कल शिक्षक दिवस है,1962 में ‘सर’ की उपाधि से नवाजे गए उप राष्ट्रपति श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के दुसरे महामहिम चुने गए और उसी साल से भारत में उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
इस प्राणी जीवन में प्रथम शिक्षक माँ होती है ,वह जननी जिसके द्वारा जीव इस संसार में आता है और उसके द्वारा उसके संरक्षण में ही व्यवहार सीखता है एवं तैयार होता है अपनी जीवन की यात्रा के लिए।
शिक्षक
यह वह माध्यम है जिसके द्वारा प्राणी सीखता है वह विधाएं जो जीवन में उसके और समाज के कार्यों हेतु उपयोगी होती हैं।हिंदी बहुत विस्तृत भाषा है चूंकि यह देवनागरी के अवतरित हुई है अतः इसका स्वरुप विशाल है,इसमें एक अर्थ के लिए कई शब्द हैं और एक शब्द से कई अर्थ भी हैं।
बालक जब समाज में प्रवेश करता तब उसकी शैक्षणिक,सामाजिक शिक्षा के पथ को अपने निर्देशन में प्रगति के मार्ग का चितेरा शिक्षक कहलाता है।
आज की शैक्षणिक व्यवस्था में प्रत्येक विषय के लिए अलग शिक्षक हैं ,और इन विषयों को पढ़ाने का पारश्रमिक पाते हैं,एक मुख्य शिक्षा जिसे आध्यात्मिक शिक्षा कहते हैं और जिसके लिए शिक्षक को गुरु कहा गया है उसे प्राप्त करना आज के समय शिक्षक,अध्यापक,टीचर,मास्साब,उस्ताद आदि संबोधनों से पुकारा जाता है लेकिन प्राणी के इस भौतिक पथ को संतुलित कर चलने में जो प्रदर्शक का कार्य करता है उसे “गुरु” शब्द से संबोधित किया गया है।
शिक्षक और गुरु में अंतर
आज के समय में शिक्षक तो बहुत मिल रहे हैं लेकिन गुरु बहुत कठिनाई से “सद्गुरु”,आज का युग भौतिक युग है यहाँ व्यक्ति को भौतिक व्यवस्थाओं से तौला जाता है,अर्थ प्रधान युग में संसाधनों की प्राथमिकता है अतः पैसा कमाने हेतु कई शातिर दिमाग आध्यात्मिक गुरु का भेष बना कर जन-मानस की भावनाओं को कैश करवाते हैं ,मतलब अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
लोग क्यों इनके शिकंजे में आ जाते हैं
दरअसल व्यक्ति सरल और सहज रास्ता ढूंढता है किसी भी परेशानी से निजात पाने का। आध्यात्मिक गुरु जो जीवन को जीने की सही दिशा दिखाते हैं और उस मार्ग पर चल कर जीव इस संसार में अपने समय को भली- भाँती गुजार लेता है।इसी निर्देशन को पाने संस्कारी लोग गुरु की शरण लेते हैं लेकिन यह नहीं जान पाते की यह भेष बनाए यह व्यक्ति मात्र भेष बनाये बैठा है या वास्तव में उस उर्जा का केंद्र है जिसकी तलाश में वह आया है।
भारतीय आध्यात्म और गुरु परंपरा विशाल है
भारतीय आध्यात्म परंपरा को पूरा विश्व नमन करता है ,सनातन काल से राम और रावण दोनों ही रहे हैं लेकिन इस व्यवस्था पर कई हमले होने के बाद भी यह अपनी मूल स्वरुप से भिन्न नहीं हुई।भारतीय आध्यात्मिक गुरुओं ने समाज को दिशा दी उसे पथ पर उन्नति करने का मार्ग दिखाया और मानवता का पाठ पढाया।
क्या करना होगा आज मानस को
संस्कार तो प्रथम माँ और समाज से ही प्राप्त होता है ,व्यक्ति अपने जीवन में आने वाली कठिनाइयों से घबरा का उसे शॉर्टकट से हल करना चाहता है और उसका सामना करने से परहेज करता है,इसके लिए वह तलाश करता है गुरु की जो उसे मार्ग दिखा सके तथा जल्दबाजी में फंस जाता है भेष बनाये किसी बहुरूपिये को अपनी श्रद्धा,विश्वास समर्पित कर देता है तथा इतना उस भाव में मगन हो जाता है की उस नशे में वह अपनी पीड़ाओं को कम महसूस करने लगता है और वह गुरु रुपी बहुरूपिया इस तरह के कई लोगों को भ्रमित कर अय्याशों वाला जीवन भोगता है।
क्या करना होगा आज के समयकाल में
भारत की पुण्य धरती पर हर काल में पुण्य आत्माओं का अवतरण होता रहा है,और ये आत्माएं समाज को सही दिशा दिखाने और मानवधर्म का पाठ पढ़ाने का कार्य कर इस धरती पर अपने आने का उद्देश्य पूरा करती हैं,लेकिन समय को देखते हुए आवश्यक है की गुरु की परीक्षा कर ली जाय,इसमें कोई दोष नहीं लगता है,सीता जी भी इसी भेष से धोखा खाने के बाद अपहृत हुईं थीं।