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 जहां धूमधाम से होती है चांद की पूजा | dharmpath.com

Monday , 21 April 2025

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जहां धूमधाम से होती है चांद की पूजा

नई दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। चौठचंद्र (चौरचन) मिथिला का एक ऐसा त्योहार है, जिसमें चांद की पूजा बड़ी धूमधाम से होती है। मिथिला की संस्कृति में सदियों से प्रकृति संरक्षण और उसके मान-सम्मान को बढ़ावा दिया जाता रहा है।

नई दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। चौठचंद्र (चौरचन) मिथिला का एक ऐसा त्योहार है, जिसमें चांद की पूजा बड़ी धूमधाम से होती है। मिथिला की संस्कृति में सदियों से प्रकृति संरक्षण और उसके मान-सम्मान को बढ़ावा दिया जाता रहा है।

मिथिला के अधिकांश पर्व-त्योहार मुख्य तौर पर प्रकृति से ही जुड़े होते हैं, चाहे वह छठ में सूर्य की उपासना हो या चौरचन में चांद की पूजा का विधान। मिथिला के लोगों का जीवन प्राकृतिक संसाधनों से भरा-पूरा है, उन्हें प्रकृति से जीवन के निर्वहन करने के लिए सभी चीजें मिली हुई हैं और वे लोग इसका पूरा सम्मान करते हैं। इस प्रकार मिथिला की संस्कृति में प्रकृति की पूजा उपासना का विशेष महत्व है और इसका अपना वैज्ञानिक आधार भी है।

मिथिला में गणेश चतुर्थी के दिन चौरचन पर्व मानाया जाता है। कई जगहों पर इसे चौठचंद्र नाम से भी जाना जाता है। इस दिन मिथिलांचल के लोग काफी उत्साह में दिखाई देते हैं। लोग विधि-विधान के साथ चंद्रमा की पूजा करते हैं। इसके लिए घर की महिलाएं पूरा दिन व्रत करती हैं और शाम के समय चांद के साथ गणेश जी की पूजा करती हैं।

सूर्यास्त होने और चंद्रमा के प्रकट होने पर घर के आंगन में सबसे पहले अरिपन (मिथिला में कच्चे चावल को पीसकर बनाई जाने वाली अल्पना या रंगोली) बनाया जाता है। उस पर पूजा-पाठ की सभी सामग्री रखकर गणेश तथा चांद की पूजा करने की परंपरा है। इस पूजा-पाठ में कई तरह के पकवान जिसमें खीर, पूड़ी, पिरुकिया (गुझिया) और मिठाई में खाजा-लड्डू तथा फल के तौर पर केला, खीरा, शरीफा, संतरा आदि चढ़ाया जाता है।

घर की बुजुर्ग स्त्री या व्रती महिला आंगन में बांस के बने बर्तन में सभी सामग्री रखकर चंद्रमा को अर्पित करती हैं, यानी हाथ उठाती हैं। इस दौरान अन्य महिलाएं गाना गाती हैं ‘पूजा के करबै ओरियान गै बहिना, चौरचन के चंदा सोहाओन।’ यह दृश्य अत्यंत मनोरम होता है।

चौरचन पर्व मनाने के पीछे जो कारण है, वह अपने आप में बहुत खास है। आखिर लोक परंपरा में किसी भी त्योहार को मनाने के पीछे एक खास मनोवृत्ति या मनोविज्ञान होता है, जो किन्हीं कारणों से गढ़ा जाता है। मिथिला में चौरचन मनाए जाने के पीछे भी एक खास तरह की मनोवृत्ति छिपी हुई है।

माना जाता है कि इस दिन चांद को शाप दिया गया था। इस कारण इस दिन चांद को देखने से कलंक लगने का भय होता है। परंपरा से यह कहानी प्रचलित है कि गणेश को देखकर चांद ने अपनी सुंदरता पर घमंड करते हुए उनका मजाक उड़ाया। इस पर गणेश ने क्रोधित होकर उन्हें यह शाप दिया कि चांद को देखने से लोगों को समाज से कलंकित होना पड़ेगा। इस शाप से मलित होकर चांद खुद को छोटा महसूस करने लगा।

शाप से मुक्ति पाने के लिए चांद ने भाद्र मास, जिसे भादो कहते हैं की चतुर्थी तिथि को गणेश पूजा की। तब जाकर गणेश जी ने कहा, “जो आज की तिथि में चांद के पूजा के साथ मेरी पूजा करेगा, उसको कलंक नहीं लगेगा।” तब से यह प्रथा प्रचलित है।

चौरचन पूजा यहां के लोग सदियों से इसी अर्थ में मनाते आ रहे हैं। पूजा में शरीक सभी लोग अपने हाथ में कोई न कोई फल जैसे खीरा व केला रखकर चांद की अराधना एवं दर्शन करते हैं। चैठचंद्र की पूजा के दैरान मिट्टी के विशेष बर्तन, जिसे मैथिली में अथरा कहते हैं, में दही जमाया जाता है। इस दही का स्वाद विशिष्ट एवं अपूर्व होता है।

चांद की पूजा सभी धर्मो में है। मुस्लिम धर्म में चांद का काफी महत्व है। इसे अल्लाह का रूप माना जाता है। अमुक दिन चांद जब दिखाई देता है तो ईद की घोषणा की जाती है। चांद देखने के लिए लोग काफी व्याकुल रहते हैं।

मिथिला में हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मावलंबियों के बीच गजब का समन्वय है। यही कारण है कि यहां कभी कोई दंगा-फसाद की खबर सृजित नहीं होती है। हो सकता है कि धार्मिक आधार कहीं न कहीं एक-दूसरे के साथ समन्वय बनाने में मदद करता हो।

चांद की रोशनी से शीतलता मिलती है। इस रोशनी को इजोरिया (चांदनी) कहते हैं। चांदनी रात पर कई गाने हैं जो रोमांचित करता है। प्रकृति का नियम है जो रात-दिन चलता रहता है। दोनों का अपना महत्व है। अमावस्या यानी काली रात, पूर्णिमा यानी पूरे चांद वाली रात।

भादव महीने में अमावस्या के बाद चतुर्थी तिथि को लोग चांद की पूजा करते हैं, जिससे दोष निवारण होता है। साथ ही कार्तिक पूर्णिमा के दिन मिथिला में चांद की पूजा ‘कोजागरा’ के रूप में मनाया जाता है। चौठचंद्र की पूजा में एक विशेष श्लोक पढ़ा जाता है :

सिंहप्रसेन मवधीत सिंहोजाम्बवताहत:

सुकुमारक मारोदीपस्तेह्यषव स्यमन्तक:।।

(लेखक डॉ. बीरबल झा, ब्रिटिश लिंग्वा के प्रबंध निदेशक एवं मिथिलालोक फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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