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 घुसपैठिया कौन…’शेरखान’ या ‘हम’ ? | dharmpath.com

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घुसपैठिया कौन…’शेरखान’ या ‘हम’ ?

September 9, 2015 9:13 pm by: Category: ब्लॉग से Comments Off on घुसपैठिया कौन…’शेरखान’ या ‘हम’ ? A+ / A-

ये मारीशस या किसी अफ्रीकी देश से अपने पूर्वजों की जमीन की तलाश में आने वाले राजनेता का मामला नहीं है, जो पॉजीटिव न्यूज बने। ये तो उस शेरखान की अपनी जमीन की तलाश है…जिसके डीएनए में उसके पूर्वज लिख गए थे कि ये जमीन…ये टेरेटरी तुम्हारी है। लेकिन वही शेरखान…वही जंगल का राजा आज अपनी ही जमीन पर अतिक्रामक हो गया है। किसी गांव के अनपढ़ किसान की तरह जिसकी जमीन पटवारी ने किसी रसूखदार के नाम चढ़ा दी और वो अपनी ही पूर्वजों की माटी में अतिक्रमणकारी साबित कर दिया गया।

जी हां, मध्यप्रदेश  की राजधानी भोपाल में आजकल यही हो रहा है। इस माटी की जिन विशेषताओं को देख कर 1956 में इसे राजधानी बनाने का निर्णय लिया गया था, पानी, जमीन और हरी भरी सुरम्य वादियां। शेरखान के पूर्वजों ने ही तो इसे संभाला था और आज वही यहां घुसपैठिया हो गया ! भारत का राष्ट्रीय पशु होने का गौरव भी आज उसके लिए ठीक वैसे ही बेमानी है…जैसे देश की सीमा पर शहीद हुए किसी सैनिक के परिवार के लिए वो गौरव बेमानी होते हैं, जो परिवार की गाड़ी न खीच सकें। तो साहब, भोपाल में राष्ट्रीय पशु बाघ के लिए जगह नहीं। राजधानी के आसपास के उन जंगलों में भी नहीं, जहां कभी उनका राज चलता था। कलियासोत बांध हो या केरवा या फिर कोलार बांध का एरिया। हर उस इलाके में इंसानों ने बस्ती बसा ली है…जहां कभी बाघ स्वच्छंद विचरण करता था।

