तरुण तेजपाल अपने ही एक नॉवल, “मेरे कातिलों की कहानी” के एक किरदार जैसे दिखते हैं. उन पर लगे यौन दुराचार के आरोप ने सत्ता और ताकत, फिर चाहे वो मीडिया, पत्रकार और प्रतिष्ठा की ही क्यों न हो, उसे बेनकाब कर दिया है.
अपने पत्रकारीय और प्रबंधकीय तेज से देश-विदेश में अपार ख्याति, प्रताप और ऐश्वर्य बटोर चुके तेजपाल के इर्दगिर्द अब स्तब्धता, अपमान, शर्म, सजा और फजीहत का एक बड़ा घेरा खिंच गया है. तेजपाल कुख्यात यौन हमलावर, दुर्दांत भ्रष्टाचारी और निकृष्ट पेशेवर की तरह पेश किए जा रहे हैं. अचानक खबरों की और मुद्दों की सारी सुईयां तेजी से घूमती हुई तेजपाल पर अटक गई हैं. तेजपाल की कथित यौन जघन्यता की मीडिया कवरेज भी कम भयानक नहीं, ये देखकर भय ही लगता है. इस बहाने हम कॉरपोरेट पूंजीवादी मीडिया के कई विद्रूपों को भी पढ़ सकते हैं. मीडिया संस्थानों में पसरा हुआ उच्छृंखल मर्दवाद, एजेंडा सेटिंग का मीडिया उन्माद, ट्रायलवाद, श्रेष्ठता ग्रंथि, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, असुरक्षा, भाषा और कंटेंट का लिजलिजापन. इन गिरावटों की फेहरिस्त लंबी है.
असल में जिस तरह की प्रवृत्तियां सामने आ रही हैं उनमें समाज और उसमें भी सबसे वंचित तबकों को घेरने, उसे अपमानित करने, उन पर हमला करने और उन्हें खदेड़ने के लिए नवउदारवादी दबंगई की भरमार है. तेजपाल की झपटमारी हो या बीजेपी के ‘वीर’ नेता विजय जॉली का तहलका की पूर्व प्रबंध संपादक शोमा चौधरी के घर के बाहर नारेबाजी और नेमप्लेट पर कालिख पोतने की हरकत या गुजरात का स्नूपिंग कांड या इससे पहले दिल्ली मुंबई, यूपी, असम और देश के कई हिस्सों में हुई-होती आ रहीं बलात्कार की जघन्य वारदातें. और पीछे चले जाएं- एक अंग्रेजी टीवी चैनल के स्वनामधन्यों की सोशल एक्टिविस्ट शबनम हाशमी और लेखिका अरुंधति रॉय के साथ बदसलूकी. एक चैनल का दिल्ली की शिक्षिका उमा खुराना का फर्जी स्टिंग. और पीछे भी जाएं तो 2002 के दंगों में महिलाओं पर हुई अकल्पनीय बर्बरता, 1992-93, 1984, 1947. आजाद भारत की तारीखों से भी पीछे जाएंगें तो आप स्त्री शोषण की भयावह दास्तानें पाते रहेंगे.