धर्मपथ-दत्तभक्त अपने परम श्रद्धेय दत्तात्रेय देवताकी उपासना विविध प्रकारसे करते ही हैं । पूजापाठ, आरती जैसी उपासनाकी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ एवं दत्तात्रेय देवतासे अखंड संयोग साध्य करवानेवाली एकमात्र उपासना है उनका नामजप । कलियुगमें `नामजप’ ही सर्वोत्तम साधना है । अनेक संतोंने भी कहा है कि, नामजपके बिना पर्याय नहीं ।
हममें से अधिकांश लोगोंको दत्तात्रेय देवताके बारेमें जो थोड़ी-बहुत जानकारी होती है, वह बहुधा कहीं पढ़ी अथवा सुनी गई कथाओंसे होती है । अल्प जानकारीके कारण दत्तात्रेय देवतापर हमारा विश्वास भी थोड़ा-बहुत ही हो पाता है । अधिक जानकारी प्राप्त होनेपर देवतापर अधिक विश्वास निर्माण होनेमें सहायता मिलती है एवं साधना भी अच्छी होती है । इसी उद्देश्यको ध्यानमें रखकर यहां दत्तात्रेय देवताके बारेमें अन्यत्र न उपलब्ध; परंतु उपयुक्त अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी दी गई है ।
‘दत्त’ नामका भावार्थ क्या है ?
दत्त यानी ‘दिया गया’ अर्थात् ‘मैं ब्रह्म ही हूं, मुक्त ही हूं’ ऐसी निर्गुणकी अनुभूति जिसे दी गई हो, उसे दत्त कहते हैं । दत्तात्रेय देवताको निर्गुणकी अनुभूति जन्मसे ही प्राप्त थी; परंतु साधकोंको इस प्रकारकी अनुभूति प्राप्त करनेमें कितने ही जन्मोंतक साधना करनी पड़ती है । इससे स्पष्ट होता है कि, दत्तात्रेय देवता अन्य देवताओंके समान नहीं हैं ।
दत्तात्रेय देवताका एक अन्य सुपरिचित नाम है अवधूत । अवधूत यानी प्रकृतिके सर्व विकारोंको यानी सत्त्व, रज एवं तमके त्रिगुणोंको धो डालनेवाला, उन्हें नष्ट करनेवाला अर्थात् भक्तको निर्गुणकी अनुभूति देनेवाला ।
‘अलख निरंजन’ जयघोषका भावार्थ क्या है ?
दत्तात्रेय देवताका एक प्रचलित जयघोष है ‘अलख निरंजन’ । ‘अलख निरंजन’का भावार्थ इस प्रकार है । अंजन यानी अज्ञान । अज्ञान नष्ट होना यानी निरंजन; इसलिए निरंजनका अर्थ है ज्ञान होना । लक्ष यानी देखना अथवा देख पाना । अलक्ष यानी वह जो इतना चमकीला, तेजस्वी है कि, उसे देख न पाएं । ‘अलक्ष’ शब्दका अपभ्रंश है ‘अलख’ । तो ‘अलख निरंजन’ का अर्थ हुआ, ज्ञानका चमकीला तेज, जिसे देख पाना संभव न होते हुए भी उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है ।
‘दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा’ इस साधनामंत्रका भावार्थ
दत्तात्रेय देवताका साधनामंत्र ‘दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा’ विशेष प्रचलित है । इसका भावार्थ इस प्रकार है । दिक् यानी दिशा और अंबर यानी वस्त्र । इससे ज्ञात होता है कि ‘दिगंबरा’ यानी वह जिसका दिशाएं ही वस्त्र है, अर्थात् जो सर्वव्यापी है । ‘श्री’ यानी लक्ष्मी तथा लक्ष्मी जिनके चरणोंमें हैं वे हैं ‘श्रीपाद’ । ‘श्रीपाद वल्लभ’ अर्थात् वे जिनके चरणोंमें लक्ष्मी हैं और जो लक्ष्मीके स्वामी हैं अर्थात् श्रीविष्णु ।
श्री दत्तात्रेयका साधककी दृष्टिसे महत्त्व
हिंदू धर्ममें अनेक देवी-देवता हैं । उनमें से गुरु स्वरूपमें पूजे जानेवाले एकमात्र देवता हैं दत्तात्रेय । इसीलिए ‘श्री गुरुदेव दत्त’का जयघोष किया जाता है । दत्तात्रेय देवता गुरुतत्त्वके आदर्श एवं योगके उपदेष्टा हैं । दत्तात्रेयके यदु, सहस्रार्जुन, परशुराम इत्यादि शिष्य प्रसिद्ध हैं । दत्तात्रेय देवताके गुरुरूपके कारण शैव एवं वैष्णव, दोनों संप्रदायोंको ये देवता अपने लगते हैं । दत्तात्रेय देवता गुरुतत्त्वका कार्य करते हैं, इसीलिए समस्त जन जबतक मोक्षको नहीं पा लेते, तबतक इनका कार्य जारी ही रहता है ।
दत्त एवं उनके गुरु