खबरें आ रही हैं कि भोपाल के आसपास सात बाघ आ गए हैं। कभी ये कलियासोत डैम के पास मार्निंग और इवनिंग वॉक करने वालों को देखते हैं। तो कभी सरकार और साहबबहादुरों की कृपा से जंगल की सुरम्य भूमि में गुरुकुल की तर्ज पर बन गए कॉलेज और स्कूल के रास्ते में स्टूडेंट्स की आती-जाती गाड़ियो को देख सड़क छोड़ देते हैं। सुनहरी खाल पर काली पट्टियों वाले इस शानदार जानवर को अपनी जमीन पर आने वाले घुसपैठियों से भय ही तो है…जो वह इंसानों के लिए अदब से रास्ता छोड़ देता है। घंटों झाड़ियों में दुबक कर भूखा-प्यासा बैठा रहता है। इंतजार करता है कि दो पैर वाला ये खतरनाक जानवर चला जाए फिर वो अपना ठौर तलाशे। जगह बदले। लेकिन जाए तो जाए कहां। अपने ही विचरण स्थल में बेगाना हो गया है। आखिर ये जगह टूरिस्ट स्पॉट जो बन गयी है और वो अपनी ही जमीन में अवांछित।
शेर के लिए शेर होना ही काफी नहीं है। उसके लिए तो आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति है। जंगल में जहां वो पैदा हुआ..पला बढ़ा, वहीं पर उससे बलशाली शेर का कब्जा है। उसने ही तो धकिया कर इंसानों की बस्ती के करीब विरल जंगल की ओर धकेला है। सरकारी रिकार्ड में कभी यह जंगल ही था। छोटे झाड़ का या फिर बड़े झाड़ का।लेकिन अब पता नहीं कैसे कंक्रीट का जंगल हो गया है।शायद… किसी “राजा” को केरवा का यह जंगल भा गया और उन्होंने अपनी कोठी तान दी। कोठी भी ऐसी जिसमें शेर का निवाला बनने वाले हिरण मनोरंजन के लिए पाले गए थे…याद है ना, कैद में बेजार हुए एक कृष्ण मृग ने यहां तैनात एक संतरी के पेट में अपने ऐेसे सींग घोंप दिए थे कि मौके पर ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए। वो हिरण तो शाकाहारी था….पता नहीं इंसानों की सोहबत में हिंसक कैसे हुआ। हिंसक हुआ तो इतना हिंसक कैसे हुआ कि….? इस कोठी की देखादेखी और भी रसूखदारों ने अपने बंगले और कोठियां तान दीं…बिर्री-बिर्री…छिछली-छिछली…इतनी दूर-दूर…मानो ये जंगल उनकी टेरेटरी हो।बीच-बीच में कुकुरमुत्तों की तरह और भी घर उग गए। शहर के शोरशराबे से दूर शांति से रिटायर्ड लाइफ जीने के लिए कई वो नौकरशाह भी आ बसे, जिन पर कभी जंगल और जंगली जानवरों की सुरक्षा का दायित्व था। जो कानून और सरकारी जमीन बचाते थे। इन्हें देख एक सवाल उठता है। पर इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला कि जंगल और पहाड़ तो सरकारी संपत्ति हैं फिर इन पर निजी मालिकाना हक कैसे हो जाता है ? क्यों हरे भरे पहाड़ धीरे-धीरे कॉलोनी में तब्दील हो जाते हैं और क्यों सरकारी जंगल पर निजी बंगले बन जाते हैं? आखिर पटवारी के बस्ते में ऐसा कौन सा जादू है !
चलें फिर शेरखान की ओर… कभी इसी मध्यप्रदेश की धरती पर रूडयार्ड किपलिंग ने कालजयी किताब ‘जंगल बुक’ की रचना की थी।उनका हीरो “मोगली” हर कहानी में शेरखान यानी जंगल के राजा बाघ पर भारी पड़ता था। शेर आज भी मोगली की प्रजाति के इंसानों से हार रहा है। इंसानों की बदौलत ही मध्यप्रदेश का टाइगर स्टेट का दर्जा छिन गया। 2003 तक 712 टाइगर थे, जो घट कर अब 300 के आंकड़े पर डांवाडोल हो रहे हैं। दुनिया भर में ‘सेव द टाइगर’ का कैंपेन चल रहा है और टाइगर अपने को सेव करने के लिए नई जगह जाए तो अतिक्रमणकारी….घुसपैठिया हो जाता है। पन्ना नेशनल पार्क तो याद होगा ही। एक जमाने में 35 बाघ थे वहां और इंसानों ने एक को भी नहीं छोड़ा था। फिर ! उन्हें शर्म आई और कान्हा, बांधवगढ़ जैसे जंगलों से यहां बाघ भेजे गए। बाघ को क्या चाहिए ? घना जंगल, खुली हवा और पानी। शिकार तो अपने आप आ जाते हैं, सो पन्ना में टाइगर रि-लोकेशन के नाम पर लोग पुरस्कृत हो रहे हैं। उनका सिर गर्व से तन रहा है…लेकिन जब वही टाइगर भोपाल के आसपास अपने पुरखों की जमीन पर अपनी टेरेटरी बनाता है तो उनकी भवें तन जाती हैं। इंसान की जात को भी कोई समझ पाया है, जो बाघ समझे ! व्यथा समझें…बाघ की। उस पर नहीं तो कम से कम राष्ट्रीय गौरव पर तो रहम खाएं…।
ब्लॉग- प्रभु पटेरिया 
prabhu pateriya

 

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