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 तन्त्र का कलियुग में महत्त्व | dharmpath.com

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तन्त्र का कलियुग में महत्त्व

March 26, 2016 10:06 am by: Category: धर्म-अध्यात्म Comments Off on तन्त्र का कलियुग में महत्त्व A+ / A-
शिव का अघोर-स्वरुप

शिव का अघोर-स्वरुप

तंत्रशास्त्र को “आगम” भी कहते हैं.यह आगम -मार्ग,निगम (वेदमार्ग) से भिन्न माना जाता है और तांत्रिकों की यह धारणा है कि कलियुग में  बिना तंत्र -प्रतिपादित मार्ग के निस्तार नहीं है.अथर्ववेद तथा कौशिक-सूत्र आदि में तंत्र शब्द का जो प्रयोग हुआ है,उससे विस्तार-अर्थ में “तनु” धातु से “तंत्र” शब्द के साधुत्व की पुष्टि होती है.सामान्य रूप में कहा जा सकता है की वेदोक्त मन्त्रों का यज्ञादि में प्रयोग तथा उससे सम्बद्ध विधियों का जो विस्तार हुआ है ,उसे तंत्र की संज्ञा दी गयी है .“रूद्रयामल तन्त्र “ में अनेक श्लोक ऐसे हैं,जिनसे यह प्रगट होता है कि तंत्रशास्त्र और अथर्ववेद में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है.भैरव देव भैरवी से कहते हैं अथर्ववेद सब वर्णों का सार है और उसमें शक्त्याचार का प्रतिपादन है.

तंत्र ग्रंथों से,सामान्यतः संतमत की सभी शाखाओं का और विशेषतः अघोर सम्प्रदाय का सीधा सम्बन्ध है.तन्त्र-ग्रंथों के अध्ययन से यह पता चलेगा कि वे प्रायः शिव और पार्वती के कथोपकथन के रूप में लिखे गए हैं.इनके मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं-तन्त्र,साधना और योग.वाराहितन्त्र में आगम अथवा तंत्र के साथ लषण हैं-सृष्टि ,प्रलय,देवतार्चन,साधन,पुरश्चरण,षट्कर्म और ध्यानयोग.ये केवल कुछ मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं,किन्तु इनके अतिरिक्त शत-सहस्त्र ऐसे बिंदु हैं,जिनका समावेश तन्त्रग्रंथों में हुआ है.संतमत में हम बराबर षटचक्रों का का उल्लेख पाते हैं वह मुख्यतः तंत्रशास्त्र की ही दें है.तन्त्रग्रंथों की विषय-व्यापकता को देखते हुए उन्हें “ज्ञान का विश्वकोश” कहा गया है.”आर्थर एवेलों”, ने “तंत्र-तत्व” की भूमिका में “विष्णुक्रान्ता ” क्षेत्र के ६४ तन्त्रों और,”रथक्रान्ता” क्षेत्र के ६४ तन्त्रों,  “अश्वक्रान्ता” क्षेत्र के ६४ तन्त्रों अर्थात,कुल मिलाकर १९२ तन्त्रों का उल्लेख किया है.

तन्त्र-शास्त्र एक सम्पूर्ण शास्त्र है,जिसमें मष्तिष्क,ह्रदय तथा कर्मेन्द्रियों (ज्ञान,इच्छा तथा क्रिया) तीनों के लिए प्रचुर सामग्री मिलती है”कुलार्णव-तन्त्र” में कहा गया है सबसे उत्तम है-तत्व चिंतन ,माध्यम है -जप चिंतन,अधम है -शास्त्र चिंतन,और अधमाधम है -लोक चिंतन.पुनश्च ,सहजावस्था उत्तम है ,ध्यान धारणा मध्यम है ,जप स्तुति अधम है और अधमाधम है-होम-पूजा .अन्य प्रसंगों में जप की महिमा सामान्यतः गाई गयी है .इससे यह स्पष्तः प्रतीत होता है कि तन्त्रशास्त्रों में बाह्याचार का विधान होते हुए भी उसे ध्यान ,समाधि ,जप आदि से निकृष्ट माना गया है.

