाड़ चुनकर रोटी का जुगाड़ करते हैं। गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस, इनके लिए आम दिन जैसे हैं। ऐसे बच्चों का सर्वे कराया जा रहा है, जिनकी पढ़ाई का पुख्ता प्रबंध किया जाएगा।”