विश्वकी प्रत्येक वस्तु गुरु है, क्योंकि अनिष्ट बातोंसे हम सीखते हैं कि कौनसे दुर्गुण त्यागने हैं एवं अच्छी बातोंसे सीखते हैं कि, कौनसे सद्गुण ग्रहण करने हैं । इसीलिए दत्तात्रेय देवताने २४ गुरु एवं अनेक उपगुरु बनाए । इसका एक उदाहरण देखते हैं । दत्तात्रेय देवताने वृक्षको अपना गुरु बनाकर उनसे यह बोध लिया । जिस प्रकार वृक्ष फलपुष्पोंसे लद जानेपर, अधिक नमश् हो जाता है एवं अधिक परोपकार करता है उसी प्रकार संपत्ति प्राप्त होनेपर मनुष्य नमश् होकर परोपकार करे । दत्तात्रेय देवता समान हम भी विविध गुणगुरु बनाकर अपने दुर्गुणोंका भागाकार एवं सद्गुणोंका गुणाकार करें, तो हमें ईश्वरप्राप्ति शीघ्र हो सकती है ।
दत्त एवं उनकी वस्तुओंका भावार्थ
दत्तात्रेय देवतामें बश्ह्मा, विष्णु एवं महेश, इन त्रिदेवोंके तत्त्व हैं । उनके हाथमें बश्ह्मदेवके कमंडल एवं जपमाला हैं, विष्णुके शंख एवं चक्र हैं तथा शिवजीके त्रिशूल एवं डमरू हैं । इनमें से प्रत्येक वस्तुका विशिष्ट भावार्थ है, उदा. कमंडल त्यागका प्रतीक है ।
दत्तात्रेय देवताके कंधेपर एक झोली भी होती है । उसका भावार्थ इस प्रकार है । झोली, मधुमक्खीका प्रतीक है । जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न स्थानोंपर जाकर शहद जमा करती है, उसी प्रकार दत्तात्रेय दर-दर घूमकर झोलीमें भिक्षा जमा करते हंैं । दर-दर जाकर भिक्षा मांगनेसे अहं शीघश्तासे कम होता है । इसलिए झोली, अहं नष्ट होनेका प्रतीक है ।
दत्त एवं उनका परिवार
दत्तात्रेय देवताकी विशेषता है कि, वे कभी भी अकेले नहीं दिखाई देते, सहपरिवार होते हैं । परिवारका आध्यात्मिक अर्थ इस प्रकार है ।
अ. दत्तात्रेय देवताके पीछे जो गाय है, वह पृथ्वी एवं कामधेनुका प्रतीक है ।
आ. चार कुत्ते, चार वेदोंके प्रतीक हैं ।
गाय एवं कुत्ते, एक प्रकारसे दत्तात्रेय देवताके अस्त्र भी हैं । गाय अपने सींग मारकर एवं कुत्ते काटकर शत्रुसे रक्षण करते हैं ।
इ. औदुंबर यानी गूलरका वृक्ष दत्तात्रेयका पूजनीय रूप है; क्योंकि उसमें दत्त तत्त्व अधिक होता है ।
दत्तकी उपासना एवं शास्त्र
आधारभूत शास्त्रको समझकर देवताकी उपासना करनेसे उपासना अधिक श्रद्धापूर्वक होती है । श्रद्धापूर्वक की गई उपासनाका फल भी अच्छा मिलता है । उपासनासे संबंधित कृति अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोणसे और योग्य पद्धतिसे होना भी आवश्यक है, क्योंकि ऐसी कृतिसे ही अधिक फल प्राप्त होता है । यह उद्देश्य ध्यानमें रखकर यहां दत्तात्रेयकी उपासनाका आधारभूत शास्त्र दिया गया है ।
दत्तात्रेयपूजन आरंभ करनेसे पूर्व छिगुनी यानी छोटी उंगलतीके पासवाली उंगली ‘अनामिका’से अपने मस्तकपर विष्णु समान दो रेखावाला खड़ा तिलक लगाएं । इस प्रकार टीका लगानेसे दत्तात्रेयतत्त्वका लाभ अधिक मिलता है । साथ ही गंधकी सात्त्विकताके कारण भावजागृति होती है एवं पूजामें मन शीघश् ही एकाग्र होता है । इस कारण पूजासे मिलनेवाला चैतन्य अधिक ग्रहण किया जा सकता है ।
दत्तात्रेयपूजनमें उन्हें छिगुनीके पासवाली उंगली ‘अनामिका’से तिलक लगाएं । हलदी-कुमकुम चढ़ाते समय पहले हलदी एवं बादमें कुमकुम दाहिने हाथके अंगूठे एवं अनामिकामें चुटकीभर लेकर उनके चरणोंपर चढ़ाएं । पूजा करनेसे पूर्व पिछले दिनका निर्माल्य (पिछले दिनके बासे फूल) निकालते समय भी अंगूठे तथा अनामिकाका ही प्रयोग करें । अंगूठे एवं अनामिकाको जोड़नेसे तैयार मुद्राके कारण शरीरमें अनाहतचक्र जागृत होता है एवं इससे भक्तिभाव बढ़ता है ।
विशिष्ट फूलोंमें विशिष्ट देवताका तत्त्व आकृष्ट करनेकी क्षमता अन्य फूलोंकी तुलनामें अधिक होता है ।
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