नई दिल्ली, 28 मार्च (आईएएनएस)। सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को केंद्र सरकार से ‘महिला एवं कानून’ पर एक उच्चस्तरीय समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट उसके समक्ष पेश करने के लिए कहा। इस उच्चस्तरीय समिति ने तलाक, बच्चों की कस्टडी, विरासत एवं धरोहर से संबंधित पारिवारिक कानूनों का मूल्यांकन किया है।
शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को जिस रिपोर्ट को पेश करने के लिए कहा है, वह अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी. एस. ठाकुर और न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित की पीठ ने सरकार और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित अन्य संबद्ध पक्षों को अदालत द्वारा स्वत: संज्ञान लिए गए और मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तीन बार तलाक-तलाक-तलाक बोलने से होने वाले तलाक की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका का जवाब देने के लिए छह सप्ताह का समय दिया है।
शायरा बानो ने अदालत से अनुरोध किया है कि महज तीन बार बोलने से होने वाले तलाक को अवैध घोषित किया जाए। उनका कहना है कि ऐसा करना संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन है।
शायरा बानो के वकील अमित सिह चड्ढा ने अदालत से कहा कि उच्चस्तरीय समिति की ‘महिला एवं कानून’ रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।
अदालत ने सरकार को यह रिपोर्ट दाखिल करने के अलावा ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) द्वारा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ में अदालत के हस्तक्षेप पर सवाल उठाने को लेकर जवाब दाखिल करने को भी कहा है।
अदालत ने सभी पक्षों से मुस्लिम महिलाओं की लैंगिक समानता से जुड़े इस मसले पर अपना जबाव दाखिल करने को कहा है।
बानो ने अदालत से मांग की है कि सरकार और अन्य पक्षों को मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंदर तलाक-ए-बिद्दत, निकाह हलाला और बहुपत्नी प्रथा को गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित करने का निर्देश दिया जाए। उन्होंने कहा है कि ये पर्सनल लॉ के सभी प्रावधान संविधान के तहत मिले बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन हैं।
शायरा बानो ने कहा कि तीन बार तलाक कहना गैरकानूनी है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के आगे बराबरी), 15 (धर्म, जाति, रंग, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव से मनाही), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) और 25 (पेशे की स्वतंत्रता, धर्म और धर्म के प्रचार की स्वतंत्रता) का उल्लंघन है।
बानो की याचिका का विरोध करते हुए एआईएमपीएलबी ने अपनी हस्तक्षेप याचिका में कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ कुरान और हदीस पर आधारित है, इसलिए अदालत इस पर फैसला नहीं सुना सकती।
इसमें कहा गया कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार मुस्लिम वोमेन एक्ट (तलाक पर अधिकार संरक्षण) कानून 1986 के तहत संरक्षित हैं जिसे शीर्ष अदालत ने भी 2001 में मंजूरी दी थी। यह भी दलील दी गई कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधान संविधान के दायरे के बाहर या उसके विरोध में नहीं हैं। इनकी वैधता को चुनौती मौलिक अधिकार के आधार पर नहीं दी जा सकती।