हिन्दू-शास्त्रों को चार कोटियों में विभाजित किया जाता है -श्रुति ,स्मृति,पुराण और तन्त्र.”कुलार्णव तन्त्र” के अनुसार इनमें से प्रत्येक एक-एक युग के लिए उपयुक्त है.श्रुति सत्ययुग के लिए,स्मृति त्रेता युग के लिए ,पुराण द्वापर युग के लिए और तन्त्र कलियुग के लिए.आशय यह है कि परंपरागत भावना के अनुसार सत्ययुग से कलियुग तक धर्म का उत्तरोत्तर ह्वास होता आ रहा है .अतः इस युग में वेदविहित निवृत्तिमार्ग सर्वसुलभ नहीं है.फलतः तंत्रशास्त्र में ऐसी साधना-पद्धति का विधान है जिसमें मानव की सहज प्रवृत्ति का निरोध न होते हुए मोक्ष की प्राप्ति हो सके.इसका तात्पर्य नहीं की निवृत्तिमार्ग निषिद्ध है.प्रत्युत ,यह की प्रवृत्तिमार्ग की अपेक्षा निवृत्तिमार्ग श्रश्रेयस्कर है.किन्तु कलि की जैसी परिस्थिति है ,उसमें प्रवृत्तिमार्ग की विशेष उपयुक्तता है.मनु ने लिखा है,”प्रवृत्तिरेषा भूताना निवृत्तिस्तु महाफलाँ”. मानव की सहज प्रवृत्ति की और संकेत करते हुए महानिर्वाण तन्त्र में यह लिखा है ,”हे देवी,मनुष्यों को भोजन और मैथुन स्वभावतः प्रिय होते हैं और कल्याण की दृष्टि से शैव धर्म में उनका निरूपण है.”

तन्त्र-शास्त्र सहज एवं स्वाभाविक होने के कारण सुगम भी है.इसमें अन्य शास्त्रों की भाँति अध्यन- अध्यापन ,तर्क-वितर्क आदि की विशेष अपेक्षा नहीं होती.मन्त्रों में इतनी शक्ति होती है कि यदि उनका विधिवत साधन किया जाय ,तो वे आशुसिद्ध्प्रद होते हैं.इसीलिए कभी-कभी तन्त्र शास्त्र को “मन्त्रशास्त्र” भी कहते हैं.साधन-प्रधान होने के कारण इसे “साधन-तंत्र “भी कहते हैं.तन्त्र का दावा है कि वह साधक को तत्क्षण इष्टफल की उपलब्धि कराता है.इस दृष्टि से इसे “प्रत्य्क्षशास्त्र”भी संबोधित किया गया है.तांत्रिकों का विशवास है जब तक वैदिक रीति से साधना रुपी वृक्ष में फूल उगेंगे,तब तक तांत्रिक पध्धति से उसमें फल लगने लगेंगे .(क्रमशः)

प्रस्तुतकर्ता का कथन- सिंहस्थ २०१६ का आगमन निकट है ,मैंने देखा की सनातन के इस प्रमुख मिलन में तन्त्र-शास्त्र जैसे विषय की चर्चा आवश्यक है.सनातन के इस गूढ़ वैज्ञानिक ज्ञान को कुछ स्वार्थी-तत्व न जानते हुए भी लोगों में उसके प्रति भ्रम उत्त्पन्न कर चने- चबेने के मूल्य पर विक्रय कर रहे हैं.अतः जन-मानस के ह्रदय में इस महान धरोहर को जानने-समझने एवं अंगीकार करने के लिए रुचि जागृति हेतु यह लेख समर्पित है.हमारी इतनी हस्ती नहीं की हम इसे प्रतिपादित कर पायें लेकिन जो ज्ञान हमारे पूर्वज धरोहर के स्वरूप में छोड़ गए हैं उसकी प्रस्तुति का प्रयास है.

प्रस्तुतकर्ता- अनिल कुमार सिंह “अनल”

सन्दर्भ-अघोर मत सिद्धांत एवं साधना (डॉ सरोज कुमार मिश्र ),कुलार्णव तंत्र,रुद्रयामल,योगिनी तंत्र .

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